गांधी और सावरकर में उतना ही अंतर जितना मनु और तुलसीदास में

Update: 2018-05-29 11:17 GMT

पढ़िए क्यों लिख रहे हैं सिद्धार्थ कि सावरकर हिंदू धर्म के घृणित और बदतर पक्ष में खड़े थे और गांधी उसके महान एवं उदात्त पक्ष के हिमायती...

जो लोग गांधी को महात्मा, राष्ट्रपिता या बीसवीं शताब्दी का महान व्यक्तित्व मानते हैं, उन्हें इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि डॉ. आंबेडकर गांधी और सावरकर दोनों व्यक्तित्वों को मूलत: एक ही श्रेणी में रखते हैं। क्योंकि दोनों हिंदुत्व को एक महान दर्शन और धर्म मानते हैं।

सावरकर हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा और गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। हिंदू महासभा और कांग्रेस की तुलना करते हुए आंबेडकर ने पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन नामक अपनी किताब में दो टूक शब्दों में कहा, “यह कहने का कोई लाभ नहीं है कि कांग्रेस हिंदू संगठन नहीं है। यह एक ऐसा संगठन है, जो अपने गठन में हिंदू ही है, वह हिंदू मानस की ही अभिव्यक्ति करेगा और हिंदू आकांक्षाओं का ही समर्थन करेगा। कांग्रेस और हिंदू महासभा में बस इतना ही अंतर है कि जहां हिंदू महासभा अपने कथनों में अधिक अभद्र है और अपने कृत्यों में भी कठोर है, वहीं कांग्रेस नीति-निपुण और शिष्ट है। इस तथ्यगत अंतर के अलावा कांग्रेस और हिंदू महासभा के बीच कोई अंतर नहीं है”।

आखिर आंबेडकर ऐसा क्यों कर रहे हैं? भारत के किसी व्यक्तित्व और संगठन के आकलन का उनका पैमाना सिर्फ एक ही था, वह यह की कोई व्यक्ति या संगठन हिंदू धर्म और उसके द्वारा पोषित वर्ण-जाति की व्यवस्था के प्रति क्या रुख रहता है।

यदि कोई व्यक्ति या संगठन हिदू धर्म के पक्ष में खड़ा, इसका सीधा अर्थ है कि वह जाति के पक्ष और स्त्री अधीनता के पक्ष में खड़ा है,क्योंकि उनका मानना था कि जाति हिंदू धर्म का प्राण है और जाति का प्राण सजातीय विवाह है। हम सभी जानते हैं कि आंबेडकर वर्ण-जाति व्यवस्था को इस देश के पतन और बहुसंख्यक लोगों के आमानवीय जीवन का कारण मानते थे। इस बात को उन्होंने अपनी किताब जाति का विनाश में विस्तार से रखा है।

गांधी आजीवन हिंदू धर्म के पक्ष में खड़े रहे, जिसका परिणाम था कि जीवन के अंतिम समय तक भी वर्ण व्यवस्था को महान व्यवस्था ठहराते रहे, भले ही अंतिम दिनों में जाति व्यवस्था के विरोध में कुछ बोलने लगे हों। आंबेडकर ने गांधी से कहा कि यदि आप वर्ण व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं तो आप जाति के पक्ष में भी खड़े हैं।

हिंदू धर्म वर्ण व्यवस्था और जाति के संबंध में गांधी और आंबेडकर के बीच की बहस को समझने के लिए जाति के विनाश किताब में संकलित दोनों लोगों के पत्रों को जरूर पढ़ना चाहिए। तो क्या वास्तव में सावरकर और गांधी को एक साथ खड़ा किया जा सकता है क्या दोनों में कोई अंतर नहीं?

सावरकर, गांधी और आंबेडकर तीनों ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके पास एक निश्चित दर्शन और विचार है और उसे लागू करने की प्रणाली है। सावरकर और गांधी का दर्शन एक है, दोनों हिंदू धर्म दर्शन से अनुप्राणित है। जहां सावरकर हिंदू के कट्टर रूप को हिमायती हैं, वहीं गांधी हिंदू धर्म के नरम और मानवीय रूप के हिमायती हैं। सावरकर हिंदू धर्म की व्याख्या के माध्यम से मुसलमानों के प्रति घृणा का प्रचार करते हैं, वहीं गांधी राम-रहीम के माध्यम से प्रेम की बात करते हैं।

बहुत सारे लोग यह कह सकते हैं कि सावरकर हिंदू धर्म के घृणित और बदतर पक्ष में खड़े थे और गांधी उसके महान एवं उदात्त पक्ष के हिमायती थे। इसके बरक्स आंबेडकर हिंदू धर्म को एक मानते थे और यहां तक कहते थे कि कट्टर हिंदुत्व और हिंदुओं की तुलना में नरम हिदुत्व और हिंदु ज्यादा खतरनाक हैं। क्योंकि जब-जब हिंदू धर्म को निर्णायक चुनौती मिली, नरम हिंदू धर्म के नायकों ने हिंदू धर्म की रक्षा की और हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर वर्ण-जाति व्यवस्था की रक्षा की।

आधुनिक युग में गांधी हिंदू धर्म के सबसे बड़े रक्षक के रूप में सामने आये। जो काम कभी मनु, कभी शंकराचार्य, कभी तुलसीदास ने किया, वही काम आधुनिक युग में गांधी ने किया। गांधी और सावरकर में उतना ही अंतर है जितना मनु और तुलसीदास में।

जैसे तुलसी की रामचरित मानस मनुस्मृति का काव्यात्म एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है, उसी प्रकार आधुनिक युग में गांधी ने हिंदू धर्म को काव्यात्मक भाषा और कलात्मक अभिव्यक्ति दी और उसकी रक्षा की।

इसे आज के संदर्भ में समझना चाहें तो, कह सकते हैं कि जैसे कांग्रेस देश का कॉरपोरेटीकरण मानवीय चेहरा लगाकर करना चाहती है और भाजपा खुलेआम या कांग्रेस हिदुत्व को नरम तरीके से लागू करना चाहती है और भाजपा कट्टर तरीके से।

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