मोदी राज में हिंदू वोटर नफरत का उत्पादन कर रहे हैं जनाब!

Update: 2017-09-07 21:10 GMT

सरकार ने गरीब जनता के जीने के सारे रास्तों पर नाकेबंदी कर दी है! जनता की हालत लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके, करें तो क्या करें भला न जी सकें न मर सकें वाली हो गयी है...

दीप पाठक

उड़ीसा, झारखंड, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र की संसाधन संपन्नता के बाद भी भयंकर तादात में गरीब लोग। ऐसा ही हाल बिहार और यूपी में भी खेतिहर मजदूर ग्रामीणों का भी है। ट्रेन भर-भर कर मजदूरी की तलाश में अन्य राज्यों में इस आबादी का पलायन।

ऐसा लगता है देश के भीतर ही शरणार्थी यहां से वहां भटक रहे हों! नोटबंदी के बाद औद्यौगिक क्षेत्र में सोचनीय गिरावट आयी, शहरी कामगार पर इसकी भारी मार पड़ी, असंगठित क्षेत्र में करोड़ों दिवस का रोजगार टूटा, जिसे संभलने में लंबा समय लगेगा मगर तब तक लाखों जिंदगी पटरी से उतर गयी।

अपने तमाम भुगतान लोगों पर भारी होने लगे हैं। पुराने चुकाये नहीं उस पर नयी परत चढती जा रही है। इसका बहुत बुरा असर निम्न वर्ग के रोजमर्रा के व्यवहार में परिलक्षित होने लगा है। लोगों के व्यवहार उग्र चिड़चिड़ा और मानसिकता क्षुद्र होने लगी है। गरीबी यूं भी बहुत सी अलामात का घर होती है, उस पर बेरोजगारी भी चढ़ जाए तो इंसान हृदयहीन हो जाता है। उसे अपने से ही प्यार नहीं होता तो वो दूसरों के प्रति सहृदय कैसे रहेगा?

रोहिंग्या मुसलमानों जैसा हश्र भारत में इस गरीब आबादी का कभी भी हो सकता है। भाजपा का मिडिल क्लास नौकरीपेशा, व्यापारी, थोड़ा बहुत खेतिहर सवर्ण हिंदू वोटर इस समय लगातार नफरत का उत्पादन कर रहा है। ये नौकरीपेशा है। ठीकठाक आमदनी है, इसलिए इसे लगता है कि देश में भयंकर मारकाट भी हो तो उसका खेत-खलिहान, दुकान, नौकरी पर तो कोई आंच नहीं आयेगी। गरीब मजदूर लोग आपस में कट मरेंगे, इसे नस्लीय हिंसा में बदलकर वो अपना हितसाधन करने की कोशिश कर ही रहे हैं।

रसोई गैस का सिलेंडर अब हजार रुपये के आसपास हो जायेगा, कंट्रोल का सस्ता राशन और सब्सिडी सरकार लगभग खतम कर चुकी है। जलाने के लिए लकड़ी अब वन निगम से खरीदनी पड़ती है। जंगल वन विभाग के कब्जे में है।

देखते देखते सरकार ने गरीब जनता के जीने के सारे रास्तों पर नाकेबंदी कर दी है! जनता की हालत लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके, करें तो क्या करें भला न जी सकें न मर सकें वाली हो गयी है।

निफ्टी-सेंसेक्स, ग्रोथ, जीडीपी, बहुत बड़ी चीज है, उसे करोड़ों की आबादी नहीं समझती, न नोटबंदी समझती है। उसे बस खरीद फरोख़्त के लिए कुछ भी मजूरी-मुद्रा का मापक दे दो, टोकन दो या नोट वो उस पर भरोसा कर चला लेगी, जिंदगी चलती है तो सिक्का भी चलता है। जनता किसी भी नोट सिक्के पर भरोसा न करे तो क्या करे?

रही भारतीय शहरों की बात वहांं भीषण दंगे होते हैं। सभ्य शहरों में पत्रकारों लेखकों की हत्या हो रही है। शहरों में भी ये मत मान के चलो की सब नासा के वैज्ञानिक टाईप के सिटीजन हैं। वहां भी अधिभौतिक अधकचरे सांप्रदायिक अधकपारी लोग हैं। जब शहरों के ये हाल हैं तो गांव देहात के हाल खुद समझ लो। वही हैं जो दिख रहे हैं।

इस देश के भीतर कई बर्मा, सोमालिया हैं और उनका विस्तार हो रहा है। भविष्य बहुत गंभीर संकट की तरफ जा रहा है। नाउम्मीद, हताश भीड़ और बुरे जुल्मी फासिस्ट को ऐसे में मसीहा समझ चुन लेती है कि ये उन पर सख़्ती नाफिज करेगा जो हमारी रोजी रोजगार खा रहा है।

गोर्की के उपन्यास 'मेरे विश्वविद्यालय' का एक पात्र नीकीता रुबत्सोव एक संवाद में कहता है- "कभी यहां वहां कोई लौ जल उठती है तो शैतान उसे फूंक मारकर बुझा देता है, फिर ऊब और निराशा छा जाती है... ये शहर ही अभागा है जब तक स्टीमर चल रहे हैं, मैं यहां से चला जाऊंगा।'

फिर अचानक खोपड़ी खुजाकर कहता है, "लेकिन जाऊंगा कहां? सब जगह तो हो आया! बस यही थकान और निराशा हाथ लगी है, गोली मारो जिंदगी को, जिये काम किया थक गये... न शरीर को कुछ हासिल हुआ न आत्मा को!

(दीप पाठक विभिन्न सामाजिक—राजनीतिक मसलों पर लेखन करते हैं।)

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