मोदी के 'न्यू इंडिया' में श्रीलंकाई हिंदू शरणार्थियों के लिए कोई जगह क्यों नहीं ?

Update: 2019-12-27 09:17 GMT

कुछ समय से सरकारी तौर पर बाहर से आने वालों के लिए अपनी सुविधा के अनुसार दो अलग शब्द प्रयोग किये जा रहे हैं – घुसपैठिया और शरणार्थी। शरणार्थी सरकारी लहजे में वो है जो मुस्लिम ना हो और इसके अतिथि जैसे सत्कार की बात की जा रही है। लेकिन श्रीलंका से आये सभी तो शरणार्थी ही है और हिन्दू भी...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के छुटभैया नेता तक सभी नागरिकता संशोधन क़ानून के फायदे गिनाने में व्यस्त हैं। तीन देशों के अल्पसंख्यकों के मसीहा बन रहे है। अपने नागरिकों की जान लेकर और उन्हें बंद कर बता रहे हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं। गांधी जी को भी इन सबमें घसीट रहे हैं। दूसरी तरफ देश में बसे लगभग एक लाख तमिल शरणार्थियों की चिंता किसी को नहीं है। श्रीलंका में लगभग तीन दशक तक चले गृह युद्ध के बाद ये शरणार्थी 1980 और 1990 के दशक में भारत आये थे। इन लोगों को उम्मीद थी कि नए क़ानून में इन्हें भी नागरिकता के लिए शामिल किया जाएगा। गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वासन भी दिया था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और अब ये सभी शरणार्थी निराश हैं और डरे हुए हैं।

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ये जो अब शरणार्थी हैं, दरअसल इन्हें अंग्रेजों ने वहां चाय बागानों में काम करने के लिए भारत से ही भेजा था। ये लोग वहीं बस गए लेकिन तीन दशक तक चले सिंघली और तमिल लोगों के बीच हिंसक गृह युद्ध के बाद इनका सबकुछ छिन गया और ये शरणार्थी के तौर पर वापस भारत आ गए। इनमें से लगभग 65000 शरणार्थी तमिलनाडु के 107 शरणार्थी शिविरों में रहते हैं। इन्हें तमिलनाडु सरकार की तरफ से मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और थोड़ी आर्थिक मदद मिलती है।

स्त्रियों को 1000 रुपये, पुरुषों को 750 रूपये और बच्चों को 400 रुपये प्रतिमाह दिए जाते हैं। लेकिन इनके पास कोई सरकारी कागज़ नहीं है और ना ही मजदूरी छोड़कर कोई रोजगार के अन्य अवसर। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लगातार पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिन्दुओं की चर्चा करते हैं, लेकिन श्रीलंका के शरणार्थी हिन्दुओं की उन्हें कोई चिंता नहीं है।

Full View शरणार्थी बचपन से भारत में ही रहे हैं, इसी के बारे में जानते हैं और इन शरणार्थी शिविरों में लगभग 25000 बच्चे भी पैदा हुए हैं, जिन्होंने केवल भारत ही देखा है लेकिन दुखद तथ्य यह भी है कि इनके भविष्य के बारे में सरकार चुप है। ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था के दक्षिण एशिया की निदेशक मीनाक्षी गांगुली के अनुसार यह एक गंभीर स्थिति है क्योंकि भारत सरकार इनके बारे में सोचती नहीं। इन्हें डर है कि इन्हें वापस श्रीलंका जाना पड़ेगा जहां इनका सबकुछ छिन गया था और वहां की सरकार ने इनके घर और जमीन को छीन लिया था।

नमें से 65 लोगों ने सम्मिलित तौर पर मद्रास हाईकोर्ट के मदुरै बेंच में भारत की नागरिकता के लिए याचिका दायर किया है, पर क़ानून के (ना) इन्साफ में तो इनकी अनेक पुश्तें बीत जायेंगींl इस बीच शिवसेना के संजय राउत ने इन शरणार्थियों का मुद्दा उठाया है और इन्हें नागरिकता प्रदान करने की मांग की हैl श्री श्री रविशंकर भी लम्बे समय से यह मांग करते रहे हैं और अब कमला हसन भी इनके समर्थन में उतर गए हैं।

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न शरणार्थियों में दो प्रकार के तमिल हैं – सबसे बड़ी संख्या उनकी है जिन्हें भारत से अंग्रेजों ने चाय बागानों में काम करने के लिए भेजा था। बाकी श्रीलंका के ही मूल निवासी हैं। इनमें अधिकतर लोग हिन्दी हैं और शेष क्रिश्चियन हैं। इन सबके बाद भी भारत सरकार को केवल पड़ोसी मुस्लिम देशों के ही हिन्दुओं की चिंता सता रही है तो सरकार की मंशा पर सवाल उठाना तो लाजिमी है।

Full View समय से सरकारी तौर पर बाहर से आने वालों के लिए अपनी सुविधा के अनुसार दो अलग शब्द प्रयोग किये जा रहे हैं – घुसपैठिया और शरणार्थी। शरणार्थी सरकारी लहजे में वो है जो मुस्लिम ना हो और इसके अतिथि जैसे सत्कार की बात की जा रही है। लेकिन श्रीलंका से आये सभी तो शरणार्थी ही है और हिन्दू भी। इनकी चिंता किसी को नहीं है।

बात-बात पर गांधी जी को याद करने वाले हमारे प्रधानमंत्री इस मामले में भी गांधी जी को याद करते तो अच्छा होता। आठ अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने 'भारत और भारतीयता' पर जो कहा वो सबसे ज़्यादा उल्लेखनीय है - 'हिंदुस्तान हर उस इंसान का है जो यहां पैदा हुआ और यहां पला-बढ़ा। जिसके पास कोई देश नहीं, जो किसी देश को अपना नहीं कह सकता उसका भी।'

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