सत्ता का दलाल बन चुका परंपरागत दलित नेतृत्व

Update: 2017-07-14 19:11 GMT

देश में जगह-जगह दलितों पर अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इन घटनाओं के खिलाफ कोई भी पार्टी ईमानदारी से संघर्ष नहीं कर रही, बल्कि दलितों को ये सिर्फ यूज कर रहे हैं...

उदय राम

"गाम का नै बंधी कर राखी सै। बाहर खेता मै कोणी जाना। जो शीरी, ब्रसोदिया, किसी नै ठेका मै जमीन ले राखी सै वो जा सके सै और कोई घास आली या और कोई भी खेत में न जा सके सै।"

ये लाइनें किसी फिल्म या नाटक की नहीं, बल्कि हरियाणा के हिसार जिले के भाटला गांव में उच्च कहलाने वाली जातियों का दलित (मजदूर-भूमिहीन) जातियों के खिलाफ फरमान है।

फरमान के अनुसार दलित जातियां उच्च जातियों के खेत में मजदूरी करने, पशुओं के लिए घास लेने नहीं जा सकती, कोई भी स्वर्ण उनसे बात नहीं करेगा, अपनी दुकान से कोई भी सामान उनको नहीं देगा, दूध नहीं देगा। इसको गांव में सामाजिक बंधी बोलते है। ये बड़ी बर्बर और अमानवीय है।

ये सामाजिक बंधी क़ानूनी बैन होने के बावजूद हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में अक्सर लगती रहती है। इस सामाजिक बंधी का शिकार होती हैं भूमिहीन जातियां। इन फरमानों के द्वारा उच्च जातियां सीधा खम ठोककर कहती हैं कि जो दलित है, उनको आज भी 21वीं सदी में, भारत की आजादी के 70 साल बाद भी, समानता का संविधान होने के बावजूद कोई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अधिकार नहीं है।

ये दलित जातियां गुलाम हैं उच्च जातियों की, अगर किसी दलित ने गुलामी की जंजीर तोड़ने का प्रयास किया तो उसको सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सजा दी जायेगी। ये फरमान सीधा-सीधा भारतीय संविधान को ठेंगा है। ये फरमान ऐलान करता है कि इस किताब में चाहे कितनी भी अच्छी तहरीर लिख लो, लेकिन गांव में सत्ता स्वर्ण जातियों की ही रहेगी।

संविधान बराबरी की बात करता है, संविधान भूमि बंटवारे की बात करता है, संविधान लोकतंत्र की बात करता है। लेकिन क्या आज तक हमने होने दिया संविधान को लागू।

केंद्र में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, दलितों के साथ अन्याय होता रहा है। लेकिन 2014 के बाद बनी केंद्र में बीजेपी की सरकार के बाद दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों पर हमलों की बाढ़ सी आ गयी है। ये हमले गांव से लेकर दिल्ली जैसे महानगरों में तक में बढ़े हैं।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या, ऊना में दलितों के साथ गाय के नाम पर बेहरमी से मारपीट हो या बालू, भाटला, पतरहेड़ी, सहारनपुर की दलित उत्पीड़न की घटनाएं हों, आज दलित सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 2016 में दलितों पर हमले के 47000 हजार मामले दर्ज किये गए। रोजाना 2 दलित मारे जाते हैं, 5 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं। 27 घटनाएं दलित उत्पीड़न की हर रोज दर्ज होती हैं। 93 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं।

अभी देश में राष्ट्रपति का चुनाव होना है। सत्ता में विराजमान धुर दलित विरोधी पार्टी ने अपना उमीदवार दलित चेहरे के रूप में रामनाथ कोबिन्द को बनाया है। वही विपक्षी दलों ने भी अपना उमीदवार दलित चेहरे के बराबर में दलित चेहरा मीरा कुमार को बनाया है।

ऐसा लगता है जैसे इन सभी पार्टियों को दलितों से बहुत प्यार है। वही दूसरी तरफ पूरे देश में जगह-जगह दलितों पर अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इन घटनाओं के खिलाफ कोई भी पार्टी ईमानदारी से संघर्ष नहीं कर रही है। इसका मतलब दलितों को ये सिर्फ यूज कर रहे हैं।

वहीं दूसरी तरफ दलित उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले नौजवानों को सरकार देशद्रोह जैसे झूठे मुकदमों में फंसा रही है। सरकार और प्रशासन सवर्णों के साथ मजबूती से खड़ा है, लेकिन वही दूसरी तरफ इन हमलों के खिलाफ दलित प्रतिरोध के रूप में जबरदस्त उभार आया है। नौजवान मजबूती से लड़ रहे हैं।

दलाल बन चुका परंपरागत दलित नेतृत्व को इन आंदोलनों ने बाईपास किया है। मायावती, पासवान, रामदास या कोई और नेताओं की इन आंदोलनों में कोई जगह नहीं बची है। ये सब नेता गाहे-बगाहे संघियों की गोदी में बैठे मिलते हैं।

वर्तमान दलित आंदोलन की बागडोर गांव से लेकर महानगर तक तेज—तर्रार नौजवानों के हाथ में है। इन्हीं आंदोलनों ने जिग्नेश और चंद्रशेखर जैसे युवा और जुझारू नेतृत्व को पैदा किया है। भीम सेना जैसे अपेक्षाकृत उग्र संघर्ष सामने आये हैं।

ऊना के दलित आंदोलन में जमीन की मांग से पूरे देश के दलित आंदोलन में भूमि सुधार की मांग ने दोबारा राष्ट्रीय स्तर पर दस्तक दी है। कृषि भूमि का समान बंटवारा दलितों को मैला ढोने, सीवर सफाई, मरे हुए जानवर उठाने जैसे कामों से मुक्ति दिलाएगी।

लेकिन अभी भी दलित आंदोलन दलित जातियों की एकता न होने के कारण कमजोर है। जिस दलित जाति पर हमला होता है तो दूसरी दलित जातियां आज भी उनके पक्ष में बहुमत में नहीं आ रही हैं। बहुत सी जगह तो दलित जातियां पीड़ित जातियों के खिलाफ सवर्णों के पक्ष में खड़ी मिलती हैं, जो दलित आंदोलन के लिए सबसे खतरनाक है। दलित जातियों के साथ-साथ पिछड़ी जातियों में एकता बनाये बिना दलित आंदोलन को कामयाब नहीं किया जा सकता।

दलित आंदोलन में आज सबसे जरूरी है कि सामाजिक मुद्दे के साथ आर्थिक मुद्दे भी उठाए जायें। आर्थिक मुद्दे 90 फीसदी दलित जातियां जो मजदूर है, के समान हैं। आर्थिक मुद्दे जैसे भूमि का बंटवारा, खेत मजदूर के लिए कानून बनाने की मांग, श्रम कानून लागू करवाना, आरक्षण को लागू करवाना जैसी मांगों से दलित जातियां एकता की तरफ बढ़ेंगी।

दलित जातियों को राजनीतिक तौर पर भी सचेत करने की जरूरत है। परम्परागत दलित नेताओं ने दलितों को सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए वोट के रूप में इस्तेमाल किया है। दलित जातियों में विभाजन का कारण भी ये दलित नेता हैं। जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कभी भी दलित जातियों की एकजुटता नहीं होने दी।

दलित की लड़ाई सिर्फ दलित लड़ेगा, जाति की लड़ाई सिर्फ उस जाति वाला और फिर गोत्र तक इन्होंने ऐसा बोलकर बाँटने का काम किया है। आज प्रगतिशील, बुद्विजीवियों, नौजवानों, किसान, मजदूर जो सवर्ण जातियों से आते हैं और दलित आंदोलन के साथ खड़े हैं, उनको साथ लेकर चलने की जरूरत है।

दलित नेता आज भी इस नए उठ रहे दलित आंदोलन को जिसमें दलितों की एकता बनने के आसार हैं, उनको तोड़ने के काम में लगे हुए हैं। इसलिए दलितों को राजनीतिक तौर पर जागरूक होने की भी बहुत जरूरत है। आज डॉ भीमराव अम्बेडकर का नारा 'मिल मजदूर की और जमीन जोतने वाले की' को साकार करने के लिए लड़ना होगा।

देश-विदेश में चल रहे जल-जंगल-जमीन बचाओ आंदोलनों के प्रति भी दलितो को एकजुटता दिखानी जरूरी है। आने वाले समय में ये पीड़ित आवाम एकजुट होकर उत्पीड़न के खिलाफ मजबूत लड़ाई लड़ेगा।

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