क्या राजनीतिक हैसियत में यूपी की मायावती बनने की राह पर हैं उद्धव ठाकरे!

उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के सीएम तो बन गए लेकिन तीन साल से कम समय में शिवसेना का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। यूं कहें कि ठाकरे परिवार महाराष्ट्र की राजनीति में यूपी की मायावती की तरह अस्ताचल की ओर अग्रसर है।

Update: 2022-07-08 10:51 GMT

क्या राजनीतिक हैसियत में यूपी की मायावती बनने की राह पर हैं उद्धव ठाकरे!

उद्धव ठाकरे की बदली हैसियत पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण 

नई दिल्ली। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 के बाद उद्धव ठाकरे ( Uddhav Thackeray ) पर खुद के परिवार का सीएम बनाने का भूत सवार हुआ था। जनादेश भाजपा का सीएम बनाने के पक्ष में आने के बावजूद भी शिवसेना ( Shiv Sena ) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने इस बात की परवाह नहीं की और धर्मनिरपेक्ष एमवीए की सरकार बनाई। शिवसेना के लिए यह एक ऐसा सियासी सौदा था, जिसका खुद बालासाहेब विरोध करते थे। यानि शिवसेना के हिंदुत्वादी सिद्धांतों के खिलाफ उद्धव ने सीएम बनने का फैसला लिया था।

साल 2019 में उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र ( Maharashtra Politics ) के सीएम तो बन गए लेकिन तीन साल से कम समय में शिवसेना का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। या यूं कहें कि ठाकरे परिवार राजनीति में अस्ताचल की ओर है। चिंता की बात तो यह है कि उद्धव ठाकरे ( Uddhav Thackeray ) के हाथ से सीएम की कुर्सी भी चली गई। या यूं कहिए कि उनसे छीन ली गई और वो देखते रह गए।

पिछले 15 दिनों से भी कम समय में ठाकरे परिवार और शिवसेना की हैसियत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उसकी तुलना मायावती ( Mayawati ) की बसपा ( BSP ) से होने लगी है। ऐसा इसलिए कि शायद उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी के साथ धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाते समय इस बात को भूल गए थे कि बालासाहेब ठाकरे परिवार के लिए ऐसा करना अकल्पनीय तरीके से भारी साबित होगा।

संभवत: उस समय शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ( Uddhav Thackeray ) इतने बुरे दौर की कल्पना भी नहीं कर पाये होंगे। करते भी कैसे, उन पर 2019 विधानसभा चुनाव भाजपा—शिवसेना गठबंधन को जनता का मत मिलने के बाद भी सीएम बनने का भूत इस कदर हावी था कि वो इसके दुष्प्रभाव का दूर—दूर तक कयास नहीं लगा सके। वो इसी सियासी भ्रम में रह गए कि सीएम बनने के बाद सभी दरबार लगाते रहेंगे और शिवसेना के खिलाफ किसी को बोलने की हिम्मत नहीं होगी। बगावत करने की बात दूर की बात है।

शिवसेना प्रमुख इस बात को भूल गए कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। हुआ भी वही, उनके सबसे करीबी एकनाथ शिंदे को उनकी हिंदू विरोधी नीतियों से इतने नाराज हुए कि उन्हें बालासाहेब के हिंदुत्व की लाज रखने के लिए उनके बेटे उद्धव ठाकरे और पोते आदित्य ठाकरे के खिलाफ की सियासी झंडा बुलंद करना पड़ा। उन्होंने उद्धव और आदित्य के खिलाफ बगावत किया। आज शिवसेना के 55 में से 40 विधायक शिंदे के साथ हैं। थाने के 67 पार्षदों में से 66 पार्षद उनके साथ हैं। एकमात्र कॉर्पोरेटर्स नंदिनी विचारे उद्धव कैंप के साथ बची हैं। वो भी इसलिए कि वह शिवसेना के सांसद राजन विचारे की पत्नी हैं। विगत बुधवार को उद्धव ठाकरे कैंप ने राजन विचारे को लोकसभा में चीफ़ व्हिप बनाया था। थाने के पूर्व मेयर नरेश मास्के भी शिंदे के साथ हो लिए हैं।

सियासी नजरिए से देखा जाए तो 66 कॉर्पोरेटर्स पूर्व कॉर्पोरेटर्स हैं क्योंकि फरवरी में ही ठाणे नगर निगम का कार्यकाल ख़त्म हो गया था और मॉनसून के बाद चुनाव होना है। यानि थाने की घटना को राजनीतिक लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता। मुंबई के बाद ठाणे को शिवसेना का गढ़ माना जाता है। शिंदे ने ठाणे की पूरी यूनिट को अपने पाले में कर लिया। इससे पता चलता है कि शिंदे न केवल विधायकों को अपने खेमे में रख सकते हैं बल्कि नगर निकाय के प्रतिनिधि भी उन्हीं के साथ हैं।

इसी तरह शिवसेना के 18 सांसदों में से 12 सांसद शिंदे के साथ हैं। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के कई प्रमुख नगर निकायों जैसे ठाणे, पालघर, कल्याण डोम्बिवली और भिवंडी सहित ग्रामीण क्षेत्रों से शिवसेना से जुड़े नेता भी शिंदे के साथ चलने के लिए तैयार बैठे हैं। हालात, यहां तक पहुंच गया है कि राजनीतिक पंडित अब यह सोचने लगे हैं कि दहाड़ मारने वाले उद्धव के हालात तो मायावती से भी दयनीय हो गए हैं। अहम सवाल तो यह है कि शिवसैनिक किसके साथ हैं। एकनाथ शिंदे या उद्धव ठाकरे के साथ। ऐसा इसलिए कि लोकसभा में शिवसेना के 18 सांसद हैं। दो तिहाई सांसद एकनाथ के साथ हैं।

यानि अब उद्धव खेमे का वह दावा कमज़ोर पड़ रहा है कि पार्टी के लोग शिंदे के साथ नहीं हैं। सूत्रों का कहना है कि नवी मुंबई के 25 कॉर्पोरेटर्स भी शिंदे कैंप में शामिल हो सकते हैं। उद्धव खेमे को लगता है कि महाराष्ट्र के जिन ग्रामीण इलाक़ों के विधायक शिंदे कैंप में गए हैं, उनका असर उन इलाक़ों के पार्टी संगठन पर भी पड़ रहा है।

शिवसेना की फूट का असर उसके सांसदों तक पहुंच गया है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भी मतभेद उभरने लगा है। पालघर से शिवसेना के लोकसभा सांसद राजेंद्र गवित ने कहा है कि पार्टी को विपक्ष के राष्ट्रपति उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को वोट करने के फ़ैसले पर फिर से विचार करना चाहिए। उन्होंने एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मूर्मु की वकालत की है।

बुधवार को अमरावती से शिवसेना के पूर्व सांसद आनंदराव अद्सुल ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया था। ऐसी अटकलें हैं कि वह भी शिंदे खेमे में जा सकते हैं। शिरूर से शिवसेना के पूर्व सांसद शिवाजीराव अधालराव पाटिल ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनने पर बधाई दी थी और इसके लिए उद्धव ठाकरे ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया था। कुल मिलाकर शिवसेना में जारी उठापटक से साफ है कि उद्धव ठाकरे यूपी की मायावती ( Mayawati ) की राह पर हैं, जिसपर कुछ और आगे बढ़े तो फिर राजनीति में कमबैक का उन्हें मौका शायद न मिले।

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