दलित युवाओ पहले 'आर्थिक-धार्मिक असहयोग आंदोलन' तो छेड़ो, फिर देखना कैसे आएगा बदलाव

Update: 2018-05-30 12:56 GMT

त्योहारों और कर्मकांडों से जिन वर्णों की अर्थव्यवस्था चलती है उस पर चोट कीजिये। जिन वर्णों के लोग इन मंडियों, बैंकों, उद्योगों इत्यादि पर बैठे हुये हैं उनके त्योहारों, कर्मकांडों और धर्म के साथ पूरा असहयोग कीजिये, फिंर देखिये क्या होता है...

युवा समाजशास्त्री संजय जोठे का विश्लेषण

भारत के किसान और मजदूर 95% ओबीसी, दलित और आदिवासी हैं, अर्थात ये बहुजन हैं। ये बेहद गरीबी और अपमान में जी रहे हैं ये ही आत्महत्या कर रहे हैं।

ये बेचारे हजार तरह से अपनी आवाज ऊपर तक पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता। आप राजनीतिक बदलाव ले आइये, नेता, मंत्री, अधिकारी कम्पनियां सब बदल दीजिये लेकिन इससे रत्ती भर भी बदलाव नहीं होता। बदलाव इसलिए नहीं होता कि राजनीति बदलने से वर्ण माफिया नहीं बदलता।

मंदिरों, कर्मकांडों से लेकर न्यायपालिका तक एक वर्ण का वर्चस्व है, वहीं गली नुक्कड़ की किराने की दुकान से लेकर अनाज मंडियों और उद्योगों, बैंकों में दूसरे वर्ण का वर्चस्व है।

ये वर्चस्व राजनीति बदलने से नहीं टूटेगा। राजनीति बदलकर संपूर्ण बदलाव की जो बात कर रहे हैं वे असल मे धूर्त लोग हैं। वे आपको और इन करोड़ों गरीबों को मूर्ख बना रहे हैं। असल बदलाव इस वर्ण माफिया को तोड़ने से होगा। और ये टूटेगा वर्तमान धर्म को आधार देने वाले आर्थिक ढांचे को तोड़ने से। ये वर्ण माफिया टूटेगा वर्तमान धर्म से असहयोग करने से।

अगर बहुजन मिलकर निर्णय कर लें कि जब तक उनके गांव में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और बिजली इत्यादि नहीं पहुंचेगी तब तक वे सब तरह के त्योहारों का बहिष्कार करेंगे, तब देखिये क्या होता है।

त्योहारों और कर्मकांडों से जिन वर्णों की अर्थव्यवस्था चलती है उस पर चोट कीजिये। जिन वर्णों के लोग इन मंडियों, बैंकों, उद्योगों इत्यादि पर बैठे हुये हैं उनके त्योहारों, कर्मकांडों और धर्म के साथ पूरा असहयोग कीजिये, फिंर देखिये क्या होता है।

भारत के बहुजनों को दो आंदोलन छेड़ने चाहिये, पहला "आर्थिक असहयोग आंदोलन", दूसरा "धार्मिक असहयोग आंदोलन"

शोषक वर्णों और जातियों से आर्थिक लेन देन कम करते जाइये और बहुजन जातियों के युवकों को स्वरोजगार और व्यापार में खुलकर मदद कीजिये। ओबीसी, दलित, अदिवासियों और अल्पसंख्यको के करोड़ों युवकों को खुद बहुजनों की छोटी सी मदद से बहुत लाभ होगा।

दूसरा ये कि शोषक वर्णों और जातियों के त्योहारों, कर्मकांडों, धर्मस्थलों का बहिष्कार शुरू कीजिए। बहुजनों की अपनी समृद्ध परम्पराएं हैं। उन्हें फिर से जिंदा कीजिये। अपने त्योहारों से जुड़ी अर्थव्यवस्था को बहुजनों को खुद कंट्रोल करने का निर्णय लेना चाहिए। जब तक फसलों, सब्जियों दूध के ठीक दाम न मिलें तब तक मुख्य व्यापारी और राजनेता जिन वर्णों से आते हैं उन वर्णों के त्योहार और धर्मस्थलों को अपने जीवन से बाहर निकाल दीजिये।

ये दो सूत्र अगर बहुजनों के युवा अपना लें तो इस देश में बहुत कुछ बदल जायेगा। ये निश्चित ही बहुत कठिन है लेकिन भारत में वर्ण माफिया को तोड़ने का और कोई उपाय भी नहीं है।

धर्म परिवर्तन भी कुछ विशेष काम नहीं कर सकता। एक सीमा के बाद शोषक जातियों के लोग नये धर्मों में भी घुस जाते हैं। भारत में आये सभी धर्मों को देख लीजिए उनमें भी जाति व्यवस्था घुस गई है।

समाधान पूर्णतया धर्म परिवर्तन में नहीं है बल्कि धर्म को राजनीति और अर्थव्यवस्था बदलने के उपकरण की तरह इस्तेमाल करने में है। अभी बहुजन हर चुनाव में वोट देकर या न देकर सरकार बनाने या गिराने की धमकी देते आये हैं। वे चुनावी राजनीति में वोट को इस्तेमाल करते आये हैं।

ये रणनीति अब फेल हो गयी है। अब हर पार्टी में शोषक जातियों के लोग बैठ गए हैं। कोई भी पार्टी जीते अनाज मंडियों में और न्यायपालिका में उन्ही जातियों वर्णों के लोग फिंर से बैठ जाएंगे। ये रणनीति फेल हो गयी है, अब बहुजनों को और सभी शोषित जातियों को शोषक जातियों से क्रमिक असहयोग आरंभ करना चाहिये।

अगर शोषक जातियां ऊपर के स्तर पर धर्मसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता में बहुजनों को घुसने नहीं देती हैं तो बहुजन जातियों को भी जवाब में जमीन पर गली मोहल्ले में इन शोषक जातियों के त्योहारों, धर्मस्थलों और दुकानों का बहिष्कार शुरू कर देना चाहिए।

एक अर्थ में ये बहुत आसान काम भी है। गांव, गली मोहल्ले में बहुजन युवा इकट्ठे हों और छोटी छोटी टोलियां बनाकर गरीब, मजदूर किसान परिवारों के युवाओं को थोड़ा सा समझाएं और तय कर लें कि जब तक पंचायत या ग्राम स्तर का प्रशासन उनके काम नहीं करता तब तक ये दो तरह के असहयोग और बहिष्कार जारी रखे जाएं।

ये दो तरीके ऊपर से सरल लगते हैं, लेकिन इनमे भयानक शक्ति है। इन्हें आजमाकर देखना चाहिए। जो मित्र इसे आगे बढाना चाहें उनकी मदद के लिए मैं तैयार हूँ। गांव, गली, मोहल्ले से लेकर कस्बों शहरों में इसे एक व्यवस्थित प्रोजेक्ट की तरह लिया जा सकता है।

बस जरूरत है तो समर्पित और सुलझे हुए युवाओं की। ऐसे युवा तैयार हों तो बहुत बड़ा बदलाव संभव है।

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