मोदी शासन में भारत बीफ निर्यात में पहले नंबर पर
गाय के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाली सत्तासीन भाजपा यानी मोदी शासन में भारत दुनिया का पांचवे नंबर का मांस निर्यातक देश है, वहीं बीफ निर्यात के मामले में तो हम दुनिया में ब्राजील के साथ पहले स्थान पर हैं, वहीं सबसे ज्यादा बीफ निर्यातक राज्य उत्तर प्रदेश है, जहां के मुखिया योगी आदित्यनाथ गाय के नाम पर किस तरह राजनीति करते हैं यह किसी से छुपा नहीं है...
महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक
आजकल नेताओं का प्रमुख विषय है, मांस खाने के विरुद्ध बोलना। दूसरी तरफ भीड़ की हिंसा में अनेक लोग केवल गाय के मांस के नाम पर मारे जा चुके हैं। सब देखकर सतही तौर पर लगता तो यही है कि केंद्र की यह सरकार मांस के कारोबार के विरुद्ध है।
उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ सरकार के आते ही मांस के अवैध कारोबार को रोकने के नाम पर खूब दादागिरी की गयी, मगर यह सब लोगों का ध्यान भटकाने की महज कोशिश है। तथ्य तो यह है कि भारत दुनिया का पांचवे नंबर का मांस निर्यातक देश है और बीफ निर्यात के मामले में तो हम दुनिया में ब्राजील के साथ पहले स्थान पर हैं।
हमारा देश प्रतिवर्ष 42,50,000 मीट्रिक टन मांस का निर्यात करता है, इस सन्दर्भ में यह दुनिया में पांचवे स्थान पर है। केवल बीफ की बात करें तो यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर की रिपोर्ट के अनुसार हमारा देश प्रतिवर्ष 18,50,000 मीट्रिक टन बीफ का निर्यात करता है और इस सन्दर्भ में हम ब्राजील के साथ पहले स्थान पर हैं। वर्ष 2017 में केवल बीफ का कुल कारोबार 3 अरब डॉलर से अधिक का था।
वर्तमान में केवल चार देश – भारत, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका - ऐसे हैं जो प्रतिवर्ष दस लाख टन से अधिक बीफ का निर्यात करते हैं। प्रतिवर्ष निर्यात की मात्रा क्रमशः 1850000, 1850000, 1385000 और 1120000 मीट्रिक टन है। वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन की फरवरी, 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ने बीफ निर्यात के क्षेत्र में वर्ष 2006 से 2016 के बीच बहुत तरक्की कर ली है। वर्ष 2006 में बीफ के विश्व व्यापार में भारत का योगदान महज 2 प्रतिशत था, जबकि 2016 में भारत 20 प्रतिशत से अधिक का भागीदार हो गया।
यह तो सभी जानते हैं कि अब सभी विकसित देश अपने यहाँ बिगड़ते पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के प्रति सचेत हो रहे है। ऐसे में सबसे अच्छा उपाय है अपने देश में अत्यधिक प्रदूषण या पाने की अत्यधिक खपत वाले उद्योगों को बंद कर देना और विकासशील देशों को ऐसे उद्योग या कारोबार के लिए प्रेरित करना। इसीलिए भारत में इलेक्ट्रोनिक कचरे का, जहाज तोड़ने का या फिर धातुओं को शुद्ध करने का कारोबार पनपता है। मांस का कारोबार भी इसी कड़ी में शामिल है।
वर्तमान में हालत यहां तक पहुंच गयी है कि उद्योगों को सुविधा देने के नाम पर सभी पर्यावरण क़ानून में ऐसे बदलाव कर दिए गए हैं जो केवल उद्योगों को सुविधा देते हैं, पर्यावरण नहीं बचाते।
प्रतिष्ठित जर्नल साइंस के पिछले वर्ष के जुलाई अंक में प्रकाशित एक रिव्यू लेख के अनुसार विश्व में मांस की बढ़ती मांग के कारण पर्यावरण संकट में है, तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन बढ़ रहा है और जैव-विविधता कम हो रही है। विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है और साथ ही औसत वार्षिक आय भी बढ़ रही है, इस कारण मांस का उपभोग भी बढ़ता जा रहा है। लेख के सह-लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टिम के के अनुसार, मांसाहार की वर्तमान दर भी पर्यावरण के लिए घातक है, और भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होंगे।
विश्व के सन्दर्भ में मांस की खपत पिछले 50 वर्षों में लगभग दोगुनी हो चुकी है। वर्ष 1961 में प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 23 किलोग्राम थी जो वर्ष 2014 तक 43 किलोग्राम तक पहुँच गई। इसका सीधा सा मतलब यह है कि मांस की खपत इसी दौरान जनसंख्या वृद्धि की तुलना में 4 से 5 गुना तक बढ़ गई। सबसे अधिक वृद्धि मध्यम आय वर्ग वाले देशों जिनमें चीन और पूर्वी एशिया के देश प्रमुख हैं, में दर्ज की गयी है।
दूसरी तरफ कुछ विकसित देश ऐसे भी हैं जहाँ कुछ वर्ष पहले की तुलना में मांस की खपत कम हो रही है। इंग्लैंड में ऐसा ही हो रहा है। वर्ष 2017 के नेशनल फ़ूड सर्वे के अनुसार वहाँ वर्ष 2012 की तुलना में मांस की खपत में 4.2 प्रतिशत की कमी आ चुकी है, जबकि मांस वाले उत्पादों में 7 प्रतिशत की कमी आई है।
मांस के उत्पादन में अनाजों, सब्जियों और फलों की तुलना में पानी की अधिक खपत होती है, कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक उत्सर्जन होता है तथा पर्यावरण पर अधिक बोझ पड़ता है। मानव की गतिविधियों के कारण तापमान वृद्धि करने वाली जितनी गैसों का उत्सर्जन होता है, उसमें 15 प्रतिशत से अधिक योगदान मवेशियों का है। विश्व स्तर पर पानी की कुल खपत में से 92 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि में किया जाता है, और इसका एक-तिहाई से अधिक मांस उत्पादन में खप जाता है।
वर्ष 2010 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार सब्जियों के उत्पादन में पानी की औसत खपत 322 लीटर प्रति किलोग्राम है, जबकि फलों के लिए यह मात्रा 962 लीटर है। दूसरी तरफ मुर्गी के मांस के लिए 4325 लीटर, सूअर के मांस के लिए 5988 लीटर, बकरे के मांस के लिए 8763 लीटर और गाय के मांस के लिए प्रति किलोग्राम 15415 लीटर पानी की जरूरत होती है।
इतना तो स्पष्ट है कि अधिक पानी की खपत, अधिक जमीन का उपयोग या प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को अब औद्योगिक देश अपने यहाँ से बाहर करते जा रहे हैं, और निर्यात का लालच देकर भारत जैसे देशों को ऐसे ही उद्योगों के लिए बढ़ावा दे रहे हैं।
हमारे देश में पानी की कमी या फिर प्रदूषण को तो सरकार समस्या मानती ही नहीं, इसीलिए ऐसे उद्योग तेजी से सरकारी संरक्षण में पनप रहे हैं। दूसरी तरफ सरकार की नीति स्पष्ट है, हम अपने देश में मांस का विरोध करेंगे पर पूरी दुनिया को इसे उपलब्ध करायेंगे।