राज्यसभा की सदस्यता और पूर्व सीजेआई गोगोई के फैसलों की 'क्रोनोलॉजी' समझिए

Update: 2020-03-17 09:19 GMT

जिस तरह गगोई साहब ने अपने कार्यकाल में सरकार के समर्थन में फैसले सुनाए और उसके बाद आज सांसद बनकर के बैठ गए हैं, उसके बाद नहीं लगता कि लोगों की आस्था न्यायिक व्यवस्था में ज्यादा दिन तक बनी रहेगी, किसी भी देश का अल्पसंख्यक, गरीब, मजदूर तबका जब हर जगह से हार जाता है तब वह अदालत की तरफ इस उम्मीद से जाता है कि वहां उसे इंसाफ मिलेगा...

अबरार खान की टिप्पणी

सम एनआरसी, बाबरी मस्जिद, राफेल खरीद घोटाला जैसे मामलों में समझ में न आने वाले फैसले करने, अपने ख़िलाफ लगे योन शोषण के मामले की खुद ही सुनवाई करने वाले तथा कश्मीर के 370 और वहां के हालात को ठंडे बस्ते में डालने वाले पूर्व भारत के मुख्य न्यायधीश (CJI) रंजन गोगोई को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा का सांसद मनोनीत किया गया है। (राष्ट्रपति भाजपा के हैं, कट्टरपंथी विचारधारा के हैं, भाजपा के प्रवक्ता रहते हुए इन्हीं राष्ट्रपति महोदय ने एक बयान में कहा था मुसलमान और ईसाई इस देश के नागरिक नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी, उसकी मातृ संस्था आरएस और इनके द्वारा संचालित सत्ताएं मुसलमानों के प्रति कितना पूर्वाग्रह रखती है या बताने की ज़रूरत नहीं है)

राज्यसभा सांसद बनाए जाने के बाद गोगोई साहब एक बार फिर से चर्चाओं में आ गए हैं। इसके बाद उनके द्वारा दिए गए फैसलों की समीक्षा हो रही है। लोग उनके अतीत को याद कर रहे हैं। उनके फैसलों में पक्षपात और अतिवाद तलाश रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग खुलकर उनकी और उनके पुराने फैसलों की आलोचना कर रहे हैं। मुझे भी गोगोई साहब का सांसद बनाया बनाया जाना खटक रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि मामला सिर्फ गोगोई साहब तक या सिर्फ उनके द्वारा दिए गए फैसलों तक ही सीमित नहीं है।

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क्योंकि 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में आग लगती है जिसमें 58 संघी जो कि अयोध्या में जबरन राम मंदिर बनाने गए थे वह जलकर मर गए। बाद में पता चला कि गोधरा के मुसलमानों ने पेट्रोल छिड़ककर उन्हें जिंदा जलाया और इसी बात का प्रचार पूरे गुजरात में किया गया, गोधरा की जली लाशों को गांव-गांव, शहर-शहर घुमाया गया। उसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क गए और गोधरा की आग में पूरा गुजरात जलने लगा।

सी दंगे में गुजरात के आनंद जिले में औंध गांव में सैकड़ों लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया। गांव के सारे मुसलमान भाग गए। दंगाई भीड़ ने एक तीन मंजिला घर को आग लगा दी। उस घर में दो या तीन परिवारों के कुल 23 लोग जिंदा जल गए जिनमें 9 महिलाएं 9 बच्चे और 5 वयस्क पुरुष थे। दंगों के शांत होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) का गठन किया। इस एसआईटी ने अपनी जांच में 48 लोगों को दोषी पाया। 48 में से 46 आरोपी आरोपी कोर्ट में पेश किए गए 2 आरोपी अभी भी फरार हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वह विदेश चले गए हैं मगर सभी 48 लोगों पर मुकदमा चला, मुकदमे के दौरान 2 लोगों की मृत्यु हो गई।

Full View में इस मामले का ट्रायल लोअर कोर्ट में शुरू हुआ और 2012 में लोअर कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया जिसमें 23 लोगों को कोर्ट ने बरी कर दिया क्योंकि उनके खिलाफ पर्याप्त सुबूत एसआईटी नहीं पेश कर पाई थी। 5 लोगों को 7-7 साल की सजा दी गई थी और 18 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।

लोअर कोर्ट के इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी संतुष्ट नहीं थी। उसने 23 लोगों को बरी किए जाने को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट में यह मामला 2018 तक चला। 2018 में कोर्ट ने उन पहले ही बरी हो चुके 23 लोगों के अलावा तीन और लोगों को भी बरी कर दिया। जिन लोगों को 7-7 साल की सजा मिली थी उसे बरकरार रखा। इस दौरान एक और आरोपी की मृत्यु हो गई तो 18 में से जो 17 बचे थे उन सभी की सज़ा को बरकरार रखा। मगर एक बात यहाँ पर याद रखें कि 17 में से 2 लोग अभी भी फरार हैं। बचे पंद्रह में से तीन और बरी हो गए तो कुल बचे बारह। हाईकोर्ट से आजीवन कारावास की सजा पाए इन सभी 12 दोषियों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की स्पेशल बेंच में यह मामला तभी से विचाराधीन है।

न सभी आरोपियों को बीती जनवरी के अंतिम सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी। अदालत द्वारा किसी को बरी कर देना, किसी को सज़ा दे देना या ज़मानत देना यह सब आम बात है। इस पर कुछ लोगों को हैरानी होती है मगर इतनी नहीं होती जितनी हैरानी इस मामले में हुई है। हैरानी का कारण दोषियों का बरी होना या उनको जमानत मिलना नहीं है बल्कि हैरानी का कारण है जमानत देने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट का नया तौर तरीका और आदेश। इन आरोपियों को जमानत देने के साथ यह शर्त लगाई गई है कि यह लोग गुजरात में नहीं रहेंगे, इसके बाद शर्त नहीं लगी बल्कि इनाम दिया गया है।

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नाम ये है कि इन आरोपियों को अध्यात्मिक और सामाजिक कार्यों में लगाया जाए, इन्हें सेमिनारों में बुलाया जाए और इनके चाल-चलन की सारी रिपोर्टिंग करके सुप्रीम कोर्ट को बताया जाए। इतना ही नहीं इनके लिए रोजगार की भी व्यवस्था की जाए। ज्ञात रहे कि यह सुप्रीम कोर्ट की राय नहीं है बल्कि उसका आदेश है कि सभी दोषियों को रोजगार मुहैया कराया जाए जब तक इनके मामले में फैसला नहीं आ जाता।

तना ही नहीं इन्हें मात्र 25,000 रुपए के मुचलके पर जमानत दी गई है। ये भी हैरानी की बात है कि सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने मात्र से जिन्हें यूपी पुलिस ने बिना किसी सबूत के कोर्ट में पेश किया। उन सभी को 50-50 हज़ार के मुचलके पर जमानत दी गई है परंतु लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट से आजीवन कारावास की सज़ा पा चुके इन दोषियों को मात्र 25 हज़ार पर छोड़ा गया है। सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने के कारण 50-50 हज़ार का मुचलका भरने वालों में मेरे फेसबुक मित्र दीपक कबीर और सदफ जाफर भी शामिल हैं।

Full View कहानी सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे अनगिनत उदाहरण है जिनमें अदालतों का उनके फैसलों का विरोधाभास साफ दिखाई देता है। हमें याद है कि संजय दत्त को जहां रियायत पर रियायत मिल रही थी, जमानत पर जमानत, पैरोल जैसे सभी नियमों का लाभ मिल रहा था, वहीं दूसरी तरफ संजय दत्त की सह आरोपी बुजुर्ग महिला को इलाज के लिए भी जमानत नहीं मिली।

जीएन साईंबाबा को कौन भूल सकता है जो जेएनयू जैसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित प्रोफेसर, सामाजिक और बौद्धिक व्यक्ति थे। मगर सरकार को नहीं पसंद थे तो उन्हें नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। जहाँ साईंबाबा जिन्दगी और मौत से लड़ रहे हैं। मगर आजतक उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। लोअर कोर्ट से उन्हें भी सज़ा जरूर मिली है। मैं यह नहीं कहता कि और कोर्ट की मंशा पे मुझे शक है, मगर लोअर कोर्ट की कार्यप्रणाली पर मुझे पूरा शक है क्योंकि अधिकतर मामले जो हाईलाइट होते हैं उनमें अमूमन लोअर कोर्ट आरोपी को सजा सुना देती है, बाद में वही आरोपी हाईकोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाता है।

ससे साबित होता है कि कहीं ना कहीं लोअर कोर्ट क़ायदे क़ानून से परे जन दबाव में काम करती है और मुझे यकीन है फैसला आने तक जीएन साईंबाबा भी बाइज्जत बरी होंगे, मगर जब तक फैसला नहीं आता तब तक जमानत पाने का अधिकार उन्हें भी है। वह तो पहले से ही स्प्रिचुअल हैं। इसके लिए कोर्ट को भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। मगर समस्या तो यह है कि सामाजिक व्यक्ति हैं उनका सामाजिक होना ही उनका सबसे बड़ा कसूर है।

जिस तरह गुजरात के दंगाइयों को जमानत दी गई है और उन्हें अध्यात्म तथा सामाजिक कार्यों से जोड़ने का आदेश दिया गया है इस तरह अगर अध्यात्म और सामाजिक कार्य करने की बुनियाद पर ही जमानत दी जाने लगी फिर तो आसाराम को भी आसानी से जमानत मिल जाएगी और मिलनी चाहिए क्योंकि आसाराम का गुनाह कहीं भी आनंद दंगा मामले में सजा पाए आरोपियों से ज़्यादा नहीं है।

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बात राम मंदिर जैसे विवादास्पद मुद्दे को खत्म करने के लिए विवादास्पद फैसले करने भर तक होती तो समझी जा सकती थी लेकिन बात उससे कहीं ज्यादा बड़ी है और चिंताजनक है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब शाहीन बाग में प्रदर्शन कर रही एक महिला की नवजात बच्ची सर्दी लगने से मर गई जिसपर कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए सुनवाई शुरू कर दी थी। मगर दूसरी तरफ यूपी में सरकार के आदेश पर पुलिस ने दर्जनों लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी। उसे कोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया।

त्तर प्रदेश में ही पुलिस ने घरों में घुसकर तोड़फोड़ की, सीसीटीवी कैमरे तोड़े, लोगों को घरों से खींच-खींच कर जेलों में डाला, सांप्रदायिक गालियां धमकियां दी लेकिन इन सबको अदालत ने नजरअंदाज कर दिया और जब कुछ लोगों ने याचिका भी डाली तो यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि अभी सुनवाई का अनुकूल माहौल नहीं है। कश्मीर में 370 हटाए जाने का मामला वहां हो रहे मानवाधिकार के हनन का मामला पिछले 7 महीने से लंबित है क्योंकि अदालत को लगता है कि अभी माहौल सुनवाई के अनुकूल नहीं है।

पुणे मॉब लिंचिंग की सुनवाई करते हुए जज ने यह कहते हुए जमानत दे दी कि मृतक के धर्म ने आरोपियों को हत्या करने पर उकसाया था वरना वह लोग पेशेवर अपराधी नहीं हैं। उत्तर पूर्व के एक जस्टिस ने सुनवाई के दौरान यहां तक कह दिया कि सरकार को चाहिए कि वह देश को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दे। उपरोक्त उदाहरण इस बात का द्योतक हैं कि जिस तरह हमारे देश का लोकतंत्र, हमारे देश की राजनीति बहुसंख्यकवादी हो चुकी है उसी तरह कहीं ना कहीं हमारी अदालतें भी बहुसंख्यक वादी हो चुकी हैं।

Full View देश की अदालतों और जजों का वक़ार इतना बुलंद था कि लोग मुकदमा हारकर भी कहते थे कि हम अपना पक्ष अदालत को समझाने में कामयाब नहीं हुए इसलिए फैसला हमारे हक में नहीं आया। वह मुकदमा हारकर भी अदालत की या जज की आलोचना नहीं करते थे। जब कोई मामला अदालत में जाता था तो दोनों पक्ष बड़े फख्र से कहते थे कि हमें अदालत पर विश्वास है हमें न्याय मिलेगा। न्याय व्यवस्था के प्रति हमारे देश के लोगों का यह समर्पण था। यह समर्पण संविधान के प्रति था, न्यायिक व्यवस्था के प्रति था, देश के प्रति था।

रंतु जिस तरह गगोई साहब ने अपने कार्यकाल में सरकार के समर्थन में फैसले सुनाए और उसके बाद आज सांसद बनकर के बैठ गए हैं उसके बाद मुझे नहीं लगता कि लोगों की आस्था न्यायिक व्यवस्था में ज्यादा दिन तक बनी रहेगी। किसी भी देश का अल्पसंख्यक, गरीब, मजदूर तबका जब हर जगह से हार जाता है तब वह अदालत की तरफ इस उम्मीद से जाता है कि वहां उसे इंसाफ मिलेगा। मगर उपरोक्त घटनाओं से लोगों का विश्वास, लोगों की आस्था न्याय व्यवस्था से कम अथवा खत्म हुई है।

ह देश के लिए लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है क्योंकि जब व्यक्ति अदालतों और जजों से भी निराश हो जाता है तब वह स्वयं इंसाफ करने की ठान लेता है और जब जनता स्वयं इंसाफ करने लगती है, अपने इंसाफ के लिए अपने तरीके से लड़ने लगती है, हथियार उठा लेती है तब अराजकता फैल जाती है, गृहयुद्ध फैल जाता है और अविश्वास तथा अराजकता की स्थिति किसी भी देश के लिए विघटनकारी होती है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हमारा देश विघटन की तरफ तेजी से बढ़ रहा है।

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