Russia Ukraine war : यूक्रेन की 'आपदा' में भी 'अवसर' गँवा दिया विश्वगुरु ने!
Russia Ukraine war : जिन तारीख़ों में छात्र अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन तारीख़ों (मतदान के चरणों) में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता यूपी में सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे...
वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी
Russia Ukraine war: 'विश्वगुरु' भारत को अगर यह गलतफहमी हो गई थी कि ह्यूस्टन (टेक्सास, अमेरिका) की रैली में 'भक्तों' से 'अब की बार ट्रम्प सरकार' का नारा लगवा देने भर से रिपब्लिकन मित्र डॉनल्ड ट्रम्प की अमेरिका में फिर से सरकार बन जाएगी ; रूस और यूक्रेन दोनों से शांति की अपील कर देने भर से ही तानाशाह मित्र पुतिन अपनी सेनाएँ वापस बुला लेंगे ; और उसके एक इशारे पर पोलैंड, रोमानिया ,स्लोवाकिया और मोल्डोवा की सरकारें और वहाँ के नागरिक कीव आदि युद्धग्रस्त क्षेत्रों से अपनी जानें बचाकर पहुँचे हमारे हज़ारों छात्रों को आँखों में काजल की तरह रचा लेंगे तो वह अब पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।
यूक्रेन के रेल्वे स्टेशनों, सड़कों और पोलैंड की सीमाओं पर हमारे छात्रों को जिस तरह का व्यवहार झेलना पड़ रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि सरकार में बैठे ज़िम्मेदार लोगों ने अपने स्व-आरोपित आत्मविश्वास के चलते हज़ारों बच्चों को कितनी गम्भीर त्रासदी में धकेल दिया है ।इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यूक्रेन में अध्ययनरत दो छात्रों (एक कर्नाटक से और दूसरा पंजाब से) द्वारा रूसी सैन्य कार्रवाई में जानें गँवा देने के समाचार हैं।
सरकारी दावों के विपरीत यूक्रेन से बाहर निकलने के लिए संघर्षरत सभी सैकड़ों या हज़ारों बच्चों की कुशल-क्षेम के ईमानदार समाचार प्राप्त होना अभी भी बाक़ी हैं। हज़ारों बच्चे अभी भी वहाँ फँसे हुए बताए जाते हैं और उन्हें ज्ञान दिया जा रहा है कि युद्ध क्षेत्र के बंकरों में संकट का सामूहिक रूप से सामना कैसे करना चाहिए ! भारतीय छात्र-छात्राओं द्वारा युद्धग्रस्त यूक्रेन और उसकी पश्चिमी सीमाओं से लगे पड़ौसी देशों में भुगती गईं/जा रहीं यातनाओं को ठीक से समझने के लिए इस घटनाक्रम को भी जानना ज़रूरी है।
काबुल से अपने सभी नागरिकों और समर्थकों को वक्त रहते सुरक्षित निकाल पाने की कोशिशों में दूध से जले राष्ट्रपति बाइडन ने दस फ़रवरी (तारीख़ ध्यान में रखें )को ही यूक्रेन में रह रहे सभी अमरीकियों के लिए चेतावनी जारी कर दी थी कि वे रूसी आक्रमण की आशंका वाले देश को तुरंत ही छोड़ दें। उन्होंने चेतावनी में यह भी कहा कि रूसी हमले की स्थिति में उनका प्रशासन नागरिकों को बाहर नहीं निकाल पाएगा।अमेरिका ही नहीं, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया ,इटली, इज़राइल, जापान सहित कोई दर्जन भर देशों ने भी अपने नागरिकों, राजनयिक स्टाफ़ और उनके परिवारजनों को यूक्रेन तुरंत ही ख़ाली करने को कह दिया था। सिर्फ़ हमारी ही दिल्ली स्थित सरकार और कीव स्थित भारतीय दूतावास बैठे रहे।
भारतीय नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए जवाबदेह हमारे दूतावास ने क्या किया? उसने पंद्रह फ़रवरी (तारीख़ पर ध्यान दें ) यानी बाइडन की अपने नागरिकों को दी गई चेतावनी के पाँच दिन बाद भारतीय छात्रों को 'सलाह' दी कि :' मौजूदा अनिश्चित स्थिति को देखते हुए ,भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र जिनका कि वहाँ रहना ज़रूरी नहीं है, यूक्रेन को अस्थाई तौर पर छोड़ने पर विचार कर सकते हैं।' वहाँ निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिकों को यह सलाह भी दी गई कि यूक्रेन के भीतर भी उन्हें ग़ैर-ज़रूरी यात्राएँ नहीं करना चाहिए। उक्त सलाहें भी इन आशंकाओं के बीच जारी कीं गईं कि रूसी हमला किसी भी समय हो सकता है।
भारतीय दूतावास द्वारा 'सलाहपत्र' जारी किए जाने के वक्त तक लगभग सभी देशों की विमान सेवाओं ने यूक्रेन से अपनी उड़ानें बंद कर दीं थीं।जो एक-दो बचीं भी थीं उनमें भी सीटें नहीं मिल रहीं थीं और किराए दो गुना से ज़्यादा हो गए थे। एक छात्र ने तब टिप्पणी की थी कि दूतावास ने सूचना इतने विलम्ब से जारी की है कि वे यूक्रेन छोड़ ही नहीं सकते ।रूसी सेनाओं की बमबारी के बीच छात्रों से जो कहा जा रहा था उसका अर्थ यह था कि वे हज़ार-पंद्रह सौ किलो मीटर की यात्रा किसी भी साधन से पूरी करके पड़ौसी देशों में पहुँचें।
यूक्रेन के घटनाक्रम पर विचार करते समय स्मरण किया जा सकता है कि जिन तारीख़ों में छात्र अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन तारीख़ों (मतदान के चरणों) में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता यूपी में सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यूक्रेन पर जब 24 फ़रवरी को तीन तरफ़ से आक्रमण हो ही गया तब केंद्र सरकार पूरी तरह से हरकत में आई पर तब तक देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और नागरिकों के आत्म-विश्वास को जो चोट पहुँचना थी, पहुँच चुकी थी। भारतीय छात्रों के दर्द को सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म पर शेयर की जा रही व्यथाओं में पढ़ा जा सकता है।
यूक्रेन से अपने नागरिकों को समस्त संसाधनों का उपयोग करके सुरक्षित तरीक़े से समय रहते निकाल लेने में उसी तरह की लापरवाही बरती गई जैसी कि तालिबानी हमले के समय काबुल से या उसके भी पहले कोरोना के पहले विस्फोट के तुरंत बाद वुहान (चीन) से भारतीयों को निकालने के दौरान देखी गई थी।वुहान में रहने वाले भारतीयों द्वारा अपने अपार्टमेंट्स से मदद के लिए जारी की गई वीडियो अपीलों और यूक्रेन के छात्रों के वीडियो सम्बोधनों में एक जैसी पीड़ाएँ तलाशी जा सकतीं हैं। याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1990 में वी पी सिंह की राजनीतिक रूप से कमजोर और आर्थिक तौर पर लगभग दीवालिया सरकार ने भी किस तरह से युद्धरत देशों कुवैत और इराक़ से एक लाख सत्तर हज़ार भारतीयों को सफलतापूर्वक बाहर निकाल लिया था।
जिस समय हमारे हज़ारों बच्चे यूक्रेन की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए घरों को लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं , हमारी आँखों के सामने उन लाखों प्रवासी मज़दूरों ,नागरिकों और बच्चों के चेहरे तैर रहे हैं जिन्होंने बिना किसी तैयारी और पूर्व सूचना के थोपे गए लॉक डाउन में सड़कों पर भूखे-प्यासे सैंकड़ों किलो मीटर पैदल यात्राएँ कीं थीं।
पंचवटी', 'यशोधरा' और 'साकेत' जैसी अद्वितीय रचनाओं के शिल्पकार और 'भारत भारती' जैसी प्रसिद्ध काव्यकृति के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त ने वर्ष 1912-13 में जो सवाल किया था वह आज भी जस का तस क़ायम है :' हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी!' अंग्रेज़ी अख़बार 'द टेलिग्राफ़' ने यूक्रेन के कारण भारत पर आई मुसीबत से सम्बंधित एक खबर का शीर्षक यूँ दिया है ;' आपदा में अवसर उलटा पड़ गया।'
श्रवण गर्ग की यह टिप्पणी पहले उनके एफबी वॉल पर प्रकाशित