अल्मोड़ा के अधिकारियों के पास बेघरों को खदेड़ने का है आइडिया, पर बसाने का नहीं कोई प्लान
अल्मोड़ा शहर में जोधार की तुनी, पपर शैली, खोल्टा और करबला के पास रहते हैं दर्जनों बेघर परिवार, इनके लिए राज्य सरकार के पास नहीं है कोई स्कीम, उल्टा इन्हें यहां से खदेड़ने के होते रहते हैं जतन...
अल्मोड़ा से विमला की रिपोर्ट
'मैं कोई पैदायशी बेघर नहीं हूँ। हम सीतापुर के रहने वाले थे। हमारे पास छोटा सा घर और थोड़ी सी जमीन थी। बेटा अचानक बीमार हो गया। हास्पिटल वालों ने बोला आपरेशन करना पड़ेगा, जिसके लिए डेढ़ लाख रुपया लगेगा। बेटे के इलाज के लिए घर और खेत दोनों बेच दिया। तब से न घर है, न काम है। बस इसी तरह सड़क किनारे भीख मांगकर जी रहे हैं। हमें 20 साल हो गये अल्मोड़ा में रहते रहते हुए। हमारे पास कोई पहचान पत्र नहीं है, बस आधार कार्ड के अलावा। इससे ना राशन मिलता है, न वृद्धावस्था पेंशन। किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। सरकार बोलती है मुफ्त में इलाज मिलेगा, मगर कुछ नहीं मिलता हम गरीबों को।' यह कहते हुए अल्मोड़ा में पिछले 20 सालों से सड़क किनारे भीख मांगकर गुजारा कर रही बेघर गीता की आंखें भर आती हैं।
गीता जैसी ही हालत गुड़िया की भी है। कहती है, 'लोग हमें भिखारी कह के चिढ़ाते हैं, मगर किसी से घर में झाडू-पोछे का काम भी मांगें तो वह भी नहीं देते। कहते हैं भिखारियों को कौन काम देगा। मेरा जन्म अल्मोड़ा में ही हुआ है, मैं 20 साल से यहां रह रही हूँ, मगर न आधार कार्ड बना है और न ही राशन कार्ड।'
गुड़िया की ऐसी हालत तब है जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 के मुताबिक जिस भी व्यक्ति का भारत में अधिवास है, वह भारत का नागरिक होगा। यदि- वह भारत में जन्मा हो, अथवा 2-उसके माता—पिता में से कोई भारत में जन्मा हो, 3-अथवा जो संविधान के प्रारम्भ होने से ठीक पहले कम से कम पांच वर्षों तक भारत का साधारण तौर पर निवासी रहा हो, अधिवास द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए इनमें से केवल दो शर्तें भी पूरी हो जाए तो उस व्यक्ति को नागरिकता प्राप्त हो जाती है। मगर अल्मोड़ा में बेघरों के तौर पर दो दशक से भी ज्यादा वक्त तक रहने के बाद भी ये यहां के नागरिक नहीं कहलाते।
बेघर परिवार के तौर पर उन्हें गिना जाता है जो जनगणना के क्रम में किसी मकान, इमारत में नहीं रहते, बल्कि खुले में सड़क किनारे, फुटपाथ, फ्लाईओवर या सीढ़ियों के नीचे रहने सोने को बाध्य हैं। अल्मोड़ा शहर में लाला बाजार के पास 13 परिवार खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं, जिनमें बूढ़े, बच्चे, युवा, महिलाएं सभी हैं। ये परिवार न सिर्फ बेघर होने का दर्द झेल रहे हैं, बल्कि सड़क किनारे भीख मांगकर अपना गुजारा करने को बाध्य हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां के रहवासी इन्हें भिखारी कहकर अपने घरों में झाड़ू—पोछे तक का काम नहीं देते।
इन्हीं बेघरों में से एक बच्ची है पूनम ठाकुर बेहलीया। कहती है, 'मैं 12 साल की हूँ। यहां पास के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाती थी, पर अब छोड़ दिया है। मैम किताबें नहीं देतीं, बोलती हैं बाजार से लेकर आओ और डंडे से सर और पीठ पर मारती है। और भी बहुत जगह डंडों से मारती हैं, इसलिए अब मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया।
इन्हीं बेघरों में शामिल एक बच्चा अर्जुन कहता है, 'स्कूल में मैम कापी-किताब नहीं देंगी, यूनिफॉर्म नहीं देगी तो स्कूल कैसे जाएंगे। ऐसे ही और भी बच्चे हैं, जो शिक्षकों के दुर्व्यवहार के चलते नहीं पढ पा रहे हैं।
स्कूल शिक्षकों द्वारा इन बेघर बच्चों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार तब किया जा रहा है जबकि संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 21 के पश्चात 21 क जोड़ा गया, जिसमें कहा गया है कि राज्य के सभी 6 से 14 वर्ष तक के बच्चे निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा ग्रहण करेंगे। अनुच्छेद 21क में शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार में जोड़ा गया है।
बेघरों को नागरिकता न मिलने संबंधी सवालों पर अल्मोड़ा के नगरपालिका अध्यक्ष प्रकाश जोशी कहते हैं, 'सरकारी फाइलों में इनकी कोई गणना नहीं है, न ही इनके आवास की कोई योजना है। भिखारियों और भिज्ञावृत्ति पर रोक लगाने की सख्त जरूरत है। अगर सरकार कोई योजना बनाये, तो हम उसका सर्मथन करेंगे और उसके लिए काम करेंगे।'
प्रकाश जोशी आगे कहते हैं, 'सरकारी योजनाओं से भिखारियों के लिए जगह-जगह रेनबसेरे बनाये गये हैं, ये लोग वहाँ भी रह सकते हैं। इनके बच्चों को किताबों की आवश्यकता होगी, तो हम उपलब्ध करायेंगे।'
यह तो शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के दावे और वादे हैं जो जमीन पर कभी खरे नहीं उतरते। अन्यथा किसे अच्छा लगेगा भीख मांगकर जीवन-यापन करना और किसे अपने घर पर छत अच्छी नहीं लगती, यह भी कि हमारे बच्चे स्कूल जाकर पढ़ें लिखें, किस मां-बाप का सपना नहीं होता।
आज भी भारत में बेघरों की तादाद लाखोंलाख में है। यह हालात तब हैं, जबकि हमारे प्रधानमंत्री मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों से गरीबों—वंचितों के हितों के तमाम दावे-वादे करते रहते हैं। अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि वर्ष 2022, जब भारत स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा होगा, तब तक हम देश के गरीब तबके के लिए दो करोड़ नए घर बनाने वाले हैं। मतलब भारत बेघर लोगों की समस्याओं का मजबूती से हल निकाल रहा है।
अल्मोड़ा शहर में जोधार की तुनी, पपर शैली, खोल्टा और करबला के पास दर्जनों बेघर परिवार रहते हैं। इस सम्बन्ध में हाईकोर्ट की अधिवक्ता स्निग्धता तिवारी जो HRLN संगठन से भी जुड़ी हुई हैं कहती हैं, 'अगर हम उत्तराखंड के सन्दर्भ मे देखें तो यहां की सरकार द्वारा बेघर लोगों के लिए किसी भी तरह की कोई स्कीम लागू नहीं की है। कुछ जगहों पर रेनबसेरे बनाये भी गए हैं, तो वो एक तो पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं दूसरा जो बने भी हैं तो वो ज्यादातर खुले ही हैं। उन्हें सिर्फ घर के आकार का ढांचा दे दिया है ,न ढंग के दरवाजे हैं ना रहने की उचित व्यवस्था। अगर लोग सड़कों पर भीख मांग रहे हैं तो इसे राज्य सरकार की बड़ी विफलता माना जाना चाहिए कि लोगों के पास रोजगार के तौर पर भीख मांगना अंतिम विकल्प है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए कहा है कि वो भीख इसलिए नहीं मांगते कि ऐसा करना उसकी इच्छा है, बल्कि इसलिए मागंते हैं कि उनके पास जीवित रहने का अन्तिम विकल्प भीख मांगना है।'
स्निग्धता आगे कहती हैं, 'वो लोग भी बेघर हैं जो रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं, एक शहर से दूसरे शहर में जा रहे हैं। फुटपाथ पर रहने वाले लोगों का सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है, वो जनगणना में शामिल ही नहीं हैं।'
उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो वो लोग भी बेघर हैं, जिनके मकान प्राकृतिक आपदाओं में ध्वस्त हो चुके हैं या बड़े बांधों के नाम पर जिनका विस्थापन हुआ है। इसका सरकार के पास कोई फिक्स आंकड़ा नहीं है। जबरन विस्थापित कर दिये गये लोगों के लिये भी सरकार के पास ना तो रोजगार की व्यवस्था है और न ही रहने को घर है।
अल्मोड़ा के बेघरों को लेकर अल्मोड़ा नगरपालिका अध्यक्ष रह चुकीं शोभा जोशी कहती हैं, 'ये लोग सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं हैं। कहाँ से आये हैं, कौन हैं कोई जानकारी नहीं है। इन्हें यहाँ से निकाल देना चाहिए। मैंने अपने शासनकाल में इनको राज्य से बाहर निकालने की कोशिश भी की थी, मगर ये फिर से आकर बस गये।'
शोभा जोशी आगे कहती हैं, इनके पास घर है जमीन है, इन्होंने भीख मांगना अपना पेशा समझ लिया है। शोभा जोशी इनके पास बैंक बैलेंस होने की बात भी कहती हैं। कहती हैं भीख मांगना धंधे की तरह चलता है, लाखों का बिजनेस है ये इनका। भिखारियों के बारे में वो कहती हैं इनमें योग्यता नहीं है इसलिए भीख मांग रहे हैं।
मगर पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष की बात से एक सवाल खड़ा होता है कि अगर उनके पास घर है, जमीन है तो फिर नागरिकता क्यों नहीं है। उनके पास वोटर कार्ड, राशन कार्ड क्यों नहीं है, उन्हें क्यों नागरिक नहीं समझा जा रहा है, जबकि संविधान के अनुसार भी इनकी नागरिक के बतौर स्वीकृति होनी चाहिए।