Gyanvapi Mosque Varanasi : जिस ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर मचा है बवाल, उसका ये है इतिहास?
Gyanvapi Mosque Varanasi : ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर से बिल्कुल अलग है। कहा जा रहा है कि मस्जिद के अंदर स्थित कुएं में शिवलिंग है। यह तथ्यों पर आधारित नहीं है।
Gyanvapi Mosque Varanasi : पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र स्थित ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) एक बार फिर देश और दुनिया में सुर्खियों में हैं। ऐतिहासिक विवाद को हवा उसी समय मिल गई थी जब एक साल पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने श्री काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण किया था। उस समय उन्होंने कहा था कि काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण, भारत को एक निर्णायक दिशा देगा, एक उज्जवल भविष्य की तरफ ले जाएगा। उसके बाद से मंदिर-मस्जिद को लेकर गतिविधियां तेज हो गई हैं। अब अदालत की ओर से सर्वे का आदेश देने के बाद से यह ज्ञानवापी मस्जिद चर्चा में हैं। आइए, हम आपको बताते हैं क्या है ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास और क्यों छिड़ा है इस मुद्दे पर महासंग्राम।
खास बात यह है कि वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) के निर्माण और पुनर्निर्माण को लेकर कई तरह की धारणाएं प्रचलित हैं, लेकिन स्पष्ट और पुख्ता ऐतिहासिक जानकारी काफी कम है। दावों और किस्सों की भरमार जरूर है। आम तौर पर धारणा यह है कि मुगल शासक औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वा दिया था और वहां मस्जिद बना दी गई थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को देखने-समझने पर मामला इससे कहीं ज्यादा जटिल दिखता है।
ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण का समय
ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतजामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन ने 13 अप्रैल 2021 को बीबीसी को बताया था कि आम तौर पर यही माना जाता है कि मस्जिद और मंदिर दोनों ही अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य बहुत बाद के हैं। लोग ये भी मानते हैं कि औरंगज़ेब ने मंदिर को तुड़वा दिया था क्योंकि वो अकबर द्वारा स्थापित दीन-ए-इलाही को नहीं मानते थे। उनका कहना हे कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है।
ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर से बिल्कुल अलग है। ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआं है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिल्कुल ग़लत है। 2010 में हमने कुएं की सफ़ाई कराई थी, वहां कुछ भी नहीं था।
ऐतिहासिक दस्तावेजों में ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) का पहला जिक्र 1883-84 में मिलता है जब इसे राजस्व दस्तावेजों में जो जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया।सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं कि मस्जिद में उससे पहले की कोई चीज़ नहीं है, जिससे स्पष्ट हो सके कि यह कब बनी है। राजस्व दस्तावेज ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था। अदालत ने इसे मस्जिद के तौर पर स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक्फ की प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फैसले को सही ठहराया। ज्ञानवापी मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है। हालांकि, मस्जिद के 1669 में बनने का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य कहीं उपलब्ध नहीं है जो सैयद मोहम्मद यासीन के दावे की पुष्टि कर सके।
सैयद यासीन के मुताबिक मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। 1937 में कोर्ट के फैसले में भी उर्स करने की इजाजत दी गई है। वो कहते हैं कि ये कब्रें अब भी महफूज हैं लेकिन उर्स नहीं होता। दोनों कब्रें कब की हैं, इसके बारे में उन्हें पता नहीं है।
यासीन के मुताबिक 1937 के एक फैसले के तहत मस्जिद का एरिया एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर तय किया गया था लेकिन 1991 में केवल मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया और अब मस्जिद के हिस्से में उतना ही क्षेत्र है। यह कितना है, इसकी कभी नाप-जोख नहीं की गई है। विवाद हमारे जानने में कभी हुआ ही नहीं। यहां तक कि ऐसे भी मौके आए कि जुमे की नमाज और शिवरात्रि एक ही दिन पड़ी, लेकिन तब भी सब कुछ शांतिपूर्वक रहा।
क्या कहते हैं इतिहासकार
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ज्ञानवापी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) को 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने बनवाया था और इसके लिए उन्होंने यहां पहले से मौजूद विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाया था लेकिन इस मान्यता को तथ्य मानने से कई इतिहासकार इनकार करते हैं, ये दावे साक्ष्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। न तो शर्की सुल्तानों की ओर से कराए गए किसी निर्माण के कोई साक्ष्य मिलते हैं, और न ही उनके दौर में मंदिर तोड़े जाने के।
यहां पर है मंदिर तोड़े जाने के आदेश का जिक्र
मशहूर इतिहासकार डॉक्टर विश्वंभर नाथ पांडेय अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति, मुगल विरासत : औरंगजेब के फरमान के पृष्ठ संख्या 119 और 120 में पट्टाभिसीतारमैया की पुस्तक फ़ेदर्स एंड स्टोन्स के हवाले से विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने संबंधी औरंगजेब के आदेश और उसकी वजह के बारे में जिक्र करते हैं। पांडेय अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुजर रहे थे। सभी हिंदू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए। विश्वनाथ दर्शन कर जब लोग बाहर आए तो पता चला कि कच्छ के राजा की एक रानी गायब हैं। खोज की गई तो मंदिर के नीचे तहखाने में वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पड़ीं। जब औरंगजेब को पंडों की यह काली करतूत पता चली तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और बोला कि जहां मंदिर के गर्भ गृह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हो, वो निस्संदेह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। उसने मंदिर को तुरंत ध्वस्त करने का आदेश जारी कर दिया।
औरंगजेब के आदेश का तत्काल पालन हुआ लेकिन जब यह बात कच्छ की रानी ने सुनी तो उन्होंने उसके पास संदेश भिजवाया कि इसमें मंदिर का क्या दोष है, दोषी तो वहां के पंडे हैं। रानी ने इच्छा प्रकट की कि मंदिर को दोबारा बनवा दिया जाए। औरंगज़ेब के लिए अपने धार्मिक विश्वास के कारण फिर से नया मंदिर बनवाना संभव नहीं था। इसलिए उसने मंदिर की जगह मस्जिद खड़ी करके रानी की इच्छा पूरी की।
मस्जिद निर्माण के नहीं हैं दस्तावेजी प्रमाण
इतिहासकार और प्रोफेसर राजीव द्विवेदी समेत कई अन्य इतिहासकार भी इस घटना की पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि औरंगज़ेब का यह फरमान हिंदू विरोध या फिर हिंदुओं के प्रति किसी नफरत की वजह से नहीं बल्कि उन पंडों के खिलाफ गुस्सा था जिन्होंने कच्छ की रानी के साथ दुर्व्यवहार किया था। प्रोफेसर चतुर्वेदी की मानें तो मंदिर गिराने का आदेश औरंगजेब ने दिया था लेकिन मंदिर को गिराने का काम कछवाहा शासक राजा जय सिंह की देख-रेख में किया गया था।
प्रोफेसर द्विवेदी कहते हैं कि मंदिर टूटने के बाद यदि मस्जिद बनी है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा उस दौर में कई बार हुआ।औरंगज़ेब की उपस्थिति में तो नहीं हुआ है, आदेश भले ही दिया हो लेकिन मस्जिद का निर्माण औरंगजेब के समय में ही हुआ। ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण के बारे में प्रोफेसर चतुर्वेदी कहते हैं कि मस्जिद निर्माण का कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं है। मस्जिद का नाम ज्ञानवापी हो भी नहीं सकता। ऐसा लगता है कि ज्ञानवापी कोई ज्ञान की पाठशाला रही होगी। पाठशाला के साथ मंदिर भी रहा होगा जो प्राचीन गुरुकुल परंपराओं में हमेशा हुआ करता था। उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी तो उसका नाम ज्ञानवापी पड़ गया, ऐसा माना जा सकता है।
यानी मस्जिद ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) अकबर के जमाने में दीन-ए-इलाही के दर्शन के तहत बनाई गई या औरंगजेब के जमाने में इसको लेकर जानकारों में मतभेद है। ऐतिहासिक दस्तावेज से ये बातें प्रमाणित नहीं होतीं।
मंदिरों को तोड़ने के आदेश जारी तो हुए थे
इतिहासकार एलपी शर्मा अपनी पुस्तक "मध्यकालीन भारत" के पृष्ठ संख्या 232 पर लिखते हैं कि 1669 में सभी सूबेदारों और मुसाहिबों को हिंदू मंदिरों और पाठशालाओं को तोड़ देने की आज्ञा दी गई। इसके लिए एक पृथक विभाग भी खोला गया। यह तो संभव नहीं था कि हिंदुओं की सभी पाठशालाएं और मंदिर नष्ट कर दिए जाते। परंतु बनारस का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, पाटन का सोमनाथ मंदिर और प्राय: सभी बड़े मंदिर, खास तौर पर उत्तर भारत के मंदिर इसी समय तोड़े गए।
बहुत पुराना है यह विवाद
1991 से पहले से दायर हैं इसको लेकर याचिकाएं
1991 में वाराणसी की एक निचली अदालत ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को ज्ञानवापी ( Gyanvapi Mosque Varanasi ) परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया था। ये आदेश उन याचिकाओं पर दिए गए थे जो साल 1991 में दायर की गईं और उसी साल संसद ने उपासना स्थल कानून बनाया।18 सितंबर 1991 में बने इस क़ानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। चूंकि, अयोध्या से जुड़ा मुकदमा आजादी के पहले से अदालत में लंबित था। इसलिए अयोध्या मामले को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था।
3 लोगों ने दायर की थी याचिका
1991 में सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय बताते हैं कि तीन लोगों ने ये मुकदमा दाखिल किया था। मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे रामरंग शर्मा थे। ये दोनों लोग अब जीवित नहीं हैं। इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई। इसी सुनवाई के बाद मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंज़ूरी दी गई।
Gyanvapi Mosque Varanasi : बता दें कि एक साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में श्री काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण किया था। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण, भारत को एक निर्णायक दिशा देगा, एक उज्जवल भविष्य की तरफ ले जाएगा। उसके बाद से मंदिर-मस्जिद को लेकर गतिविधियां तेज हो गई हैं।
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