दिल्ली में मची बाढ़ की तबाही और रियल स्टेट की डूब इलाकों को निगल जाने को बेताब भूखी निगाहें

जनता को अतिक्रमण के नाम पर उनकी झुग्गी बस्तियों को तो जरूर उजाड़ दिया गया लेकिन उन्हीं जगहों पर स्थाई निर्मार्णों को अंजाम दिया गया। खुद यमुना पर कई बैराज बनाये गये और उसके पानी को नियंत्रित करने के नाम पर वजीराबाद से इस नदी का गला घोंट दिया जाता है.....

Update: 2023-07-15 06:02 GMT

बाढ़ की तबाही को ऐसे झेल रही है दिल्ली की जनता, घरों के अंदर तक घुस चुका है नालियों का पानी

अंजनी कुमार की टिप्पणी

Delhi Flood : जैसे-जैसे यमुना का स्तर बढ़ रहा था, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की रीरियाहट बढ़ रही थी। वे गृहमंत्री अमित शाह से अपील कर रहे थे कि वह हरियाणा सरकार से कहे कि हथिनीकुंड से पानी कम छोड़े, नहीं तो दिल्ली डूब जायेगी। हद तो तब हो गई जब उन्होंने कहा कि यह जी-20 की मीटिंग होनी है, दिल्ली डूबेगी तब इसका संदेश बहुत खराब जायेगा। उनकी बातों से ऐसा लग रहा था कि वे ही जी-20 की मीटिंग आयोजित कर रहे हैं और केंद्र सरकार उनकी जगहंसाई का माहौल बना रहा है।

केजरीवाल की बातों में एक बात सच थी कि दिल्ली की बाढ़ प्राकृतिक कम और इंसानी पहल ज्यादा थी। मुश्किल यह थी कि आप की दिल्ली सरकार अपनी जिम्मेदारी को भाजपा की केंद्र और हरियाणा की राज्य सरकार पर डाल देना चाहती थी। गनीमत रही कि इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड और हिमाचल की सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया।

भाजपा की केंद्र सरकार ने भी इसमें राजनीति खेलने में पीछे नहीं रही। राज्य में केंद्र के प्रतिनिधि गवर्नर का व्यवहार ऐसा रहता है, मानो वे दिल्ली की जनता ने आप की सरकार की जगह उन्हें ही चुना है। वह राज्य के बहुत सारे अधिकारों पर दावे करते ही रहते हैं, लेकिन जब यमुना का स्तर बढ़ा और दो दिन की बारिश में दिल्ली कीचड़ में फंसने लगा तब उन्होंने इसका सारा ठीकरा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर फोड़ दिया। उन्हें लगने लगा कि बारिश में जो हर साल पानी का जमाव होता है, वह त्यौहार की तरह है जिसके लिए आप पार्टी की सरकार है।

गृहमंत्री अमित शाह ने तो बयान देना भी गवारा नहीं किया। वहीं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, जैसा कि गवर्नर ने दावा किया; फ्रांस से फोन पर बात कर राजधानी में बाढ़ की स्थिति का जायजा लिया और कहा कि दिल्ली की जनता को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। ऐसा लगता है मानो दिल्ली केंद्र और गवर्नर के तत्वाधान में चलने वाली सरकार है और यहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का अस्तित्व ही नहीं है।

अभी तक अखबारों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक भी वक्तव्य नहीं दिखाई दिया है जिसमें हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल में बारिश से हुई तबाही के बारे में हो और वहां की जनता की तबाही की खोजखबर ली गई हो। इसमें चंडीगढ़ तो केंद्र शासित है। यह शहर भीषण बारिश में जलमग्न हो गया। इसके आसपास का इलाकों में बसे लोगों के घरों में पानी घुस गया। इससे सटे हुए जमरूदपुर, जहां के कछारों को पाटकर मकानों के प्लॉट काटे गये और अरबों रुपये का रियल स्टेट कारोबार खड़ा हुआ, बारिश का पानी वहां के मकानों में घुस गया।

हरियाणा में भाजपा की सरकार है। करनाल, अंबाला और पानीपत में शहर ही नहीं, गांव के गांव तबाह हुए हैं। पंजाब में आप की सरकार है। वहां खेतों में लगी फसलों को बारिश ने बुरी तरह से नुकसान किया है। और, सबसे अधिक तो हिमांचल प्रदेश की स्थिति बदतर हुई। जान-माल का भारी नुकसान तो हुआ ही है, राज्य की पूरी परिवहन व्यवस्था बर्बाद हुई है और कई गांव बह गये हैं। लगभग एक लाख पर्यटक फंस गये थे जिसमें दो दिन पहले तक लगभग 70 हजार लोगों को सुरक्षित किया गया है। अभी भी बहुत सारे लोग लापता हैं। अभी भी स्थिति बदतर बनी हुई है। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश भी इस विभिषिका की चपेट में है और आने वाले दिनों यहां भी स्थिति और बदतर होने की संभावना बतायी जा रही है।

बारिश से पूरे उत्तर-भारत में बर्बादी की स्थिति बनी हुई है। पहले, मानसून आने की देरी से किसानों को नुकसान हुआ और अब बारिश और बाढ़ से लगी हुई खरीफ की फसलें बर्बाद हो रही है। एक साथ दिल्ली से लेकर ऊपर पहाड़ों तक बारिश एक भयावह स्थिति पैदा करने के लिए काफी है। यह मौसम की एक अभूतपूर्व स्थिति है, जिसके लिए तात्कालिक कारण के साथ साथ वे दूरगामी कारण भी हैं जिसे भारत से अधिक यूरोपीय देश और अमेरिका ने पैदा किया है।

विश्व तापमान में वृद्धि, कार्बन उत्सर्जन, रसायनों का भारी प्रयोग, औद्योगिक कचरा, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और पानी का बेहिसाब प्रयोग ऐसे पक्ष हैं, जिसके लिए साम्राज्यवादी देश मुख्य जिम्मेवार हैं और निश्चय ही इसमें भारत के कारपोरेट समूह, पूंजीपति और सरकार की नीतियां भी हिस्सेदार हैं। स्थानीय स्तर पर अलग अलग राज्यों ने उद्योग और मुनाफा की जो नीति अपना रखी है, उसी अनुपात में प्रकृति को भी बर्बाद किया हुआ हैं। इसके लिए राज्य और केंद्र दोनों की नीतियां एक साथ जिम्मेवार हैं, लेकिन आमतौर पर जब ये बर्बादियां उन लोगों को चपेट में लेती हैं जिन्हें इन नीतियों से न तो कोई खास फायदा हुआ रहता है और न ही उसे बनाने में शामिल होते हैं, तब केंद्र और राज्य सरकार में बैठे हुए नेतागण जरूर हवाई यात्रा आदि से बर्बादियों का नजारा देख बयान देते हैं।

इस बार स्थिति दूसरी है। राज्य सरकारें बर्बादियों से जूझने में लगी हुई हैं। निश्चय ही केंद्र सरकार की कुछ ऐजेंसियां भी इससे निपटने में लगी हुई हैं, लेकिन केंद्र में बैठी सरकार की ओर से कोई बयान आना एक तरह से बंद हो गया है। ऐसा हम कई और भी मामलों में देख रहे हैं। मसलन, मणिपुर में वहां एक राजनीतिक संकट ने राज्य में गृहयुद्ध जैसे हालात बन गये। सैकड़ों लोग मारे गये, हजारों घर जला दिये गये। लेकिन, प्रधानमंत्री की ओर एक बयान का बस इंतजार ही करते रह गये। यह चुप्पी उत्तर भारत में बारिश से हुई तबाही में भी देखी गई। अपवाद, दिल्ली रहा, वाया दिल्ली गवर्नर।

दिल्ली में यमुना के उफान और बाढ़ के लिए यदि जिम्मेवारी तय होनी है तब इसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की भागदारी भी रेखांकित करना होगा। यमुना की कुल लंबाई का महज 2 प्रतिशत हिस्सा दिल्ली से गुजरता है। इस दो प्रतिशत लंबाई में 40 से अधिक नाले कूड़ा-कचरा, रसायन और सीवेज का गंदा पानी से लेकर गाद तक इसमें गिरता है। इससे यमुना पूरी यात्रा में जितना प्रदूषित होती है उसका 80 प्रतिशत इसी दिल्ली में हो जाती है।

दिल्ली में यमुना के महज 22 किमी की यात्रा पर 20 पुल बने हुए हैं। यदि इसके किनारों पर बने रिहाईशों को देखें, तब इसमें अक्षरधाम मंदिर, मेट्रो के विविध स्टेशन और यार्ड, कॉमनवेल्थ शहर, मिलेनियम बस अड़डा और कई सारे मुहल्ले बसे हुए हैं। जनता को अतिक्रमण के नाम पर उनकी झुग्गी बस्तियों को तो जरूर उजाड़ दिया गया लेकिन उन्हीं जगहों पर स्थाई निर्मार्णों को अंजाम दिया गया। खुद यमुना पर कई बैराज बनाये गये और उसके पानी को नियंत्रित करने के नाम पर वजीराबाद से इस नदी का गला घोंट दिया जाता है। आगे ओखला तक यह खूबसूरत और पवित्र माने जाने वाली नदी नाले में तब्दील हो जाती है। और, इसके सूखे पटान पर कई जगहें खेल के मैदान बदल दी जाती है वहीं रियल स्टेट वालों की भूखी नजरें इन जगहों को निगल जाने के बेताब होने लगती हैं।

सोनिया विहार से लेकर, सीलमपुर और नोएडा तक का इलाका एक बांध के पीछे बसा हुआ है। यह यमुना पार का इलाका है। दूसरी ओर मुगल और ब्रिटिश काल में बनायी गयी सीमाएं और निर्माण हैं जो अब बहुत पुरानी हो चुकी हैं। नये निर्माणों ने आईटीओ से लेकर ओखला बैराज तक कंक्रीट का विशाल बैरियर खड़ा कर दिया है। यमुना का तल गाद, रसायन और निर्माण कचरों से ऊपर उठता गया है जबकि किनारे सिल्टिंग और रासायनिक पदार्थों की वजह से बुरी तरह विघटित हो रहा है। यह यमुना का हाल है और इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों की एजेंसियां जिम्मेवार हैं। जब अच्छा होता है तब दोनों ही इस पर दावेदारी करते हैं और जब बुरा होता है तब एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में पीछे नहीं रहते हैं।

कहा जाता है कि बच्चों जैसा होना अच्छी बात है, लेकिन बच्चों जैसी हरकतें करना बुरी बात है। जब देश के राजनेता और सरकारें ऐसी हरकतें करने लगें, तब यह जरूर मानिये कि वे जनता से कट चुके हैं और जनहित उनकी नजर में मुख्य पक्ष नहीं रह गया है। फिलहाल, यमुना से दिल्ली में आयी बाढ़ पर कुछ ऐसा ही हो रहा है। यह तात्कालिक जूतमपैजार राजनीति तात्कालिक समस्या का न तो निपटारा है और न ही दूरगामी हल के लिए किया जा रहा प्रयास। जनता को बाढ़ से बचने, एक दूसरे को सहायता करने और बेहतर जिंदगी के खुद पहलकदमी करनी होगी और केंद्र और राज्य सरकार को उनकी जिम्मेवारियों के प्रति जवाबदेह भी बनाना होगा।

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