Birsa Munda Memorial : बिरसा मुंडा के स्मारक स्थल के लिए जमीन देने वाले बिसु मुंडा को आज भी इंतजार है इंसाफ का

Birsa Munda Memorial : बिसु मुंडा से बात करने पर उन्होंने जो बताया उससे यह तो स्पष्ट हो गया कि आदिवासी समाज भी गैर-आदिवासी वातावरण से प्रभावित हो चुका है। यहां जो भी आता है वह बिसु मुंडा को आश्वासन का झुनझुना थमा जाता है....

Update: 2022-01-15 15:03 GMT

(दयनीय हालत में गुजर बसर कर रहे बिसु मुंडा)

विशद कुमार  की रिपोर्ट

Birsa Munda Memorial : झारखंड के खूंटी जिला (Khunti District) अंतर्गत डोंबारी बुरू में मेला आयोजित करने के लिए अखाड़ा, भवन और भगवान बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की जहां प्रतिमा बनायी गयी है। उसके निर्माण के लिए कुल 80 डिसमिल जमीन देने वाले बिसु मुंडा (Bisu Munda) की आज काफी दयनीय स्थिति है। उक्त स्थल की देखरेख के लिए उन्हें ही नौकरी पर रखा गया था। शुरुआत में उन्हें जिला परिषद से वेतन दिया जा रहा था, लेकिन नवंबर 1996 से वेतन भी बंद हो गया। बिसु के मुताबिक, उन्हें दिया गया आश्वासन पूरा नहीं किया गया है। मतलब कि शहीदों पर झारखंड की सरकार आज तक औपचारिकता ही निभाती रही है।

बिसु मुंडा से बात करने पर उन्होंने जो बताया उससे यह तो स्पष्ट हो गया कि आदिवासी (Tribals) समाज भी गैर-आदिवासी वातावरण से प्रभावित हो चुका है। यहां जो भी आता है वह बिसु मुंडा को आश्वासन का झुनझुना थमा जाता है।


बिसु मुंडा ने बताया उन्होंने बिरसा मुंडा एवं अन्य शहीदों के स्मारक के लिए अपनी 80 डिसमिल जमीन 1990 में अनुदान में दिया था तथा स्मारक बनने के बाद उन्हें वहां बारी चौकीदार यानी उस क्षेत्र की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया था। लेकिन 1996 के बाद से अभी तक उन्हें मानदेय या वेतन कुछ भी नहीं मिला है। उन्हें आज भी किसी ऐसे फ़रिश्ते का इन्तजार है जो उन्हें उनका हक दिलवा सके। लेकिन अभी तक ऐसा कोई नहीं मिला, जबकि वे हर वर्ष 9 जनवरी डोंबारी बुरू स्मारक स्थल पर श्रद्धांजलि देने आने वाले सांसद, विधायक, मंत्री, समाजसेवी एवं सरकारी अफसरों तक को अपनी डिमांड लिखित में देते रहे हैं। 65 वर्षीय बिसु मुंडा की अजीविका का साधन एक मात्र खेतीबाड़ी है। उनके दो बेटे हैं जो पूरी तरह खेती पर ही आश्रित हैं।

बता दें कि खूंटी में आदिवासियों की जनसंख्या 70% से अधिक है और खूंटी में खूंटकट्टी और भूईंहरी वाले विशेष क्षेत्र के लगभग 2500 ग्राम हैं जिनपर कोई भूमि सुधार /अधिग्रहण के कानून नहीं लागू हो सकते हैं न ही इस क्षेत्र की जमीन की खरीद बिक्री हो सकती है। डोंबारी बुरू भी इसी क्षेत्र के तहत आता है अतः ऐसे में किसी को भी जमीन केवल अनुदान के तहत ही दिया जाता है। जिसका न तो मुआवज़ा होता है न ही कोई कीमत होती है। सो बिसु मुंडा द्वारा दी गई 80 डिसमिल जमीन की कोई कीमत भी नहीं दी गई।

बताते चलें कि अमर शहीद वीर बिरसा मुण्डा का उलगुलान स्थल कर्म भूमि खूंटी जिला के मुरहू प्रखण्ड अंतर्गत गुटूहातू गाँव में अवस्थित डोम्बारी बुरू शहीद स्थल जहाँ ब्रिटिश शासन के खिलाफ धरती आबा बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में 25 दिसम्बर से 1899 से जो अंदोलन चला उसमें शामिल हजारों आंदोलनकारी को 9 जनवरी 1900 को अंग्रेजी हुकूमत की गोली के शिकार हुए।

उन्हीं शहीदों की याद और अमर शहीद बिरसा मुण्डा की याद में एक स्मारक स्थल बनाया गया। जिसकी देखरेख के लिए गुटूहातू गॉव टोला ऐतरे के बिसु मुण्डा, पिता स्व0 सुगना मुण्डा ने 80 डिसमिल जमीन दानस्वारूप समाज को दिया है।

बिसु मुण्डा बताते हैं कि स्मारक स्थल की 1 अगस्त 1990 से चौकीदारी, सह रात्री पहरेदारी के लिए प्रतिमाह 800/- मिलता था, परन्तु 27 जुलाई 1996 के बाद यह बन्द कर दिया गया। बिसु मुण्डा बताते हैं कि इसके लिए 1997 के बाद हमेशा स्थानीय विधायक, सांसद, स्थानीय नेताओं आदि से प्रायः बंद वेतन के लिए गुहार लगाता रहा परन्तु आज तक मेरी समस्या को किसी ने नहीं सुना, हमेशा आश्वासन ही मिला। यह पूछे जाने पर कि वे इसपर क्या चाहते हैं?


बिसु मुण्डा कहते हैं कि मुझे न्यूनतम सरकारी दर से जब से वेतन देना बन्द किया गया है, तब से आज तक का वेतन मुझे मिलना चाहिए और आने वाला समय में भी निरंतर मिलते रहना चाहिए।

बिसु मुण्डा की पारिवारिक स्थिति के अनुसार पत्नी - नन्दी देवी - उम्र 62 वर्ष, बड़ा बेटा - सोमा मुण्डा, उम्र-41 वर्ष, शिक्षा - निरक्षर, छोटा बेटा करम सिंह मुण्डा, उम्र- 30 वर्ष शिक्षा - 9 वीं पास, एक पोता जो 10 वर्ष का है और पहली कक्षा में पढ़ता है, एक पोती 7 साल की है।

बता दें कि जिला अभियंता, जिला परिषद कार्यालय रांची द्वारा ज्ञापांक — 223, दिनांक 24—8—1990 के तहत बताया गया कि कुपु मुण्डा पिता भोज मुण्डा ग्राम जोजोहातू एवं बिसु मुण्डा पिता सुगना मुण्डा ग्राम गुटुहातू को डोम्बारी स्थित बिरसा भगवान की मूर्ति प्रतिस्थापन के बाद दिनांक - 1—8—1990 से दैनिक मजदूरी पर रात्री प्रहरी सह चौकीदार सह पहरेदार के पद पर अस्थायी तौर पर नियुक्त किया जाता है। यह नियुक्ति अस्थायी है एवं बिना किसी कारण बताए किसी भी समय में नियुक्ति रद्द की जा सकती है। लेकिन 1996 मेें उनकी नियुक्ति रद्द करने की उन्हें कोई सूचना नहीं दी गई और अचानक उनका वेेतन बंद कर दिया गया। इस मामले को लेकर बिसु मुण्डा संबंधित अधिकारियों के भी दर्जनों चक्कर लगाए।

2012 में उप विकास आयुक्त-सह मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी, जिला परिषद, खूँटी द्वारा पत्रांक 156/ जि.प. दिनांक 08.05.12 के आलोक में उप विकास आयुक्त-सह मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी, जिला परिषद, रांची को एक पत्र भेजकर कहा गया कि उपर्युक्त विषय प्रासंगिक के संबंध में कहना है कि आपके आदेश ज्ञापांक 117 दिनांक 26.05.1993 द्वारा श्री बिसु मुण्डा, पिता स्व० सुगना मुण्डा, ग्राम-गुटुहातु टोला सेकरे, थाना-मुरडू, जिला-खूँटी को डोम्बारी पहाड़ पर स्थापित बिरसा भगवान की मूर्ति की देख-भाल हेतु चौकीदार के पद पर दैनिक मजदूरी पर नियुक्त किया गया। श्री मुण्डा, द्वारा उपलब्ध कराये गये आवेदन में दिनांक 01.08.1990 से दिनांक 01.10.1996 तक नियमित रूप से मजदूरी का भुगतान करने की बात कही गयी है एवं दिनांक 01.11.1996 से मजदूरी का भुगतान बंद रहने के फलस्वरूप लंबित मानदेय राशि का भुगतान करने का अनुरोध किया गया है। आवेदन पत्र पर माननीय मंत्री श्री नीलकण्ठ सिंह मुण्डा, ग्रामीण विकास विभाग, झारखण्ड, रांची के द्वारा नियमानुसार आवश्यक कार्रवाई हेतु अग्रसारित किया गया है। उक्त मामला राँची जिला से संबंधित है। अतः श्री मुण्डा का आवेदन मूल रूप में संलग्न करते हुए अनुरोध है कि उनके आवेदन पर सहानुभूति पूर्वक विचार करते हुए नियमानुसार अग्रेतर कारवाई किया जाय। इस पत्र पर आजतक कोई सुनवाई नहीं हुई।


 सबसे दुखद व आश्चर्यजनक बात यह है कि बिसु मुण्डा के आधार कार्ड में उनकी जन्मतिथि 1974 लिखा हुआ है जो उन्हें मिलने वाला तमाम सरकारी सुविधाओं से वंचित करता है। उन्हें वृद्धा पेंशन की भी कोई संभावना नहीं है। शायद यह बात खुद बिसु मुण्डा को या उनके बेटों को भी नहीं पता है। घर की स्थिति बहुत दयनीय है। खेतीबाड़ी के अलावा कोई अन्य साधन नही है।

 लोक कलाकार व संस्कृति कर्मी सुखराम पाहन कहते हैं कि बिसु मुण्डा के हिस्से में तकरीबन मात्र 6 एकड़ जमीन है। उसमें भी खेती योग्य जमीन बहुत कम है। फिर भी इन्होंने अमर शहीदों के लिए जमीन दान की, यह राज्य के जितना गर्व बात है उतना ही उनकी उपेक्षा राज्य के लिए शर्म की बात है। वे आगे कहते हैं कि सरकारी तंत्र द्वारा बिसु मुण्डा की उपेक्षा केवल उनकी उपेक्षा या अपमान नहीं है बल्कि यह के बिसु मुण्डा के साथ-साथ शहीदों का भी अपमान है।

बताना जरूरी होगा कि जालियांवाला बाग (13 अप्रैल 1919 ) से पहले का जालियांवाला बाग, यानी अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता का पहला गवाह बना था, झारखंड के खूंटी जिला अंतर्गत मुरहू प्रखंड का डोंबारी बुरू, जहां आज से ठीक 118 साल पहले 9 जनवरी 1900 को ब्रिटिश सेना-पुलिस और बिरसा मुंडा के आंदोलनकारियों बीच जंग छिड़ी थी। सईल रकब से लेकर डोंबारी बुरू तक घाटियां सुलग उठी थीं। 25 दिसंबर 1899 से लेकर नौ जनवरी 1900 तक खूंटी के कई इलाकों सहित रांची से लेकर खूंटी-चाइबासा तक अशांत था। मुंडा आंदोलनकारियों के साथ 9 जनवरी की लड़ाई अंतिम लड़ाई साबित हुई।

इसके बाद बिरसा मुंडा के साथियों की धर-पकड़ तेज हो गई। सैकड़ों निहत्थे आदिवासियों की बड़़ी क्रूरता से गोलियों की बौछार करके हत्या कर दी गई। 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए गए और नौ जून को उन्होंने अंतिम सांस ली। आदिवासियों की इस शहादत को हर साल 9 जनवरी को अंतिम उलगुलान के रूप में याद किया जाता है। उन्हीं की याद में 110 फीट ऊंचा विशाल स्तंभ का निर्माण किया गया। जो अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता व सैकड़ों आदिवासियों की शहादत की यादगार बना हुआ है। उस ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति में डोंबारी पहाड़ पर एक विशाल स्तंभ का निर्माण मुंडारी भाषा के विद्वान जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से किया गया।

बता दें कि इस ऐतिहासिक लड़ाई की स्मृति में एक स्मारक निर्माण के लिए 'बिरसा स्मारक बहुउद्देशीय विकास समिति' का गठन किया गया और इस समिति के सचिव बनाए गए डॉ रामदयाल मुंडा। पहाड़ पर 110 फीट ऊंचा डोंबारी बुरू का स्मारक पत्थरों से बनाया गया, जो काफी दूर से दिखाई देता है। तत्कालीन मंडलायुक्त सीके बसु द्वारा बिरसा मुंडा के शहादत दिवस के अवसर पर इस स्मारक का उद्घाटन 9 जून 1991 को किया गया था।

पहाड़ की तलहटी में एक मंच भी बनाया गया और उसके पास ही 30 फीट की बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की कास्य प्रतिमा भी स्थापित की गई। कास्य प्रतिमा का निर्माण नेतरहाट के राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने 1990 को किया। प्रतिमा तक पहुंचने के लिए सीढिय़ां बनाई गई हैं, लेकिन वे आज जर्जर हो चुकी हैं। लोहे की रेलिंग में जंग लग गया है। सीमेंट जगह-जगह से छोड़ रहा है। प्रतिमा का बेस कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकता है। पिछले 28 सालों से इसका रंग-रोगन भी नहीं हुआ है।


 यहीं पर एक छोटा सा मैदान भी है। एक विशाल मंच भी है। इसके बाद अंदर स्मारक तक जाने के लिए पीसीसी सड़क बनी है। यहां तक पहुंचने के लिए सीधी चढ़ान है। यहीं से सईल रकब भी दिखाई देता है। सरकार का विकास केवल बिरसा मुंडा के जन्मस्थल तक ही सिमट गया है, जबकि उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल उपेक्षा के शिकार हैं। एक महत्वपूर्ण स्मारक, उपेक्षित है। जबकि उस समय यहां एक छोटा सा अस्पताल और स्कूल खोलने की बात भी की गई थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि बिहार के समय में जो काम हुआ वह हुआ, राज्य बनने के बाद से अभी तक यहां एक ईंट भी नहीं रखी गई है। अलबत्ता स्थानीय लोगों ने ग्राम पंचायत गुटुहातु, मुरहू के सौजन्य से यहां 9 जनवरी 2014 को एक पत्थलगड़ी जरूर कर दी है, जिस पर अंग्रेजों के गोलीकांड में शहीद छह लोगों के नाम दर्ज हैं।

दूसरी तरफ डोंबारी बुरू में शहीद हुए सैकड़ों शहीदों में से अब तक सभी की पहचान नहीं हो पायी है। शहीद हुए लोगों में मात्र 6 लोगों की ही पहचान हो सकी है। इसमें गुटूहातू के हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, बरटोली के सिंगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंगडुंग मुंडा की पत्नी शामिल हैं।

जहां एक तरफ बिसु मुंण्डा को अपने लिए इंसाफ का इंतजार है वहीं इस विशाल स्तंभ जो उलगुलान के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए है आज भी विकास की बाट जोह रहा है। स्तंभ की सीढ़ी व फर्स पर लगे पत्थर टूट चुके हैं। सीढि़यों के किनारे बनाए गए रेलिग भी कई जगह टूट चुकी है। सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करने वाली इस ऐतिहासिक स्तंभ को अब किसी तारणहार का इंतजार है।

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