Hijab Controversy: हिजाब तो एक बहाना है! निशाने पर कुछ और है?
Hijab Controversy: बेंगलुरु से मैसूर पहुँचने वाले राजमार्ग पर कर्नाटक की राजधानी से सिर्फ सौ कि मी दूर स्थित मांड्या शहर के एक कॉलेज में बी कॉम के दूसरे साल में पढ़ने वाली मुसलिम छात्रा मुस्कान में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला ने दूर इंग्लैंड में बैठे-बैठे ऐसा क्या देख लिया होगा कि वह उसके साथ खड़ी हो गई और भारत का यह छोटा-सा शहर दुनिया के नक़्शे पर आ गया?
वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी
Hijab Controversy: बेंगलुरु से मैसूर पहुँचने वाले राजमार्ग पर कर्नाटक की राजधानी से सिर्फ सौ कि मी दूर स्थित मांड्या शहर के एक कॉलेज में बी कॉम के दूसरे साल में पढ़ने वाली मुसलिम छात्रा मुस्कान में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला ने दूर इंग्लैंड में बैठे-बैठे ऐसा क्या देख लिया होगा कि वह उसके साथ खड़ी हो गई और भारत का यह छोटा-सा शहर दुनिया के नक़्शे पर आ गया? मुस्कान ने आठ फ़रवरी को जो इतिहास बनाया उसे भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आहटों के बीच अत्यंत पिछड़े समझे जाने वाले पच्चीस करोड़ की आबादी वाले मुसलिम समाज द्वारा ली जा रही करवटों से जोड़कर देखा जा सकता है। इन्हीं करवटों से पैदा होने वाला कम्पन इस समय उत्तर प्रदेश के चुनावों में नज़र आ रहा है जिससे लखनऊ और दिल्ली की सत्ताएँ डरी हुई हैं।
मांड्या से सरकार को चुनौती इस बात की दी जा रही है कि वह तीन तलाक़ आदि को कुप्रथा बताकर मुसलिम महिलाओं को आज़ादी दिलाने की बात तो करती है पर हिजाब को हथियार बनाकर बच्चियों को लिखने-पढ़ने से रोकना चाहती है। सरकार डरती है कि ये बच्चियाँ भी अगर पढ़-लिखकर नौकरियों में अपना हिस्सा और नागरिक अधिकारों की माँग करने लगेंगीं तो उसके उस बहुसंख्यक वोट बैंक में सेंध लग जाएगी जिसके तुष्टिकरण के ज़रिए वह सत्ता की राजनीति करना चाहती है।('इंडियन एक्सप्रेस' की एक खबर के मुताबिक़ ,मुसलिम बालिकाओं द्वारा स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश लेने की संख्या ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ रही है। वर्ष 2007-2008 में देश की कुल मुसलिम महिलाओं का केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा प्राप्त करता था पर 2017-18 में वह बढ़कर 13.5 प्रतिशत हो गया।)
अपने गलों में भगवा शालें लपेटकर जयश्री राम के नारे लगाते हुए छात्रों की भीड़ ने जब आठ फरवरी को मांड्या के कॉलेज में मुस्कान को घेर लिया तो उन्हें दूर-दूर तक अनुमान नहीं रहा होगा कि निरीह-सी नज़र आने वाली लड़की आगे कुछ ऐसा भी कर सकती है जिससे उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक जाएगी ! कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी अख़बार 'द टेलिग्राफ' ने घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है :
'उस नितांत अकेली छात्रा ने अपना दो-पहिया वाहन पार्क किया और क्लास की तरफ़ बढ़ने लगी तभी उसकी नज़र अपनी बाईं ओर गई। उसने गौर किया कि भगवा दुपट्टाधारी युवाओं का एक समूह उसकी तरफ़ देखते हुए 'जयश्री राम ' के नारे लगा रहा है। मुस्कान ने भी पलटकर जवाब दे दिया :'अल्लाहु अकबर' (अल्लाह महान है ), 'हिजाब मेरा अधिकार है' और वह क्लास की ओर बढ़ती गई। युवाओं का झुंड भी चिल्लाता हुआ उसका पीछा करता रहा। तभी पीछा कर रहे भगवा दुपट्टाधारी युवाओं से मुस्कान ने पीछे पलटकर सवाल किया कि उन लोगों को समस्या क्या है? वे लोग कौन होते हैं यह बताने वाले कि उसे अपना बुर्का उतार देना चाहिए ! बाद में मुस्कान को कॉलेज के दो कर्मचारी अपने संरक्षण में इमारत में ले गए।'
सवाल अब बुर्के या हिजाब के पहनने या नहीं पहनने का ही नहीं बल्कि यह भी बन गया है कि क्या एक विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध उत्तेजक भीड़ ही यह तय करने वाली है कि किसे क्या पहनना या खाना होगा? उस स्थिति में देश के स्थापित संवैधानिक संस्थानों और अदालतों की भूमिका क्या रहने वाली है? मांड्या की घटना का दूसरा पहलू यह है कि 'जयश्री राम' का उद्घोष करते युवाओं के उत्तेजक समूह से घिरी छात्रा 'अल्लाहु अकबर' के स्थान पर अगर 'हिंदुस्तान ज़िंदाबाद' या 'भारत माता की जय' का नारा लगा देती तो फिर क्या होता? वे हिंदुत्ववादी तत्व, जो बुर्क़े को लेकर मुस्कान के पीछे पड़े थे, शायद बौखला जाते उन्हें सूझ ही नहीं पड़ती कि अब आगे क्या करना चाहिए ! उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कहा जाए तो हिंदूवादी ताक़तों द्वारा गोदी मीडिया की मदद से घटना को जिस तरह साम्प्रदायिक रंग में रंगा जा रहा है वह प्रयोग असफल हो जाता।
दूसरी ओर, वे तमाम कट्टरपंथी मुसलिम महिला-पुरुष, जो मुस्कान को अपनी आगे की लड़ाई का प्रतीक बनाकर शाहबानो के फ़ैसले के समय के विरोध प्रदर्शनों को जगह-जगह पुनर्जीवित कर रहे हैं, उनके पैर भी अपने घरों में ही ठिठक जाते। पर वैसा कुछ भी नहीं हुआ।अपनी पीठ पीछे जय श्रीराम के नारों के साथ चीखते समूह से ख़ौफ़ खाई हुई बालिका ने सुरक्षा कवच के रूप में उसका स्मरण कर लिया जिसे वह अपना ईश्वर मानती है और दोनों ही तरफ़ की साम्प्रदायिक ताक़तों को उनके मनमाफिक हथियार मिल गए।
केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी को भी ट्वीट करने का मौका मिल गया कि :' मुस्कान को हिज़ाबी हुड़दंग का चेहरा बनाने वाले, हिंदुस्तानी मुस्कानों के (को !) तालीम, तरक़्क़ी की तालिबानी तबाही का मोहरा बनाते जा रहे हैं, ख़ुदा ख़ैर करे।' नकवी से पूछा जा सकता है कि उन युवाओं को किस 'तालिबानी' तबाही का मोहरा बनाया जा रहा है जो हिंदुस्तानी मुस्कानों का भगवा शाल-दुपट्टों और जयश्री राम के नारों के साथ पीछा करते हैं और राष्ट्रीय तिरंगे को नीचे उतारकर भगवा झंडा आकाश में लहराने का दुस्साहस दिखाते हैं? (कर्नाटक के एक मंत्री ने पिछले दिनों कहा था कि भविष्य में किसी दिन भगवा राष्ट्रीय ध्वज बन सकता है और तब उसे लाल क़िले से भी फहराया जा सकेगा )
असली मुद्दा हिजाब, बुर्का या पर्दा नहीं बल्कि इन पहरावों को हथियार बनाकर देश में धार्मिक-साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण और तनाव उत्पन्न करना है।जो मुसलिम छात्राएँ हिजाब या बुर्का नहीं पहनतीं उनकी तरक़्क़ी के लिए नकवी साहब के विभाग के पास कोई अलग से बजट नहीं होगा। यही स्थिति दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के बच्चों और महिलाओं की पढ़ाई को लेकर भी है।सरकारों से उनके कामों को लेकर सवाल करने से रोकने का अधिनायकवादी तरीका यही है कि शोषित समाजों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाए।शिक्षण संस्थाओं में सभी बच्चों को एक जैसी पोशाकों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के पीछे एक इरादा यह दिखाना भी हो सकता है कि सभी की पारिवारिक सम्पन्नता एक जैसी है और सभी के पेट समान रूप से भरे हुए हैं।
अदालती फ़ैसला अगर इसी बात पर होना है कि शिक्षण संस्थाओं में छात्र-छात्राओं को ऐसे परिधानों में प्रवेश की अनुमति दी जाए या नहीं जिनसे उनकी धार्मिक पहचान उजागर होती है तो फिर उस फ़ैसले में संविधान की शपथ लेकर उच्च पदों पर आसीन होने वाले व्यक्तियों के पहरावों और उनके सार्वजनिक आचरण को भी शामिल किया जाना चाहिए ! मुसलिम छात्राओं के माँ-बाप भी पूछ रहे हैं कि जब हिंदू छात्राएँ सिंदूर लगाती हैं, ईसाई छात्राएं क्रास पहनतीं हैं तो हमारी बच्चियों के हिजाब में क्या ग़लत है? इसका कौन जवाब देगा? मुख़्तार अब्बास नकवी या अदालतें?