पूरी दुनिया में महिला सशक्तीकरण का बस नाटक किया जा रहा है, नाटक में दृश्य हम कुछ और देख रहे हैं और नेपथ्य में कुछ और चल रहा है। प्रधानमंत्री मोदी तो खुद को महिला सशक्तीकरण का मसीहा समझते हैं, पर क्या वे इन आंकड़ों से वाकिफ नहीं हैं...
महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक
संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फण्ड की रिपोर्ट द स्टेट ऑफ़ वर्ल्ड पापुलेशन 2017 के अनुसार वर्ष 2017 के दौरान पुरुषों की तुलना में दुनियाभर में महिलाओं की आय 23 प्रतिशत कम थी और इस अंतर को भरने में अभी 70 वर्ष और लगेंगे। रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में कोई ऐसा देश नहीं है, जहां यह अंतर नहीं है।
वर्ष 2015 में दुनिया की कुल महिलाओं में से 50 प्रतिशत और पुरुषों की कुल संख्या में से 76 प्रतिशत रोजगार से जुड़े थे। रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की बुरी हालत के कारणों में से अपेक्षाकृत कम शिक्षा सबसे बड़ा कारण है। इसके बाद प्रमुख कारण यह है कि दुनियाभर में प्रबंधन की ऊंची पायदान में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। रिपोर्ट में कुल 126 देशों का अध्ययन कर बताया गया है कि केवल तीन देश – कोलंबिया, जमैका और सैंट लूसिया – ऐसे हैं जहां प्रबंधन के उच्च स्तर पर महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत या अधिक है।
रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में लगभग 48 करोड़ महिलायें अशिक्षित हैं जबकि महज 28 करोड़ पुरुष अशिक्षित हैं। अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित की तुलना में 42 प्रतिशत तक कम कमा पाता है। शिक्षित महिलाओं में भी विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण करने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है, इसलिए बहुत सारे नौकरियों के योग्य इन्हें नहीं माना जाता।
दुनियाभर में 5 में से 3 महिलाओं को मातृत्व अवकाश भी नहीं मिलता, इसलिए ऐसे समय इन्हें या तो नौकरी छोड़नी पड़ती है या फिर बिना वेतन के अवकाश लेना पड़ता है। महिलाओं के नौकरी नहीं कर पाने में बाल विवाह, जल्दी बच्चे होना और गर्भधारण पर अपने अधिकार नहीं होना भी शामिल है।
काम करने वाली अधिकतर महिलायें घर की पूरी जिम्मेदारी भी निभाती हैं। अनुमान है कि दुनियाभर में महिलायें पुरुषों की तुलना में घर के काम 2.5 गुना अधिक करती हैं, पर इस काम के लिए उन्हें कई वेतन नहीं मिलता। इसके बाद भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान 25 से 54 वर्ष के बीच की महिलायें अधिक काम कर रहीं हैं। दुनियाभर में घरेलू हिंसा का बोलबाला है, जिसमें महिलायें शिकार होती हैं। विश्व बैंक के अनुसार 173 देशों में एक सर्वेक्षण के बाद यह पता चला कि इनमें से 46 देशों में घरेलू हिंसा रोकने के लिए कोई क़ानून ही नहीं है।
दिसम्बर 2018 में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि विश्व में वेतन के सन्दर्भ में लैंगिक समानता आने में अभी 202 वर्ष और लगेंगे क्योंकि यह अंतर बहुत बड़ा है और इसे भरने के लिए बहुत धीमी गति से उपाय किये जा रहे हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष लैंगिक समानता के सन्दर्भ में कुछ तेजी आयी है, पर अब महिला कर्मियों की संख्या घट रही है।
इस रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों के वेतन की तुलना में महिलाओं का वेतन 63 प्रतिशत ही रहता है और कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर नहीं हो। येमन, सीरिया और इराक जैसे देशों में तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में महिलाओं को महज 30 प्रतिशत ही वेतन दिया जाता है, जबकि छोटे से देश लाओस में यह अंतर सबसे कम है।
इस सन्दर्भ में कुल 149 देशों की सूची में भारत का स्थान 108वां है। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में बड़े पदों में से महज 34 प्रतिशत पदों पर महिलायें हैं। राजनीति में भी महिलायें पिछड़ी हैं और इस सन्दर्भ में पुरुषों के साथ समान स्तर पर महिलाओं को आने में अभी 107 वर्ष और लगेंगे।
इस रिपोर्ट के लिए जिन 149 देशों का अध्ययन किया गया था उनमें से मात्र 17 में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति महिलायें थीं, सभी मंत्रियों में से 18 प्रतिशत महिलायें थीं और 24 प्रतिशत संसद सदस्य महिलायें थीं। दुनिया में केवल आइसलैंड, निकारागुआ, नोर्वे, रवांडा, बांग्लादेश, फ़िनलैंड और स्वीडन ऐसे देश हैं जहां राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 50 प्रतिशत या अधिक है।
प्यू रिसर्च सेंटर की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में महिलाओं और पुरुषों के वेतन में असमानता 1980 के बाद से कम हो गयी है, पर पिछले 15 वर्षों के दौरान इसमें अधिक अंतर नहीं आया है। वर्ष 2018 में अमेरिका में महिलाओं का वेतन पुरुषों की तुलना में 85 प्रतिशत ही था। इसका सीधा सा मतलब है कि यदि महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन पाना है, तब उन्हें साल में पुरुषों की तुलना में 39 दिन अधिक काम करना पड़ेगा।
इससे पहले वर्ष 2017 के दौरान अमेरिका के सेन्सस ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम वेतन मिलता था, पर 25 से 34 वर्ष के आयुवर्ग में यह अंतर केवल 11 प्रतिशत ही था।पिछले वर्ष मोंस्टर सैलरी इंडेक्स सर्वे के अनुसार भारत में आय के सन्दर्भ में लैंगिक असमानता सबसे अधिक है।
वर्ष 2017 में भारतीय महिलायें पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम वेतन पाती थीं, जबकि वर्ष 2018 में यह स्थिति थोड़ी सुधरकर 19 प्रतिशत तक पहुँच गयी। पुरुषों को औसतन प्रति घंटे की दर से 242.49 रुपये मिलते हैं जबकि महिलाओं को मात्र 196.3 रुपये मिलते हैं।
चौंकाने वाल तथ्य यह है कि अधिक शिक्षा और काम करने की दक्षता के साथ साथ यह अंतर और बढ़ता जाता है। सर्वाधिक दक्ष कामगारों में महिलायें 30 प्रतिशत तक कमा पाती हैं, जबकि दक्ष महिलायें 20 प्रतिशत कम कमाती हैं। अर्ध-दक्ष श्रेणी में यह अंतर और कम हो जाता है। एक सर्वेक्षण के दौरान 60 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उनके साथ कार्य स्थल पर लैंगिक भेदभाव किया जाता है, जबकि 33 प्रतिशत महिलाओं का मानना था कि उन्हें कभी उच्च पदों के योग्य नहीं माना जाता।
वर्ष 2018 के अंत में इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन ने कुल 73 देशों में आय के सन्दर्भ में लैंगिक असमानता का अध्ययन कर बताया था कि भारत में यह असमानता सबसे अधिक है। इस रिपोर्ट का नाम था, ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2018-2019 और इसमें प्रति घंटे की आय को आधार बनाया गया था। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जहां यह असमानता 16 प्रतिशत है, वहीं भारत में यह असमानता 34 प्रतिशत है। यहाँ तक कि मासिक वेतन के सन्दर्भ में यह असमानता 22 प्रतिशत है। यह असमानता पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी अधिक है।
भारत सरकार के स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन मंत्रालय की रिपोर्ट, मेन एंड वीमेन इन 2017, के अनुसार भी समान शिक्षा और समान दक्षता के बाद भी भारत में महिलाओं को कम वेतन मिलता है। शहरों में यह असमानता 30 प्रतिशत तक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाओं को 45 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। यदि पुरुष और महिला दोनों स्नातक हैं तब भी वेतन में यह अंतर 24 प्रतिशत से अधिक रहता है।
इन सब आंकड़ों से तो यही लगता है कि पूरी दुनिया में महिला सशक्तीकरण का बस नाटक किया जा रहा है, नाटक में दृश्य हम कुछ और देख रहे हैं और नेपथ्य में कुछ और चल रहा है। प्रधानमंत्री जी तो स्वयं को महिला सशक्तीकरण का मसीहा समझते हैं, पर क्या वे इन आंकड़ों से वाकिफ नहीं हैं?