केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की हालत पिंजरे के तोते से भी बदतर

Update: 2019-08-02 12:33 GMT

खेतों में पराली जलती है कुछ दिन, पर सरकारों और मीडिया के लिए यह अगले चार महीने तक बना रहता है प्रदूषण का कारण (file photo)

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तो पिंजरे के तोते से भी बदतर संस्थान हो गया है। इसका काम पर्यावरण मंत्रालय को खुश रखना है और पर्यावरण मंत्रालय प्रधानमंत्री को खुश रखता है – ऐसे में पर्यावरण कहाँ है यह बता पाना असंभव...

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

मेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बहुत सारे मामलों में प्रधानमंत्री मोदी की तरह ही हैं। अभी हाल में ही कश्मीर पर ट्रंप के बयान पर दुनिया भर में चर्चा की गयी और सबने ट्रंप को झूठा करार दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि उन्होंने प्रधानमंत्री का नाम लिया था, पर प्रधानमंत्री जी ने अभी तक एक भी वाक्य इस बारे में नहीं कहा है, फिर समझ नहीं आता तो ट्रंप कैसे झूठे हो गए।

खैर, झूठ बोलने में ही केवल समानता नहीं है, पर्यावरण के बारे में भी ट्रंप और प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड एक जैसा ही है, अंतर केवल इतना है की ट्रंप की पर्यावरण संरक्षण के मामले में दुनिया आलोचना करती है, पर प्रधानमंत्री के पर्यावरण पर असंवेदनशील रवैये के बाद भी दुनिया उन्हें पर्यावरण का हितैषी समझती है।

प्रधानमंत्री जी जब किसी विषय पर बोलते हैं तब इतना तो तय है कि उस विषय और सन्दर्भ में कुछ गूढ़ रहस्य है, जैसे एकाएक देश में बाघों की संख्या बहुत बढ़ गयी, जबकि लगभग सभी बाघ अभयारण्य तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की चपेट में हैं। गंगा के बारे में तो सभी जानते ही हैं। जब देश पुलवामा का दंश झेल रहा था, तब प्रधानमंत्री जी वन्यप्राणियों के बारे में नाव पर बैठकर कैमरे के सामने चर्चा कर रहे थे।

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका में पर्यावरण से सम्बंधित 83 नियम बदले जा चुके हैं और कुछ पर्यावरण नियमों को पूरी तरह निरस्त कर दिया गया है। ट्रंप लगातार बताते हैं कि अमेरिका की हवा और पानी दुनिया में सबसे साफ़ है, जबकि ओजोन के सन्दर्भ में अमेरिका दुनिया में 37वें स्थान पर है।

ट्रंप के शासन के 2 वर्षों में जितने प्रदूषित दिन अमेरिकी शहरों ने देखें हैं, उतने बराक ओबामा के पूरे शासनकाल में नहीं थे। ट्रंप ने दलदली भूमि और नदियों से सम्बंधित नियमों में बदलाव कर इन्हें संरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया। बराक ओबामा के समय के क्लीन पॉवर प्लान को बदल कर नया प्लान लागू किया, जिससे सम्भावना है की अमेरिका में प्रतिवर्ष वायु प्रदूषण से 1400 अधिक असामयिक मौतें होंगी।

ट्रंप ने सागर तटों पर पेट्रोलियम पदार्थों की खोज को भी मान्य कर दिया और अब ऐसा क़ानून लाने जा रहे हैं जिससे इसका विरोध करने वाले उग्रवादी करार दिए जायेंगे। ट्रंप जलवायु परिवर्तन के विरोधी हैं और पेरिस समझौते से अपने को अलग करने के प्रयास में हैं, ऐसा होने के बाद दुनिया के केवल तीन देश, अमेरिका, सीरिया और निकारागुआ ही इस समझौते का हिस्सा नहीं होंगे। इन सबके बाद भी ट्रंप पर्यावरण पर लम्बे भाषण देते रहते हैं।

पिछले पांच वर्षों में अपने देश में पर्यावरण से सम्बंधित लगभग सभी कानूनों को इज ऑफ़ डूइंग बिज़नैस और विदेशी निवेश के नाम पर बदल डाला गया। आज के समय सभी क़ानून पर्यावरण का विनाश करते हैं, क्योंकि अब इनका मकसद उद्योगों को लाभ पहुंचाना है। हालत यहाँ तक पहुँच गयी है कि अब प्रधानमंत्री निर्देश देते हैं और फिर पर्यावरण मंत्रालय उस निर्देश के अनुसार सम्बंधित क़ानून को लचीला कर देता है। पिछले वर्ष दीवाली के ठीक पहले उद्योगों के एक सम्मलेन में प्रधानमंत्री ने ऐसे ही लचीले कानूनों को दीवाली का तोहफा बताया था, मगर इस पर न्यायालय ने रोक लगा दी।

पिछले पांच वर्षों में हम पर्यावरण संरक्षण में क्या कर रहे हैं, इसे जानने के लिए पर्यावरण इंडेक्स में भारत कहाँ है, यह जान लेना ही काफी है। वर्ष 2014 में हम इस इंडेक्स में 155वें स्थान पर थे, जबकि वर्ष 2018 में कुल 180 देशों में हम 177वें स्थान पर लुढ़क गए। यही आंकड़ा काफी नहीं है, वर्ष 2018 में पर्यावरण संरक्षण के दौरान मारे गए लोगों की सूची में हम तीसरे स्थान पर है।

र्यावरण स्वीकृति तो अब महज एक दिखावा रह गया है, इससे पर्यावरण गायब हो गया है। नेशनल बोर्ड ऑफ़ वाइल्डलाइफ में 15 सदस्यों के स्थान पर महज तीन सरकारी सदस्य रह गए हैं और अब इसकी स्वीकृति बिना रोकटोक के सभी परियोजनाओं को आसानी से मिल जाती है, फिर भी आश्चर्य है कि देश में बाघों की संख्या बढ़ रही है।

राष्ट्रीय हरित न्यायालय भी अब सरकारी इशारे पर ही फैसला देता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्टरलाईट कॉपर का मामला था। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तो पिंजरे के तोते से भी बदतर संस्थान हो गया है। इसका काम पर्यावरण मंत्रालय को खुश रखना है और पर्यावरण मंत्रालय प्रधानमंत्री को खुश रखता है – ऐसे में पर्यावरण कहाँ है यह बता पाना असंभव है।

समें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जनता के लगातार विरोध के बाद भी मुंबई के मैन्ग्रोव वन और हरयाणा में अरावली का पूरा क्षेत्र नष्ट किया जा रहा है। बनारस में गंगा नदी में स्थित कछुआ अभयारण्य बंद करने की तैयारी चल रही है, मध्य प्रदेश में केन और बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना में पन्ना टाइगर रिज़र्व का 4000 हेक्टेयर क्षेत्र बर्बाद किया जा रहा है।

मुंबई में 53000 मंग्रोव के वृक्ष बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए काटे जा रहे हैं। उत्तराखंड में चारधाम रोड के लिए 25000 पेड़ काटे जा रहे हैं और छतीसगढ़ में कोयला खनन के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। इन सबके बाद भी प्रधानमंत्री जी पर्यावरण के मसीहा माने जाते हैं।

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