Rajya Sabha Election-2022: क्या संसद में मुस्लिम चेहरे से दूर हो रही है बीजेपी? जानिए क्या कहते हैं सियासी आंकड़े?
Rajya Sabha Election-2022: वाराणसी की कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे को जैसे ही अनुमति दी कि ऑल इंडिया मजलिस-ए—इत्तेहाद मुस्लिमीन (AIMIM) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी का बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि मुस्लिम देश की हुकूमत नहीं बदल सकते।
सौमित्र रॉय की रिपोर्ट
Rajya Sabha Election-2022: वाराणसी की कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे को जैसे ही अनुमति दी कि ऑल इंडिया मजलिस-ए—इत्तेहाद मुस्लिमीन (AIMIM) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी का बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि मुस्लिम देश की हुकूमत नहीं बदल सकते। भारत में न तो कभी मुस्लिम वोट बैंक रहा और न कभी रहेगा। मुस्लिमों को केवल गुमराह किया गया है।
ओवैसी के इस बयान के एक पखवाड़े बाद बीजेपी ने राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव के लि 22 उम्मीदवारों की जो लिस्ट जारी की, उसमें एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं है। संसद के निचले सदन, यानी लोकसभा में एक भी मुस्लिम चेहरा बीजेपी का नामलेवा नहीं है। केवल राज्यसभा में ही मुख्तार अब्बास नकवी, एमजे अकबर और सईद जफर इस्लाम के रूप में बीजेपी के तीन सांसद बचे थे, जिनके नाम सत्ताधारी पार्टी की सूची में नहीं है। नकवी केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री भी हैं। अगर दोनों में से किसी भी एक सदन के सदस्य नहीं बने तो कुर्सी चली जाएगी।
नकवी की कुर्सी का क्या होगा?
एक खबर यह आ रही है कि नकवी को उत्तरप्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा जा सकता है, जो समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद आजम खान ने खाली की है। नकवी का कार्यकाल 7 जुलाई को खत्म हो रहा है और रामपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव 23 जून को है। अगर नकवी को बीजेपी की ओर से टिकट नहीं मिली तो फिर राष्ट्रपति के माध्यम से वे ऊपर सदन में आ सकते हैं। राष्ट्रपति को राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार है और फिलहाल उनके विवेकाधिकार की 7 सीटें अभी खाली हैं। नकवी के पास 7 जुलाई के बाद संसद में दोबारा लौटने के लिए 6 महीने रहेंगे। वे अगले दरवाजे से संसद आएंगे या पिछले दरवाजे से, यह बीजेपी आलाकमान को तय करना है।
क्या फिर इतिहास रचा जाएगा?
अगर बीजेपी की ओर से नकवी को चुनाव लड़ने की टिकट नहीं दी जाती है और न ही उन्हें राष्ट्रपति की 'दयादृष्टि' का लाभ मिलता है तो यह भी पहली बार ही होगा, जब संसद में सत्ताधारी पक्ष की कुर्सी पर बैठने वाला एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी पिछले 8 साल से लगातार इतिहास रखती आ रही है। केवल बीजेपी ही क्यों, एनडीए गठबंधन में ही लोक जनशक्ति पार्टी के महबूब अली कैसर को छोड़कर दूसरा कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 6 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था। सभी हार गए।
कैसे दूर होगा मुसलमानों का पिछड़ापन?
भारत में 20 करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं, लेकिन लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 4% है। बीजेपी ने 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उत्तरप्रदेश से एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। गुजरात में तो 2007 से किसी भी मुसलमान को बीजेपी की ओर से चुनाव लड़ने का टिकट नहीं मिल सका है। 30 नवंबर 2006 को संसद में पेश की गई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, देश के प्रशासनिक ढांचे, यानी आईएएस और आईपीएस कैडर में मुस्लिमों की नुमाइंदगी 3 और 4% है। संसद में भी भारत की जनसंख्या में 14% का हिस्सा रखने वाले मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 4% पर आ गया है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि सत्ता में भागीदारी के बिना मुसलमानों का वह पिछड़ापन कैसे दूर होगा, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की 403 पेज की रिपोर्ट में हुआ है? देश की कामकाजी आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत गिरकर 33% पर आ गया है, जो कि राष्ट्रीय औसत 40% से भी कम है।
क्यों भाग रही है बीजेपी मुसलमानों से?
आठवीं लोकसभा में जब बीजेपी के केवल दो सांसद थे, जब संसद के निचले सदन में 46 मुस्लिम सांसद चुनकर आए थे। लेकिन 2014 में स्थिति बदल गई। बीजेपी ने 282 सांसदों के साथ चुनाव जीता। मुस्लिम सांसदों की संख्या घटकर 22 रह गई। लोकसभा के कुल 545 सांसदों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 14% जनसंख्या के आधार पर 77 होना चाहिए, लेकिन लोकसभा कभी भी इस आंकड़े को छू नहीं पाई।
तो क्या असदुद्दीन ओवैसी सही कह रहे हैं कि मुस्लिम कभी वोट बैंक नहीं रहे? उनका केवल इस्तेमाल किया गया? जिस तरह से बीजेपी खुद को प्रखर हिंदुत्ववादी पार्टी के रूप में स्थापित कर रही है, मुसलमानों से उसकी दूरी उतनी ही तेजी से बढ़ भी रही है। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के द्वारा खुले मंच से अल्पसंख्यक विरोधी नैरेटिव इसका प्रमाण है। हालांकि, बीजेपी और आरएसएस के द्वारा विपक्ष पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाए जाने से गैर भाजपाई दलों ने भी तेजी से मुसलमानों से किनारा करना शुरू कर दिया है। इससे भारत की 14% आबादी के हाशिए पर चले जाने का खतरा पैदा हो गया है।
जब हम इस भयावह सच को देश के लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हैं, तभी बगल से एक आवाज भी उठती है- हिंदू राष्ट्र की। तब संविधान की प्रस्तावना में निहित समानता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द धुंधले नजर आने लगते हैं। एक राष्ट्र के रूप में भारत की बिगड़ती तस्वीर का सबसे भयावह सच तो यही है।