हत्यारोपी सुशील कुमार के साथ सेल्फी से उजागर होता दिल्ली पुलिस का दोहरा चरित्र
दिल्ली पुलिस की सोच तो उसी दिन से उजागर होने लगी थी, जिस दिन से जेएनयू में घुसकर कन्हैया कुमार और उमर खालिद को देशद्रोह के झूठे आरोप गढ़कर बंदी बनाया गया था....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। जब कोई अपने कर्तव्य से भटक जाता है, तब एक हंसी के पात्र से अधिक कुछ नहीं रहता। दिल्ली पुलिस, कभी देश का सबसे अच्छा पुलिस बल रहा होगा, पर अब केंद्र सरकार के अलिखित आदेशों को बजाते-बजाते और केवल आकाओं को खुश करते करते यह एक हँसी का पात्र बन गयी है। दो-तीन दिनों पहले हरेक समाचार चैनल पर दिल्ली पुलिस के जवान बड़े खुश होकर हत्यारोपी पूर्व पहलवान सुशील कुमार के साथ सेल्फी लेते हुए और फोटो खिंचाते नजर आ रहे थे।
सुशील कुमार भी खासे खुश नजर आ रहे थे, और पुलिस वालों की खुशी तो किसी भी तरह से नहीं छुप रही थी। इस न्यूज़ क्लिप को गौर से फिर देखिये, सुशील कुमार पर ह्त्या के आरोप के बाद भी कोई हथकड़ी नहीं थी और न ही उन्हें किसी ने पकड़ रखा था। जाहिर है, दिल्ली पुलिस के उन जवानों के लिए हत्या के आरोपी सुशील कुमार आदर्श थे।
दूसरी तरफ अभी बहुत अरसा नहीं बीता है, जब दिल्ली पुलिस ने मानवाधिकार कार्यकर्ता उमर खालिद और खालिद सैफी को न्यायालय में पेश करने के लिए दोनों हाथों को पीठ की तरफ हथकड़ियों से जकड़कर लाने की इजाजत बारबार माँगी थी, हालां कि न्यायालय ने इसकी इजाजत नहीं दी थी और कहा था कि वे दोनों कोई गैंगस्टर नहीं हैं। दिल्ली पुलिस ने इन्हें अत्यधिक खतरनाक कैदी बताया था। इससे जाहिर है कि दिल्ली पुलिस अपनी तरफ से कोई भी काम नहीं करती है, बल्कि केंद्र के आकाओं का केवल हुक्म बजाती है, और यह इतने बड़े पैमाने पर किया गया है कि दिल्ली पुलिस की सोच भी आकाओं वाली ही हो गयी है।
केंद्र में बैठे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और दूसरे मंत्रियों को भी मानवाधिकार कार्यकर्ता ही सबसे खतरनाक नजर आते है, और दिल्ली पुलिस भी बड़े गर्व से इन कार्यकर्ताओं को आतंकवादी और गैंगस्टर बताने पर तुली रहती है। यह सब करते-करते तो देशद्रोही और आंतकवाद की परिभाषा ही बदल गयी है। जामिया और जेएनयू में शान्तिपूर्ण आन्दोलनों को कुचलने के लिए दिल्ली पुलिस के बहादुर जवान लाइब्रेरी में घुसकर आंसू गैस के गोले दागते हैं और लड़कियों पर लाठियों बरसाते हैं।
दिल्ली पुलिस की सोच तो उसी दिन से उजागर होने लगी थी, जिस दिन से जेएनयू में घुसकर कन्हैया कुमार और उमर खालिद को देशद्रोह के झूठे आरोप गढ़कर बंदी बनाया गया था। दुखद यह है कि दिल्ली पुलिस के मुखिया बदलते हैं, पर सोच नहीं बदलती। दिल्ली पुलिस की गाड़ियों पर लिखा होता है – शांति, सेवा और न्याय – पर ये सब आदर्श केवल केंद्र में बैठे आकाओं के लिए हैं, सामान्य जनता के लिए नहीं। दिल्ली पुलिस ने हजारों पृष्ठों की बिना सबूत वाली दिल्ली दंगों की जो याचिका दायर की है, वही इनके काम का आकलन के लिए हे काफी है। इतना तो तय है कि यदि दिल्ली दंगों की एक तथ्यात्मक और सबूतों वाली रिपोर्ट बनाई जाए, तो दिल्ली पुलिस स्वयं ही दंगों के लिए कटघरे में नजर आयेगी।
उद्धव ठाकरे ने जामिया की घटना के सन्दर्भ में ठीक ही कहा था कि इससे जलियांवाला बाग़ घटना की याद ताजा हो गयी। वर्ष 1919 का 13 अप्रैल का दिन था, जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों भारतीयों पर अंग्रेज हुक्मरान के हुक्म पर भारतीय जवानों ने अपने ही लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ये सभी जलियांवाला बाग में रौलट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे।
शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर आज तक गोलियां बरस रहीं हैं और आंसू गैस के गोले भी दागे जा रहे हैं। तब से अब तक कुछ नहीं बदला है, उस समय भी भारतीय पुलिस के जवान जो अंग्रेजों के लिए काम कर रहे थे, भारतीयों पर गोलियां चला रहे थे और आज भी अपने आकाओं के इशारे पर पुलिस के जवान निहत्थे देशवासियों पर ही गोलियां चला रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि उस समय आदेश जनरल डायर, जो अंग्रेज थे, का था और अब आदेश उन भारतीय हुक्मरानों का है जो लगातार जनता की समस्याओं को सुलझाने का दावा करते रहते हैं।
इस सरकार और पुलिस के निशाने पर विश्विद्यालय शुरू से ही रहे है। जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी से शुरू होता हुआ ये सिलसिला लगभग हरेक यूनिवर्सिटी तक पहुँच गया है। दो वर्ष पहले नई दिल्ली की सबसे मुख्य सडकों में से एक सड़क जो आईटीओ से कनाट प्लेस तक जाती है वह दिव्यान्गों के प्रदर्शन के कारण कई दिनों से बंद थी, पुलिस सड़क बंद कर रही थी और दूसरी तरफ जब जेएनयू या दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र शांत प्रदर्शन करते हैं तब उनपर लाठियां बरसाई जातीं हैं और लड़कियों से पुलिस वाले बदसलूकी करते हैं तो दूसरी तरफ जामिया में लाइब्रेरी में पढ़ रहे बच्चों पर लाठियां बरसाई जातीं हैं और आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं। छात्रों के साथ पुलिस का वर्ताव इस तरह से हो गया हो मानो वे किसी आतंकवादी से निपट रहीं हों।
कुछ समय पहले जब पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों ने पुलिस को सबक सिखाया था तब पुलिसवाले भी सडकों पर आ गए थे, पूरे दिन धरने पर बैठे रहे और फिर जब यह निश्चित हो गया कि उन्हें जनता का साथ नहीं मिलेगा तब आनन्-फानन में वह धरना ख़त्म हो गया। इतना तो तय है कि एक दिन क्या, अगर पुलिस महीनों प्रदर्शन करे तब भी सामान्य जनता का साथ उसे नहीं मिलेगा। अंग्रेजों के समय भी पुलिस लगातार अपराधियों को संरक्षण देने का काम और सामान्य जनता को कुचलने का काम नहीं करती थी, पर अब तो लगता है कि पुलिस का यही काम ही है।
हमारे हुक्मरान भी पुलिस का यही काम समझते है और ऐसी हरेक हरकत पर शाबाशी देते हैं और पुरस्कार भी। पूरे देश की यही हालत हो गयी है, कश्मीर के बारे में तो बहुत कुछ लिखा गया है, पूर्वोत्तर राज्यों में पुलिस कभी भी और किसी को अपना निशाना बनाने के लिए स्वतंत्र हैं, तमिलनाडु में वेदांता समूह के स्टरलाईट कॉपर के विरुद्ध प्रदर्शन करते लोगों को गोलियों से भून दिया जाता है।
तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में निहत्थे और निर्दोष लोगों का एनकाउंटर पुलिस विभाग में प्रमोशन की गारंटी है। पुलिस वाले अजीब सी और अविश्वसनीय कहानियां भी गढ़ते है, और अब तो भाड़े की जनता इन्हीं कहानियों के आधार पर उनपर फूल भी बरसाती है और हमारे सांसद उन्हें राष्ट्रीय नायक करार देते हैं।
इस सरकार के आने के बाद से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुडी सभी घटनाएँ बदली जा रही हैं, पर जलियांवाला बाग की घटना को बदलना मुश्किल है क्योंकि देश की पुलिस इसे भूलने नहीं देगी। इस घटना में जितने लोग मारे गए, उससे अधिक तो एक वर्ष में पुलिस एनकाउंटर में निर्दोषों को मार गिराती है। अब हत्या से अधिक जघन्य अपराध मानवाधिकार की आवाज बुलंद करना हो गया है।