पश्चिम बंगाल चुनाव : बिहार के बाद अब ममता के किले में ओवैसी किस भूमिका में नजर आएंगे?

बिहार विधानसभा चुनाव को ओवैसी की पार्टी ने जिस तरह प्रभावित किया है, उससे यह आकलन शुरू हो गया है कि वे छह महीने में होने जा रहे पश्चिम बंगाल चुनाव को किस तरह प्रभावित करेंगे...

Update: 2020-11-14 06:13 GMT

बिहार में जीते अपने पांच विधायक के साथ असदुद्दीन ओवैसी।

जनज्वार। बिहार विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम ने जिस तरह सीमांचल इलाके में पांच सीटें हासिल कर ली हैं, उससे उनका उत्साह बढ गया है। ओवैसी ने यूपी, बिहार व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पहले भी जड़े जमाने की कोशिश की थी, लेकिन इससे पहले वे ऐसी कामयाबी से दूर रहे थे। लेकिन, इस बार मुसलिम की बड़ी आबादी वाले बिहार के सीमांचल इलाके में असदु्दीन ओवैसी ने सबका ध्यान खींचने वाली सफलता हासिल कर ली। उनके इस हासिल के बाद इस बात का आकलन किया जा रहा है कि अब अगले छह महीने में होने वाले पश्चिम बंगाल चुनाव को वे किस कदर प्रभावित करेंगे।

294 विधानसभा सीट वाले पश्चिम बंगाल में करीब 66 ऐसी सीटें हैं जहां मुसलिम आबादी की बहुलता है और वहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं तो वे किस तरह चुनाव परिणाम को प्रभावित करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा।

पश्चिम बंगाल आइएमएमआइएम के प्रवक्ता व संयोजक असीम वकार ने कहा है कि पार्टी को पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों से फीडबैक मिल रहा है और अब पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के साथ चर्चा के बाद घोषणा की जानी है। उन्होंने कहा कि हम देखेंगे कि ममता बनर्जी हमारे खिलाफ लड़ती हैं या हमारे साथ। साल 2019 में भी उन्होंने हमसे भाजपा को रोकने के लिए साथ देने को कहा था लेकिन हो नहीं सका। संभावना है कि निकट भविष्य में एमआइएम चीफ पश्चिम बंगाल को लेकर अपनी चुनावी रणनीति का ऐलान करेंगे और उन्होंने जिस तरह बिहार के सीमांचल इलाके को टारगेट कर चुनाव लड़ा उसी तरह वे पश्चिम बंगाल के 66 मुसलिम बहुल सीटों को लक्ष्य कर चुनाव लड़ेंगे।

जिस तरह साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को भाजपा ने जोरदार टक्कर दी है, उससे यह अंदाज भी लगाया जा रहा है विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के बीच कांटे की टक्कर होगी। वहीं, इस बात पर भी नजरें होंगी कि तृणमूल कांग्रेस क्या भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस व वाम मोर्चे से गठजोड़ करती है या फिर कांग्रेस व वाम मोर्चा अपना एक अलग मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ते हैं। भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने हालांकि शुरुआती सुझाव दिया है कि पश्चिम बंगाल व असम में भाजपा को ही नंबर वन दुश्मन मान कर वाम दलों को अपनी रणनीति बनानी चाहिए।


सत्ता के नाजुक संतुलन में बड़ी भूमिका में आ सकते हैं ओवैसी

बिहार विधानसभा चुनाव में हालांकि आखिरी वक्त में एनडीए ने सामान्य बहुमत 122 से तीन अधिक यानी 125 सीटें जीत कर बहुमत हासिल कर लिया और महागठबंधन 110 सीटों तक सीमित रह गया। अगर मान लीजिए कि एनडीए की सीटें पांच कम आतीं और महागठबंधन की पांच सीटें अधिक आतीं तो सत्ता का पूरा संतुलन पांच विधायकों के साथ ओवैसी के हाथों में आ जाता।

ओवैसी ने उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, मायावती की बसपा व देवेंद्र यादव की पार्टी के साथ गठजोड़ कर इस बार सीमांचल की 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें वह पांच सीटें हासिल कर पायी। कुशवाहा, मायावती
 से गठजोड़ का उन्हें लाभ हुआ। जबकि 2015 के चुनाव में ओवैसी छह सीटों पर लड़े थे लेकिन एक भी नहीं जीत पाये। एक सीट पर उनकी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी।

ऐसे में अब अगर ओवैसी अकेले दम पर या किसी से गठजोड़ कर पश्चिम बंगाल में अपने उम्मीदवार उतारते हैं और सीटें हासिल करने में कामयाब होते हैं तो वे नाजुक संतुलन में निर्णायक हो जाएंगे। अगर ममता बनर्जी उन्हें महत्व देते हुए अपने गठजोड़ में शामिल करती हैं तो उससे स्वाभाविक रूप से उनकी प्रासंगिकता बढ जाएगी और अगर ओवैसी छोटे दलों के साथ या स्वतंत्र रूप से मैदान में अपने उम्मीदवार उतारते हैं तो इससे भाजपा को लाभ होने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि भाजपा स्वयं ओवैसी का जिक्र कर रही है। पश्चिम बंगाल भाजपा के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने शुक्रवार को कहा है कि एमआइएम के बंगाल में चुनाव लड़ने से भाजपा को कई फर्क नहीं पड़ेगा। 



 


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