कट्टर महिला विरोधी हिंदू धर्मग्रंथ और महाकाव्य हैं संघियों—भाजपाइयों के आदर्श और पूजनीय

Update: 2018-05-26 13:43 GMT

ज्यादातर हिंदू धर्मग्रंथ स्त्री स्वतंत्रता के विरोधी, कहते हैं स्त्री सपने में भी परपुरुष का विचार न करे, मगर पुरुष चाहे कितना भी बड़ा लंपट—चरित्रहीन क्यों न हो उसे देवता की तरह पूजना औरत का परम कर्तव्य...

हिंदू धर्मग्रंथ किस तरह हैं महिला विरोधी, पढ़िए सिद्धार्थ का विश्लेषण

हिंदूवादी विचारधारा तमाम शास्त्रों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता और वेदों व उनसे जुड़ी कथाओं, उपकथाओं, अन्तर्कथाओं और मिथकों तक फैली हुई है। इन सभी का एक स्वर में कहना है कि स्त्री को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य-स्मृति जैसे धर्मग्रंथों ने बार-बार यही दुहराया है कि ‘स्त्री आजादी से वंचित’ है अथवा ‘स्वतंत्रता के लिए अपात्र’ है। मनुस्मृति का स्पष्ट कहना है कि- पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षित यौवने।/ रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।। (मनुस्मृति 9.3)

(स्त्री जब कुमारिका होती है, पिता उसकी रक्षा करते हैं, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में स्त्री की रक्षा पति करता है, तात्पर्य यह है कि आयु के किसी भी पड़ाव पर स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है)। बात मनु स्मृति तक सीमित नहीं है। हिंदुओं के आदर्श महाकाव्य रामचरित मानस के रचयिता महाकवि तुलसीदास की दो टूक घोषणा है कि स्वतंत्र होते ही स्त्री बिगड़ जाती है- ‘महाबृष्टि चलि फूटि किआरी, जिमी सुतंत्र भए बिगरहिं नारी’

महाभारत में कहा गया है कि ‘पति चाहे बूढ़़ा, बदसूरत, अमीर या गरीब हो, लेकिन स्त्री की दृष्टि से वह उत्तम भूषण होता है। गरीब, कुरूप, नियाहत बेबकूफ, कोढ़ी जैसे पति की सेवा करने वाली स्त्री अक्षय लोक को प्राप्त करती है।'

मनुस्मृति का कहना है कि ‘पति चरित्रहीन, लंपट, निर्गुणी क्यों न हो साध्वी स्त्री देवता की तरह उसकी सेवा करे।’ वाल्मीकि रामायण में भी इस आशय का उल्लेख है।

पराशर स्मृति में कहा गया है, ‘गरीब, बीमार और मूर्ख पति की जो पत्नी सम्मान कायम नहीं रख सकती, वह मरणोपरांत सर्पिणी बनकर बारम्बार विधवा होती है।’ हिंदू धर्मग्रंथ और महाकाव्य ब्यौरे के साथ छोटे से छोटे कर्तव्यों की चर्चा करते हैं। इसमें खुलकर हँसने की भी मनाही शामिल है। तुलसीदास रामचरितमानस में स्त्री के कर्तव्यों की पूरी सूची पेश करते हैं। यहां तक की पतिव्रता और अधम नारियों का पूरा ब्यौरा प्रस्तुत करते हैं। तुलसीदास इसी पैमाने पर कुछ स्त्रियों को आदर्श और कुछ को राक्षसी ठहराते हैं-

जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं, वेद पुरान संत सब कहहीं ।
उत्तम के अस बस मन माहीं, सपेनहुं आन पुरूष जह नाहीं ।
मध्यम पर पति देखे कैसें, भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई, सो निकृष्ट तिय स्रुति अस कहईं।
बिनु अवसर भय ते रह जोई, जानहू अधम नारि जग सोई।
पतिबंचक पर पति रति करई, रौरव नरक कलप सत परई। (रामचरितमानस, अरण्य, 5/11-16)

तुलसीदास अनसुइया के उपदेश के माध्यम से स्त्री चरित्र और उसके कर्तव्य को एक पंक्ति में इस प्रकार प्रकट करते हैं- ‘सहज अपावनि नारी पति सेवत सुभ गति लहै’ (स्त्री स्वभाव से ही अपवित्र है। पति की सेवा करने से ही उसे सदगति प्राप्त होती है)

हिंदुओं का सबसे लोकप्रिय महाकाव्य ऐसी स्त्री को ही सच्ची पतिव्रता मानता है, जो सपने में भी किसी पुरुष के बारे में न सोचे। इतना ही नहीं तुलसीदास उस युग को कलयुग कहते हैं जिसमें स्त्रियां अपने लिए सुख चाहने लगती हैं और धार्मिक आदेशों की अवहेलना करने लगती हैं- ‘सुख चाहहिं मूढ न धर्म रति’ तुलसीदास द्वारा कलुयग के जो लक्षण बताये गए हैं उनमें अनेक ऐसे हैं जिसमें स्त्रियां अपने लिए पुरूष समाज द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का उल्लंघन कर अपना जीवन जीती हैं।

तुलसीदास की स्त्री द्वेषी दृष्टि पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करने का मुख्य प्रयोजन यह था कि वे न केवल संघ-भाजपा को प्रिय हैं, बल्कि बहुत सारे प्रगतिशील कहे जाने वाले लोगों के भी आदर्श कवि रहे हैं और हैं भी। साथ ही वे हिंदी भाषा-भाषी समाज की मानसिक निर्मित में शामिल हैं। उन्होंने सैकड़ों वर्षों पुरानी हिंदू संस्कृति के स्त्री संबंधी अधिकांश प्रतिगामी और स्त्री-द्वेषी तत्वों को अपने रामचरितमानस में उच्च कलात्मकता और स्त्री के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है।

(सिद्धार्थ फॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)

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