एक चिट्ठी लिखकर आप अंबेडकर के मानसपुत्र नहीं बन जाते करणन साहब!

Update: 2017-06-20 16:28 GMT

आज पचासों लाख रुपए लोग वकील की फीस के दे देते हैं। गरीब आदमी को अदालत से न्याय मिलना असंभव सा हो गया है। अब सिर्फ ब्रह्ममेश्वर मुखिया जैसे लोग बोलते हैं कि उन्हें अदालत पर पूरा भरोसा है.....

रामप्रकाश अनंत

कोलकाता हाईकोर्ट के जज सीएस करणन और सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच तीन महीनों से जारी नाटकीय घटनाक्रम का पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा करणन के विरुद्ध छह महीने कारावास की सजा सुनाने से हुआ। करणन को सजा प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखने के गुनाह में हुआ था। 3 जनवरी को प्रधानमंत्री को लिख पत्र में करणन ने हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के 20 जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे।

सवाल है कि जस्टिस करणन ने कोई नई बात नहीं कही है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार किसी भी सरकारी विभाग से अधिक होने की संभावना इसलिए भी है क्योंकि उसकी कोई जवाबदेही नहीं है। कोई अदालत सालों केस घसीटने के बाद कुछ भी फैसला सुना दे उसकी कोई जवाबदेही नहीं है।

आज अदालतों का जो माहौल है वह किसी से छिपा नहीं हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक जज अपने आप को कैसे राजतंत्र की हैसियत में देखते हैं उसे सहारा मामले में राजीव धवन के लेख से समझा जा सकता है। मैंने देखा है आम आदमी की कोर्ट -कचहरी में कोई आस्था नहीं रह गई है। लोग मानते हैं पैसे वाला आदमी अदालत में जीतता है।

आज पचासों लाख रुपए लोग वकील की फीस के दे देते हैं। गरीब आदमी को अदालत से न्याय मिलना असंभव सा हो गया है। अब सिर्फ ब्रह्ममेश्वर मुखिया जैसे लोग बोलते हैं कि उन्हें अदालत पर पूरा भरोसा है।

अदालत में न्याय न मिल पाने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस करणन के के बीच सजा सुनाने और नोटिस भेजने का जो सिलसिला चला उसे देखकर लगता है यह दुर्लभ उदाहरण है न्याय व्यवस्था में ऐसा नहीं होता है। क्योंकि यह न्याय व्यवस्था के अंदर का मामला था इसलिए वह किसी परिणति तक पहुंचा, वरना न्याय व्यवस्था आम लोगों के साथ कैसा व्यवहार करती है उसका एक उदाहरण देता हूँ।

सूचना का अधिकार अधिनियम कानून देश के चर्चित कानूनों में से एक है। मैंने उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग में पिछले वर्ष चार अपील की थीं। एक-डेढ़ माह बाद क्रमशः मेरी अपील यह कहकर वापस कर दी गईं कि पहली अपील के 45 दिन पूरे होने से पहले अपील की गई है। मैंने आयोग के जनसूचना अधिकारी से सूचना मांगी कि मेरी अपीलें किस तारीख को वापस भेजी गई हैं (अपील मुझे प्राप्त हुईं उन पर एक माह पहले की तारीख पड़ी हुई है) और वे सूचना का अधिनियम 2005 या उत्तर प्रदेश सूचना आयोग की नियमावली के किस नियम के तहत वापस की गई हैं। (सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुसार प्रथम अपील के 30 दिन बाद दूसरी अपील की जा सकती है।)

आयोग के जनसूचना अधिकारी ने दोनों बिंदुओं पर कोई सूचना नहीं दी। मैंने आपत्ति पत्र लिखा तो पहले पत्र की तरह उसने फिर एक पत्र भेज दिया कि आप सूचना का अधिकार अधिनियम का गहन अध्ययन करें। मैंने आयोग में चार आवेदन सूचना पाने के लिए किए चारों की सूचनाएं जनसूचना अधिकारी ने नहीं दी और सूचना के नाम पर भ्रामक पत्र भेज दिए। मैंने आयोग में प्रथम अपील की। अपीलाधिकारी जो आयोग का सचिव होता है उसने मुझे नोटिस भेजे कि मेरी फलां तारीख को सुनवाई है। एक आवेदन में मैंने यह भी सूचना मांगी कि प्रथम अपीलाधिकारी किस नियम के तहत मुझे नोटिस भेज रहे हैं। यह सूचना भी मुझे प्राप्त नहीं हुई।

अपील को पंजीकृत करना आयोग के रजिस्ट्रार / उपरजिस्ट्रार का काम होता है। रजिस्ट्रार आयोग का पदेन विधि अधिकारी होता है। वह अपर सत्र न्यायधीश से ऊपर के स्तर का होता है। आयोग को सिविल कोर्ट का दर्जा हासिल है। जहाँ उच्च न्यायलय समस्त कानून व्यवस्था के लिए राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय है, वहीँ सूचना का अधिकार कानून के लिए सूचना आयोग राज्य का उच्च न्यायालय है।

उस उच्च न्यायालय का विधि अधिकारी जो अपर सत्र न्यायधीश से ऊपर के स्तर का है किसी भी अपील को वापस कर देता है और आयोग यह सूचना भी नहीं देता कि वह किस नियम के तहत वापस की गई है। आयोग का सचिव सरकार के विशेष सचिव से ऊपर के स्तर का होता है वह किसी को भी आयोग में उपस्थित होने का नोटिस भेज देता है और आयोग यह सूचना नहीं दे पाता कि वह नोटिस किस नियम के तहत भेजा गया है। जस्टिस करणन और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो नाटकीय खींचतान चली वह इसलिए मुझे न्याय व्यवस्था की सामान्य सी घटना लगती है।

जस्टिस करणन की गतिविधि से यह भी स्पष्ट होता है कि समाज में किसी भी तरह के बदलाव का अपना विज्ञान होता है। किसी सनक, कुंठा या आक्रोश मात्र से समाज में कोई बदलाव नहीं होता। जस्टिस करणन बहुत बड़े पद पर थे। उस पद पर जहाँ खड़े होकर समाज से सरोकार रखने वाला व्यक्ति एक वक्तव्य दे दे उसे भी नोटिस किया जाता है और समाज हित में उसका उपयोग किया जा सकता है।

जस्टिस करणन ने जो तमाशा खड़ा किया उसके पीछे उनकी मंशा क्या थी और उससे क्या हासिल हुआ? उन्होंने बीस जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए मोदी को पत्र लिखा। क्या करणन उन बीस जजों को भ्रष्ट मानते थे उन्हें सजा दिलवाना चाहते थे। वे यह भी जानते होंगे जजों पर कार्रवाई संसद में महाभियोग लाने से होती है। संसद महाभियोग भी सबूतों के आधार पर लाएगी।

यह आश्चर्यजनक है कि हाईकोर्ट का जज यह उम्मीद करता है कि वे मोदी को एक पत्र लिख देंगे और बिना किसी सबूत के मोदी बीस जजों के विरुद्ध सीबीआई जाँच कराकर उन्हें जेल भेज देंगे। वे मोदी जो मुख्यमंत्री रहते गुजरात में लोकायुक्त न बनने देने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ते रहे, वे मोदी जो सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद केंद्र में लोकपाल का गठन नहीं कर रहे हैं। वे मोदी जो संसद में मनी बिल लेकर आए हैं।

न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, जजों का चुनाव जिस कॉलेजियम सिस्टम से होता है वह बेहद संदेहास्पद है। न्यायपालिका ने अपने लिए तानाशाही जैसा माहौल बना लिया है। मामूली आलोचना करने से पहले लोग कहते हैं मैं न्यायपालिका का पूरा सम्मान करता हूँ।

2009 में राज्यसभा में गठित कमिटी ने कलकत्ता हाई कोर्ट के जज सौमित्र सेन को 32 लाख की रिश्वत का दोषी पाया। लोकसभा में महाभियोग की तैयारी के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। 2009 में सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस पी.डी. प्रभाकरन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। राज्यसभा में उन्हें हटाने के लिए प्रस्ताव लाया गया। लोकसभा में महाभियोग की तैयारी के बाद 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।

15 जनवरी 2012 की एक आरटीआई से पता चला कि सौमित्र सेन और दिनाकरन रिटायरमेंट के बाद की सारी सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं। यह विशेषाधिकार सिर्फ जजों को ही हासिल है कि उन पर राज्यसभा में कमेटी गठित हो जो भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए। महाभियोग से पहले जज इस्तीफ़ा दे दे। फिर न कोई जाँच न कोई सजा और रिटायरमेंट के बाद की सारी सुविधाएं उसे प्राप्त।

न्यायपालिका में तमाम खामियां हैं इसके बावजूद जस्टिस करणन की सनक का समर्थन नहीं किया जा सकता। विधायिका का चरित्र जनविरोधी है, वहीँ व्यवस्थापिका का चरित्र जनविरोधी के साथ दमनकारी भी है। अंत में लोगों को न्यायपालिका से ही उम्मीद होती है।

बस्तर में हम देख चुके हैं कि आदिवासियों को ही नहीं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक को आए दिन व्यवस्था का उत्पीड़न झेलना पड़ता है। सोनी सौरी के उत्पीड़न की सारी हदें व्यवस्था ने तोड़ दीं। अगर वे आज साँस ले पा रही हैं तो वह न्यायपालिका के कारण। जब दूर तक कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा है ऐसे में न्यायपालिका का सिर्फ तमाशा बनाने की किसी सनक का समर्थन करने से कुछ हासिल नहीं होगा।

जस्टिस करणन मामले का एक खतरनाक पहलू उनके द्वारा अपने आप को अंबेडकर का मानस पुत्र बताने और एससी - एसटी एक्ट की खिल्ली उड़ाने से भी जुड़ा है। अंबेडकर ने वंचितों के सम्मान की लड़ाई लड़ी। उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिलाया। 2011 के सेन्सस के अनुसार 3.96 % दलितों को सरकारी नौकरी में हिस्सेदारी मिली है। यह वर्ग शेष 96 % दलितों के सम्मान व हक़ के बारे में सोचे तो अच्छी बात है।

करणन ने वंचित तबके के हक़ की लड़ाई में क्या योगदान दिया है, यह तो वही जानते होंगे। मोदी को एक सनक भरा पत्र लिखकर वे अपने आप को अंबेडकर का मानसपुत्र समझ रहे हैं तो यह अंबेडकर की भावना की खिल्ली उड़ाना है।

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