Mangesh Dabral Biography | मंगलेश डबराल का जीवन परिचय
Mangesh Dabral Biography | अब आगे जितनी कठोर सर्दियाँ आयें, वे नहीं होंगी पिछली सर्दियों जितनी क्रूर और भयावह... पिछली सर्दियों में हमने खो दिया था मंगलेश डबराल को, मेरे लिए जो थे मंगलेशजी |
वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक की टिप्पणी
Mangesh Dabral Biography | अब आगे जितनी कठोर सर्दियाँ आयें, वे नहीं होंगी पिछली सर्दियों जितनी क्रूर और भयावह... पिछली सर्दियों में हमने खो दिया था मंगलेश डबराल को, मेरे लिए जो थे मंगलेशजी | और फ़क़त मंगलेशजी से ज़्यादा कितना कुछ...! पिछले साल जब सर्दियाँ शुरू हुईं थीं तब दीवाली के ऐन पहले तक हर रात उनके कमरे में बैठक जमती रही,मित्र रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ... हर मुलाक़ात कोरोना से सहमी बातचीत से शुरू होती फिर बात से बात का सिलसिला फूट बहता... कई बार कुछ लोगों और राजनीति पर काफ़ी बहस हो जाती पर उनकी गरिमा का ख़याल कभी छूटा नहीं... हम लोग चलने को होते तो वे आनंदित होकर कहते यार मज़ा आ गया, बहसें तो होनी चाहिए... वे अक्सर विष्णुजी (खरे) की याद करते कि उनके जाने से बहस का लुत्फ़ और उत्तेजना जाती रही | ... पंद्रह नवम्बर के बाद तेज सर्दी - खांसी से ग्रस्त, कोरोना से आशंकित मैंने बैठक में जाना बंद कर दिया तो दो दिन बाद फ़ोन कर पूछा क्यों नहीं आ रहे , बताया तो कहा चिंता की बात नहीं है पर जांच करा लो... सर्दियाँ ज़ालिम होनी शुरू हो गयीं थीं... मैं बच गया था पर पत्नी रंजना, बेटी रागिनी और दामाद अशोक संक्रमित निकले | 23 को बडोलाजी नहीं रहे... अगले दिन सवेरे ही मंगलेशजी पूछ रहे थे कि बडोलाजी के बारे में पता चला!
यह मेरी उनसे आख़री बातचीत थी... घर में सब कोरोना के शिकार, मै भी लगभग कगार पर... दूसरे या तीसरे दिन सुबह- सुबह अल्मा ने बताया कि रात में हालत बिगड़ने पर पापा को एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कर दिया... इधर रागिनी, रंजना दोनों एम्स में भर्ती हो गए... चार साल के नाती को छोटी बेटी केतकी के पास भेज दिया... घर भांय -भांय कर रहा था... मैं अशोक के साथ उनके रिश्तेदार की गुड़गांव की होटल में चला गया | अल्मा से बात होती तो यही कहता कि उन्हें एम्स ले जाओ, उनका हर घंटा क़ीमती है... वे एम्स लाये गए, पर देर हो चुकी थी... होटल के बाहर एक सूनी सी सड़क पर दूसरे सिरे तक रोज़ शाम टहलने जाते, वहाँ एक पट्टी पर कुछ देर बैठ लौटते... नौ तारीख़ को पट्टी पर बैठ कर जैसे ही मोबाइल खोला तो फ़ेसबुक पर असद ज़ैदी की पोस्ट दिखी --- manglesh is gone --- दिल- दिमाग़ सन्न और सुन्न ... जिसका डर था वही हुआ.... तैतालीस साल की जख्मी यादें बेतरतीब फड़फड़ा रही थीं, आंसू किसी तरह पलकों पर ठहरे हुए थे... कि फ़ोन की घंटी बजी... कांपती आवाज़ में रागिनी पूछ रही थी, पापा क्या मंगलेश चाचा ख़त्म हो गए!... फिर कहीं दिल्ली से बाहर अभयकुमार दुबे कह रहे थे, मनोहर मैं क्या सुन रहा हूँ.... उनकी बहुत बड़ी दुनिया थी, सब सुनकर हैरान, दुखी, निराश थे |
जनसत्ता सोसाइटी में हमारे घर ऊपर- नीचे हैं, मेरा तीसरे माले और उनका ठीक नीचे दूसरे पर... उनके घर को पार करते हुए नीचे जाना या ऊपर आना हर बार यंत्रणा से गुज़रने जैसा होता है... संयुक्ता भाभी और अल्मा घर आती हैं, रंजना और बच्चे जाते हैं पर मैं नहीं गया...क्यों नहीं गया, मंगलेशजी के कवि- दोस्त नरेंद्र जैन की एक कविता है ' एक दिन '... इसमें वे अनेक दिवंगत मित्रों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वे उनके घर कभी नहीं जाते, ' उनके घरों में जाने के लिए / चाहिए जो जिगर वो मयस्सर कहाँ |'... अभी 21 नवम्बर को हम दोनों बेटे आनंद के पास बैंगलोर आ गए तब गया यह कहने कि नौ को आप सब के पास नहीं होउंगा ... यह बात उस कमरे के पास, जहाँ लम्बे समय से हम बैठते थे, खड़े- खड़े कही, बिना उसकी तरफ़ देखे... मैं उस कमरे में उनको अनुपस्थित नहीं देखना चाहता था... एक अजब वीरानापन सौंप गये हैं, खालीपन भर गए हैं मंगलेशजी!
पर सालोंसाल उन्हीं से दुनिया आबाद, सुंदर और सुखद रही... ख़ूब साथ रहा, तीन अख़बारों में मिलाकर कोई पच्चीस बरस संग काम किया और सालों से पड़ोसी होकर रहे | 1977 की दस दिसम्बर से लेकर 2020 की नौ दिसम्बर तक का साथ | उस दस दिसम्बर को इलाहाबाद के ' अमृत प्रभात' में मैंने काम शुरू किया था और उनके मित्र अपने बहनोई अनुपम मिश्र के पत्र के साथ उनसे मिला था... वे दोनों इंडियन एक्सप्रेस समूह के ' आसपास' साप्ताहिक में साथ काम कर चुके थे | यहाँ एक दूसरे उस्ताद वीरेन डंगवाल मिले| लूकरगंज में दोनों साथ रहते थे | ' अमृत प्रभात' वीरेनजी के लिए भी ' दफ़्तर' था जहाँ वे कभी भी हवा पर सवार अपनी अफरा-तफरी के साथ आ धमकते | गज़ब यह हुआ कि दोनों ने मुझे हाथों हाथ अपना लिया | फिर क्या था अपना कमरा होते हुए भी लूकरगंज स्थायी पता जैसा हो गया.. वैसे अपना एक ठिया और था, टैगोर टाउन में केशवचंद्रजी वर्मा का आत्मीय घर |... मंगलेशजी, वीरेनजी के साथ वहाँ बडोलाजी , नीलाभ अश्क का परिकर था जिसमें दूसरे शहरों के मित्रगण आते- जाते रहते थे... तब लगभग हर महीने एक ख़ुशख़बरी की तरह ज्ञानजी वहाँ आ जाते थे... | वो तो कहिये ' अमृत प्रभात' का माहौल बड़ा प्रेममय था और लोग भले थे... रमेश जोशी हमारे चीफ़ सब हमारे और हमारी साइकिल के दिलदादा थे, पचास के क़रीब, सिंगल काठी के जोशीजी साइकिल पर मूड आने पर एक पांव हैंडिल में लटका लेते थे... हम वहां प्रशिक्षु थे और आमतौर पर नौ बजे तक शिफ़्ट रहती थी... और वीरेनजी मुंह में पान दबाये मंगलेशजी को और मुझे लेने साढ़े सात के क़रीब आ जाते... डेस्क पर आकर कहते अरे चलिए भाई... मेरे पास बनाने को ख़बरें होतीं तो दोनों अगल -बगल बैठकर ख़बरें दनादन बनाते और शिफ़्ट इंचार्ज से कहते इनको ले जाते हैं.. और वीरेनजी की लैम्ब्रेटा पर मंगलेशजी और में साइकिल पर निकल पड़ते |
एक बार मंगलेशजी ने जो लिखने को कहा वह मैंने किसी दूसरे से लिखवा दिया... मंगलेशजी नाराज़, बात बंद कर दी.. दो- तीन तो वीरेनजी का आना साथ ले जाना चलता रहा फिर वीरेनजी का धैर्य टूट गया, कमरे से बाहर आकर मंगलेशजी से बोले, यार मंगलेश ये गणमान्यपना छोड़ दो, मंगलेश . यार वो ( यानि मैं) अभी हरा पत्ता है और तुम उसी पर रौब गांठे हो | मंगलेशजी ने मेरी शिकायत की कि ये कुछ सुनता ही नहीं है | मंगलेशजी के साथ उनकी नोकझोंक अद्भुत और प्रसन्नकारी होती थी... वीरेनजी के माता- पिता जब इलाहाबाद आये तो मंगलेशजी ने न जाने कितनी बार उनसे कहा कि आपका बेटा बहुत अच्छा, बहुत गुणी है... वो मंगलेशजी ही थे कि वीरेनजी 'अमृत प्रभात' में ' शहर में घूमता आईना 'जैसा कॉलम लिख पाये और उनका पहला कविता संग्रह आ पाया, नहीं तो वे तो इतने बेतरतीब थे कि एकदिन सुबह हड़बड़ाते हुए आये और रंजना को बुलाया और झोले से टाइप काग़ज़ निकालकर तीनों में बांट लिये और कहा कि थीसिस है, इसे क्रम से जमाना है चतुर्वेदीजी( रामस्वरूप) को देनी है | ... दोनों में गहन प्रेम और गहरी समझदारी थी.. कुछ साल पहले एक कार्यक्रम में मंगलेशजी और मैं बरेली गए| रात वीरेनजी के यहाँ रुके, कई दिन बाद मिलकर मंगलेशजी विभोर थे, ज्ञानजी, वीरेनजी की तरह वे भी विशुद्ध मित्रजीवी थे... उस रात बीच में जब मैं उठा तो सोते हुए मंगलेशजी के चेहरे की कांति, चैन और प्रसन्नता देखकर दंग रह गया... बिल्कुल बच्चों जैसी... दोस्ताना उन पर जबर्दस्त असर करता था.. नहीं तो वे नींद में खलल की शिकायत करते थे | अभी की बैठकों में तो अक्सर कहते आप लोग चले जायेँगे पर बड़ी देर नींद नहीं आयेगी... संघ, मोदी आदि के साथ लड़ता रहूंगा... फ़ैज़ ने ' दर्द आयेगा दबे पाँव' नज़्म में लिखा है न, ' दर्द आयेगा दबे पाँव लिए सुर्ख़ चिराग़/...मुशतइल होके अभी उठेंगे वहशी साये / रात-भर जिनसे ख़ून ख़राबा होगा '|
मंगलेशजी - वीरेनजी ने एक नयी दुनिया सामने खोल दी | मंगलेशजी तो जो काम हाथ में लेते उसमें लगे रहते, मसलन मुझे बनाने- संवारने का काम... जहाँ झोल दिखता फ़ौरन आगाह करते, हरदम एक मिस्त्री की सतर्क निगाह रखते | इस मिज़ाज और तेवर का सिलसिला दिल्ली तक चला आया और लगा कि ज़िन्दगी भर यही रंग और साथ रहेगा पर वीरेनजी के निधन ने पहला झटका देकर भ्रम तोड़ा, फिर अनुपम के जाने का झटका... पर मंगलेशजी के होने से वह रानाइये ख़याल बहुत बचा हुआ था | ..
मंगलेशजी की याद हरदम उदास नहीं करती, कुछ को याद करके मन आनंदित होता है, मसलन जैसे कि वो हमेशा एक फ़बती हुई बीमारी के साथ रहते थे... हरदम उनके पास आपकी बीमारी का नुस्ख़ा रहता था.. दवा, बीमारी,इलाज की बात उन्हें अजब ढंग से सक्रिय करती | बीमारियों उन्हें होती, कष्ट भी रहता पर वे जैसे उनसे विभूषित रहते... इलाहाबाद के दिनों में एक अंगुली से नाक के पास के हिस्से को ऊपर उठाते हुए सांस खीचते और बताते साइनस परेशान कर रहा है... हथेलियां खुजाते कहते एलर्जी बढ़ गयी है| स्पॉनडिलॉसिस के लिए पट्टा पहन ऐसे सहज दिखते कि शस्त्र सज्जित नज़र आते | रात की बैठक में नौ के आसपास सुरेश सलिलजी का फ़ोन आता पेट पानी या पत्थर हो जाने की शिकायत करते और दवा की गुहार लगाते हुए| मंगलेशजी दवा, परहेज बताते और कभी कभार खीचकर कहते यार मैं कोई डॉक्टर थोड़े ही हूँ... और दर्द, टूटन और थकान का ज़िक्र तो कविता में भी हुआ है और बातों में उनका भी शिकवा आ जाता | एक छवि रोज़ शाम को नापतौल कर पैग बनाने की भी है, एकदम दर्शनीय | नरेंद्र जैन तो एक कविता में शराब पीने का सलीका मंगलेशजी से सीखने की बात कहते हैं , ' शराब के साथ मंगलेश का यह बरताव/ शराब को प्राचीन काल से पी जा रही शराब का दर्जा देता था \ ख़ूबी उसकी यह थी कि उसके सुरूर में / यकसां मिला रहता था मंगलेश की कविता का सुरूर ' | मंगलेशजी तो इस कोटि में अग्रगण्य थे ही उनकी बदौलत गद्य -पद्य -मद्य तीनों के अनेक पारंगतों की निकटता हासिल हुई |
मंगलेशजी बड़े कवि- लेखक के साथ बड़े इनसान भी थे... बड़े और सच्चे.. पहल सम्मान देते समय यह बात विशेष रूप से कही गयी थी | एक ऐसे समय में जब बेसुरापन हर जगह छा रहा है, प्रेम और स्मृति का लोप हो रहा है, मनुष्यता घटती जा रही है मंगलेशजी बेचैन रहे मनुष्यता को बचाने के लिए, वे चाहते थे दुनिया में ऑक्सीजन बची रहे, संवेदना और सुरीलापन बचा रहे , इसलिए उन्होंने लिखा, ' जो कुछ भी जहाँ- जहाँ हर तरफ़ \ शोर की तरह लिखा हुआ \ उसे ही लिखता रहा मैं / संगीत की तरह ' | इलाहाबाद के दिनों में मंगलेशजी सीमाब का ये शेर सुनाते- गुनगुनाते थे:
- मुद्दतों बू- ए- वफ़ा आयेगी बुतख़ानों में
- उदबन बनके जला है दिल- ए - सोज़ां मेरा