आरोग्य एप : कोरोना के बहाने जनता पर नजर रखने की एक नई डिजिटल तकनीकी

Update: 2020-05-01 11:57 GMT

प्रधानमंत्री से लेकर स्कूल तक लगातार आरोग्य एप को डाउनलोड करने की आखिर क्यों दे रहे सलाह, क्या कोरोना महामारी से निपटने के बहाने जनता के साथ 24 घंटे वाला जासूस उसके शरीर में टांक देना है?

प्रमोद रंजन का महत्वपूर्ण विश्लेषण

जनज्वार। ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि नए कोरोना वायरस के कारण फैली विश्वव्यापी सनसनी और अफरातफरी के बीच डिजिटल सूचनाओं के आँकड़ों का व्यापार करने वाली कंपनियां बहुत ताकतवर बनकर उभरेंगी। साथ ही इसे दुनिया के स्वास्थ्य-बाजार पर कब्ज़े की होड़ के रूप में भी देखा जा रहा है।

दुनियाभर में कोरोना के नाम पर ‘अंडर-स्किन सर्विलांस’ (मानवीय चमड़ी के अंदर चल रही गतिविधियों की जासूसी) का ख़तरा बढ़ गया है। संभव है कि कुछ देशों की राजनीतिक सत्ताएं अपने हर नागरिक को ऐसा ब्रेसलेट या लॉकेट पहनने के लिए विवश करें, जिससे उनका ‘आर्टिफिशल इंटेलिजेंस सिस्टम’ नागरिकों के शरीर का तापमान, हृदय गति आदि नोट करता रहे।

ई विशेषज्ञ लगातार इसके खिलाफ आवाज़ उठाते रहे हैं। इन डिजिटल यंत्रों के माध्यम से आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस सिर्फ मनुष्य का तापमान और हृदय गति ही नहीं, बल्कि लोगों के सुख-दुख-क्रोध आदि भावनाओं को मापने में भी सक्षम है। इसके बूते सरकार अपने नागरिकों के आवागमन, राजनीतिक रूझान समेत अधिकांश गतिविधियों पर नजर रखेगी।

मेजन अपने वेयरहाउस में पिछले कुछ समय से ऐसी एक तकनीक का उपयोग करता रहा है। वहां कार्यरत मजदूरों को ऐसी डिवाइस पहननी होती है, जो उनकी हर गतिविधि पर नजर रखती है, जिससे उनकी स्थिति एक मानवीय-रोबोट की हो जाती है।

भारत में भी आधार कार्ड, जो कि एक ओवरस्क्रीन सर्विलांस सिस्टम था, के विरोध पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगने के बाद अब सरकार ‘आरोग्य एप’ को अनिवार्य बनाने की ओर बढ़ रही है। यह अंडर-स्किन सर्विलांस का पहला कदम है, जो कोरोना से भयभीत समाज पर चुपके से थोपा जा रहा है।

समझें कैसे काम करता है अंडर-स्किन सर्विलांस

कोरोना की अफरातफरी के बीच रूस, चीन, साऊथ कोरिया और इजरायल ने ‘अंडर-स्किन सर्विलांस’ शुरू कर दी है। रूस ने क्वारंटीन के नियमों का उल्लंघन करने वालों को पकड़ने के लिए अकेले मास्को शहर में 1 लाख 70 हजार कैमरे लगाए हैं, जिनमें से एक लाख कैमरे उसके आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम से जुड़े हैं। ये कैमरे लोगों के चेहरों की पहचान करते हैं।

कोरोना- काल बीत जाने के बाद भी इन कैमरों के आर्टिफिशिल इंटेलिजेंस सिस्टम से हटाए जाने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि सरकारें दावा करेंगी कि इन्हें अगली वैश्विक महामारी और आतंकवाद आदि से बचने और लड़ने के लिए लगाए रखना जरूरी है।

र्विलांस की ये तकनीकें सरकारों से कहीं अधिक सूचनाओं और आंकड़ों के व्यापार में संलग्न कंपनियों को फायदा पहुंचाएंगी, क्योंकि इंटरनेट आधारित इन सुविधाओं का डेटाबैंक अंतत: उन्हीं के पास होगा। सरकारें आँकड़ों के लिए इन कंपनियों पर निर्भर रहेंगी।

स प्रकार, जनता से जबरन लिए गए इन आंकड़ों और सूचनाओं पर कब्ज़ा दुनिया के विशाल कारपोरेशनों का रहेगा, और सरकारें अपने विरोधियों को काबू में करने के लिए उनकी मुखाक्षेपी रहेंगी।

एक नई किस्म की गुलामी

रअसल, कोरोना से लड़ने में इन वैश्विक-शक्तियों का साथ देने के क्रम में हम एक नई गुलामी, नए प्रकार की तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी जकड़बंदी राजनीतिक तानाशाहों से कहीं अधिक गहरी होगी, जिसकी फांस इतनी मजबूत होगी कि शायद कसमसाने के लिए भी बहुत कम जगह उपलब्ध हो।

से हम ‘सोशल-मीडिया’ पर लग रही गैर-सरकारी पाबंदियों और सेंसरशिप के उदाहरण से भी देख सकते हैं। एक तकनीकी माध्यम, जो जनता के नाम पर शुरू हुआ था, आज बड़ी पूंजी वाले कॉरपोरेशनों का हथियार बन गया है।

जैसे-जैसे सोशल-मीडिया की ताकत बढ़ी, सबसे पहले बड़ी पूंजी वाले समाचार-माध्यमों ने इसे बदनाम करने और दबाने के लिए कोशिशें शुरू कीं। उन्होंने जनता के इस मंच को सभ्य समाज के लिए गैर-ज़िम्मेदाराना, मूर्खतापूर्ण और घातक कहा। सरकारों ने इन्हीं तर्कों पर इस पर लगाम कसनी चाही। जगह-जगह दंगों और मॉब लिंचिंग की घटनाओं के लिए इसे जिम्मेवार ठहराया गया और अधिकांश मामलों में कोई भी घटना घटने पर इंटरनेट को प्रतिबंधित कर दिया जाता रहा। दरअसल, यह इंटरनेट को नहीं, बल्कि सोशल-मीडिया को प्रतिबंधित करना था।

दुनिया के हालिया इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनमें बड़े-बड़े सांप्रदायिक व नस्ली दंगे भड़काने, गलत सूचनाएं फैलाने में बड़ी पूंजी वाले अखबारों और टीवी चैनलों का हाथ रहा है। लेकिन उन्हें कभी भी इस तरह सामूहिक रूप से प्रतिबंधित नहीं किया गया। अखबारों और टीवी में प्रसारित कुछ खबरों से अगर दंगा फैलता है तो उन्हीं में ऐसी खबरें भी होती हैं, जो सामाजिक सौहार्द्र को बढ़ाती हैं। क्या यही बात सोशल-मीडिया पर भी लागू नहीं होती? क्या सोशल मीडिया पर सिर्फ दंगा भडकाने वाले लोग ही हैं, क्या वहां भी उनका ही जनमत ज्यादा नहीं है जाे सच के पक्ष में आवाज़ उठाते हैं?

यहां एक दूसरा पेंच भी है...

सोशल मीडिया पर लगाम लगाने में सरकारों के सबसे बड़े सहयोगी खुद फेसबुक, ट्विटर, गूगल जैसे सोशल-मीडिया के प्लेटफॉर्म रहे हैं, जिनका मकसद सूचनाओं और आंकड़ों के संसार पर कब्ज़ा करना है, न कि आम जनता को ताकतवर बनाना।

न प्लेटफार्मों ने अपने सोशल-मीडिया उत्पादों (यूट्यूब,ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप, वीचैट आदि) को आम लोगों के लिए मुफ्त रखा है, लेकिन यह दिखावा ही है। वस्तुत: आम लोग इसकी भारी कीमत उन्हें अपनी सूचनाएं और आँकड़े सौंपकर चुका रहे हैं।

न आंकडों और सूचनाओं ने बड़ी व्यापारिक कंपनियों को समृद्ध किया, लेकिन इस बीच यह माध्यम जनता की आवाज़ भी बन गया, जिसने दुनिया में कई बड़े राजनीतिक आंदोलनों को जन्म दिया।

ब तक मामला सिर्फ राजनीतिक सत्ता के स्थानांतरण तक सीमित रहा, तब तक ये प्लेटफॉर्म प्रभावित राष्ट्राध्यक्षों के दवाब में जनता की आवाज़ पर कुछ बंदिशें लगाने तक सीमित रहे। लेकिन इन बंदिशों पर इन प्लेटफार्मों ने प्राय: स्वयं आपत्ति भी जताई तथा अक्सर ‘जनता की आवाज़ पर सरकारी प्रतिबंध’ के रूप में प्रचारित किया। ये प्लेटफॉर्म लगातर आंकड़े जारी करते रहे कि किस सरकार ने उनसे कब-कब कितने लोगों की जानकारी मांगी और कौन सी सरकार अपनी जनता की जासूसी में सबसे आगे है।

फेसबुक के मार्क ज़ुकरबर्ग ने सरकारी तानाशाही के इन तर्कों को आधार बनाकर आँकड़ों को देश की सीमाओं में न बांधने की वकालत की तो मुकेश अंबानी जैसे लोगों ने इस पर राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर आंकड़ों को देश की सीमाओं के बाहर स्टोर करने पर आपत्ति जताई। लेकिन दोनों के मकसद एक ही थे, इन अमूल्य आंकड़ों पर क़ब्ज़ा।

हरहाल, जब तक सोशल- मीडिया के निशाने पर स्थानीय राजनीतिक सत्ताओं द्वारा लगाई गई पाबंदी रही, जब तक तो सब कुछ कमोवेश ठीक चलता रहा। लेकिन इससे पहले कि जनता की यह आवाज़ दुनिया के उन असली एक प्रतिशत सत्ताधीशों, जो दुनिया की कुल संपत्ति के 44 फीसदी के स्वामी हैं, के दरवाज़ों पर चोट करने पहुँचती, इसे दबाने के लिए उन्होंने हर वह हथकंडा अपनाना शुरू कर दिया, जिसे पहले वे ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला’ कहते थे।

नपतियों के खिलाफ उठने वाली इन आवाजों को फाल्स न्यूज और कांसपिरेसी थ्योरी कह कर सेंसर किया जा रहा है।

कोई भी सोशल-मीडिया प्लेटफार्म आज यह आंकड़ा जारी नहीं कर रहा, उसे किस व्यापारिक संस्थान ने इस कंटेंट को हटाने के लिए कहा है। वे किसके कहने पर यह अभियान चला रहे हैं?

कोरोना वायरस के हंगामे के बीच भी ऐसी आवाज़ों को सेंसर किया जा रहा है, जो इसे वैक्सीन के विश्वव्यापी बाजार या 5G से जोड़कर देख रहे हैं। अनेक यूट्यूब चैनल बंद किए जा चुके हैं तथा ट्विटर व फेसबुक ऐसे कंटेंट को लगतार डिलीट कर रहे हैं। गूगल ऐसी सामग्री पर ‘फाल्स’ न्यूज का तमगा लगाकर उसे आडियंस तक पहुंचने से रोक रहा है।

ये सोशल मीडिया प्लेटफार्म आज जनता की आपसी बातचीत का हिस्सा है। इस पर सक्रिय लोग कोई ‘मीडिया-संस्थान’ नहीं हैं, जो अपनी विशाल पूंजी के सहारे विश्वसनीयता का दावा करते हैं, या भारत जैसे देशों में तो शासन का चौथा-खंभा होने का दंभ भरते हैं।

कुछ दशक पहले तक जब लोग चौक-चौपालों पर आपस में बातचीत करते थे तो उसमें कई प्रकार के गॉसिप और निराधार आशंकाएं भी होती थीं। ये आशंकाएं समाज को उन विषयों पर गहनता से सोचने तथा सत्य को तलाशने के लिए प्रेरित करती थीं। यही बातें सत्ताधीशों पर लगाम लगाने और परिवर्तन का वाहक भी बनती थीं।

सोशल-मीडिया प्लेटफार्म आज का वही चौक-चौपाल है। बल्कि आज तो वही एकमात्र पब्लिक स्फेयर (सावर्जनिक क्षेत्र) है। अंतिम सच के प्रति इसका कोई सामूहिक दावा नहीं है।

अभिव्यक्ति की आजादी क्या है?

क्या जनता को सिर्फ सच बोलने की आज़ादी है? क्या जानकारी के अभाव में थोड़ा कम सच बोलने, आशंका प्रकट करने या कभी-कभी मूर्खतापूर्ण बातें करने पर हमारी आवाज़ को दबा दिया जाएगा, हमें जेल भेज दिया जाएगा? और सच क्या है, यह अगर जनता नहीं तो कौन तय कर रहा है? सत्य के ये नए पहरेदार कौन हैं? क्या सत्य के पहरेदार के वेश में ये वही पूंजीपति तबका नहीं है, जिन्हें हम सदियों से झूठ की दलाली करते हुए देखते रहे हैं?

वे ही आज इन (डिजिटल) चौराहों पर आम लोगों को आपस में उनके बारे में बात करने से रोक रहे हैं। यह बहुत खतरनाक संकेत है। खासकर तब, जब हम यह देख रहे हैं कि कोरोना-काल के बाद अब सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने के मामले संग्रहालय में चित्रों और डॉक्यूमेंटरी फिल्मों में ही बचे रहेंगे।

राजनेताओं की तानाशाही के दिन अब बीत चुके हैं। अब हम विराट कॉरपोरेट कंपनियों की तानाशाही के युग में प्रवेश कर रहे हैं। विश्व के एक होने का हमारा सपना अब पूरा होने को है, लेकिन त्रासद यह है कि इस विश्व-साम्राज्य पर दुनिया के सबसे ताक़तवर कॉरपोरेशनों का संघ राज करेगा।

बेहतर होगा कि हम समय रहते कोरोना के सुनियोजित भय-व्यापार को समझें और इनके विरोध के लिए आगे आएं।

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