Farmers Movement : 'भाजपा के अहंकार को तोड़ने और कॉरपोरेट की हार के लिए याद रखा जाएगा किसान आंदोलन'
Farmers Movement : किसान आन्दोलन ने भाजपा की घृणा की ज़मीन पर सौहार्द के पौधे रोपने शुरू किए थे। जिससे भाजपा को अपने भविष्य के बड़े नुकसान से बचने के लिए फौरी तौर पर पराजय जैसा खून का घूंट पीकर कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा...
किसान आंदोलन की समाप्ति पर प्रख्यात वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता गौहर रज़ा की टिप्पणी
Farmers Movement : किसानों की जीत के साथ ही यह आंदोलन भाजपा (BJP) के अहंकार को तोड़ने व कॉरपोरेट की हार के लिए याद रखा जाएगा। देश के वंचित तबके को यह आंदोलन लम्बे समय तक प्रेरणा देता रहेगा। देश ही नहीं विश्व के सबसे लम्बे चले इस आन्दोलन ने देश की राजनीति सहित हर चीज को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। मुख्य तौर पर तीन कृषि कानून (Farm Laws) की वापसी और एमएसपी (MSP) कानून बनाये जाने की मांग को लेकर शुरू हुआ यह आन्दोलन (Farmers Movement) सरकार के दमन के साथ-साथ ही और निखरता चला गया। सरकार हर हाल में इस आन्दोलन को कुचलने पर आमादा थी लेकिन किसानों के लिए उनकी ज़िंदगी और मौत का सवाल था। जिससे देश की तमाम गरीब व मध्यम वर्ग की ज़िंदगी भी जुड़ी थी।
यदि किसान इस लड़ाई से पीछे हट जाता तो देश में फिर कोई और अपने अधिकार के लिए शायद ही इस सत्ता के खिलाफ खड़ा होने का साहस कर पाता। इतने विराट आन्दोलन को सरकार के तमाम षड्यंत्रों को खारिज करते हुए इतनी सूझबूझ के साथ चलाना वाकई आम किसानों के रणकौशल को दिखाता है। कदम-कदम पर मीडिया सहित सरकार के पालतू लोग जब आंदोलकारी किसानों को अपमानित करते हुए उनकी देशभक्ति तक पर सवाल उठा रहे हों, तब ऐसी विपरीत परिस्थितियों में किसानों ने आन्दोलन का मोर्चा कमजोर न पड़ने देकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया।
भाजपा केवल एक-आध चुनाव की पराजय की वजह से ही अपने कदम पीछे नहीं खिंचती। एक-दो राज्यों की सरकार अगर चली भी जाती तो भाजपा फिर कभी मन्दिर-मस्जिद, शमशान-कब्रिस्तान, हिन्दू-मुसलमान जैसी बीन बजाकर उन राज्यों में अपनी सरकार बना लेती। भाजपा और कॉरपोरेट को इस आन्दोलन से सबसे बड़ा खतरा समाज के उस नफरती ताने-बाने के विखंडित होने का था, जो उसने पिछले तीस सालों से हिन्दू-मुसलमान करके बड़ी मेहनत से बनाकर खड़ा किया है।
किसान आन्दोलन की वजह से देश के सभी जाति-धर्म के लोग एक मंच पर आकर शिददत से इस बात को महसूस कर रहे थे कि भाजपा द्वारा स्थापित एक दूसरे से नफरत के भाजपाई मॉडल से उन्हें आखिर क्या मिला है ? इस किसान आन्दोलन ने भाजपा की घृणा की ज़मीन पर सौहार्द के पौधे रोपने शुरू किए थे। जिससे भाजपा को अपने भविष्य के बड़े नुकसान से बचने के लिए फौरी तौर पर पराजय जैसा खून का घूंट पीकर भी येन-केन-प्रकारेण इस आंदोलन को खत्म करने के लिए कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
इसके साथ ही एक और खास बात है, जिसे हम खारिज नहीं कर सकते। नब्बे के दशक के बाद से जनांदोलनों में जो ठहराव का दौर आया है, उसको भी किसानों के इस आन्दोलन ने तोड़ने का काम किया है। अभी तक आन्दोलन के मोर्चे पर केवल किसान ही थे। जैसे श्रम कानून देश के केन्द्र सरकार ने मज़दूरों पर थोपे हैं, उसके आलोक में देश भर के मज़दूर भी करीब-करीब गुस्से में हैं। निकट भविष्य में वह भी किसानों के साथ अपनी लड़ाई को मुखर रूप दे सकते थे।
इसके साथ ही देश में युवा भारत के इतिहास में इस समय सर्वाधिक विकट परिस्थितियों से गुजर रहा है। रोजगार के अभाव में तमाम युवा कुंठाओं का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में उनके बीच से भी किसी आन्दोलन की चिंगारी फूटने से इनकार नहीं किया जा सकता। सोचकर देखिए कि यदि किसान के साथ देशभर का मज़दूर और युवा वर्ग भी इस आन्दोलन में शामिल हो जाता तो क्या स्थिति होती? देश का कॉरपोरेट वर्ग इस स्थिति को कभी नहीं आने देगा। कॉरपोरेट के लिए देश भर में चलने वाले छिटपुट आन्दोलन कोई दिक्कत तलब बात नहीं हैं, आन्दोलनों का यूनाइटेड शेप उसके लिए खतरे की घण्टी है। इस स्थिति से कॉरपोरेट हर हाल में बचना चाहता है।
अब सभी आन्दोलन करने वाली ताक़तों को यह समझ लेना चाहिए कि आन्दोलन करना और सरकार से अपनी मांग पूरी करवा लेना अब इतना आसान नहीं है। जो जनांदोलनों से निकले राजनैतिक दल हैं, वह फिर भी किसी आन्दोलन का नोटिस लेने को मजबूर होते हैं। अन्ना हज़ारे के आन्दोलन में गांधी केवल टोपी-खादी के प्रतीक के तौर पर मौजूद थे। कांग्रेस की सरकार इतने भर से ही सहम गई थी लेकिन भाजपा इन सब बातों की कोई परवाह नहीं करती। जब तक भाजपा अपने अस्तित्व पर ही खतरा महसूस नहीं करती, किसी भी जनान्दोलन की परवाह नहीं करती।
भविष्य में भी यदि कोई आन्दोलन भाजपा सरकार के खिलाफ खड़ा होता है तो उसे उसकी डेंसिटी के साथ ही कुशल नेतृत्व और असीम धैर्य के साथ मोर्चे पर उतरना पड़ेगा, यही इस किसान आन्दोलन से निकला सार है। एमएसपी पर कमेटी के गठन के बाद सर्वसहमति से एमएसपी बनाना सरकार की मजबूरी है। सरकार शायद ही इससे मुकरने का दुस्साहस दिखा पाए।