मोदी के पास वैज्ञानिकों के लिए नहीं है सैलरी, शोध का बजट किया आधा

Update: 2019-03-10 14:04 GMT

वैज्ञानिकों को हटाकर उनकी जगह आरएसएस के लोगों को रखकर करवाई जा रही है गौ मूत्र में ऑक्सीजन व गोबर में चमत्कारी पापनाशक कीटनाशक खोजने से लेकर काल्पनिक सरस्वती नदी व मिथकीय राम सेतु की खोज....

दिल्ली से सुशील मानव की रिपोर्ट

जनज्वार। एक ओर सरकार विज्ञापनों-उद्घाटनों में जनता का खजाना लुटाकर चुनावी लाभ लेने की फिराक़ में है, वहीं दूसरी ओर टाटा अनुसंधान संस्थान अपने कर्मचारियों तक को पैसे नहीं दे पा रहा है।

टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (TIFR) ने एक नोटिस जारी करके बताया है कि फंड की कमी के कारण TIFR के स्टाफ मेंबर, पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो इसके सेंटर्स और फील्ड स्टेशन को फरवरी महीने की आधी सैलरी दी जाएगी। जबकि सैलरी का बाकी भाग पर्याप्त फंड की उपलब्धता के बाद दिया जाएगा। दूसरी ओर सरकार अरबों रुपए विज्ञापनों और उद्घाटनों पर फूंक दे रही है।

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही शोध संस्थानों के फंड में कटौती करते हुए इन्हें 50 प्रतिशत फंड खुद से जुटाने को कहा था, जबकि पहले हमारे GDP का 0.85 % ही शोध कार्यों पर खर्च किया जाता रहा है। हालांकि ये भी बहुत संतोषजनक नहीं था, लेकिन कम से कम इन संस्थानों के कर्मचारियों को बिना वेतन के तो काम नहीं करना पड़ता था। शोध संस्थानों की मौजूदा खस्ताहाली विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय के उस फैसले के ठीक दो साल बाद हुआ है, जिसमें यह कहा गया था कि शोध संस्थान अपना 50 फीसदी खर्च बाहरी माध्यम से निकालें।

आज की तारीख में TIFR के साथ साथ देश के लगभग सभी वैज्ञानिक शोध संस्थान जबर्दस्त वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। इससे पहले काउंसिल फॉर साइंटिफिक एड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) के डायरेक्टर जनरल गिरीश सहानी ने देशभर के लगभग 38 प्रयोगशालाओं व शोध केन्द्रों के निदेशकों को लिखे अपने पत्र में यह कहा था कि वर्ष 2017-2018 में वैज्ञानिक अनुसंधानों को पारित 4063 करोड़ रुपये के बजट में से केवल 202 करोड़ रुपये ही नए रिसर्च प्रोजेक्ट्स पर खर्च करने को बाकी हैं। चूंकि CSIR अभी वित्तीय समस्याओं से जूझ रहा है इसलिये, अब संस्थानों को अपने खर्चे निकालने के लिए ‘बाहरी स्रोतों’ पर विचार करना होगा।

लानत है ऐसी सरकार पर जो टीआईएफआर को इस हाल में पहुँचा दे कि वहाँ के विज्ञानिकों, रिसर्च स्कालर्स और कर्मचारियों को महीने की आधी तनखाह देनी पड़े। ये सरकार विज्ञान का गला घोट रही है। यह तो तब भी नहीं हुआ जब हम ग़रीब देशों में शुमार किए जाते थे।

गौहर रजा, वरिष्ठ वैज्ञानिक

विज्ञान व तकनीक मंत्रालय ने जून 2015 में देहरादून में हुए दो दिवसीय ‘चिंतन शिविर’ के बाद ऐसे नीतिगत फैसले लिए थे, जिसे ‘देहरादून डेक्लेरेशन’ के नाम से जाना जाता है। इस फैसले में साफ तौर पर निर्देशित किया गया था कि शोध संस्थान अपने खर्चो का 50% खुद ही निकालें। साथ ही इस बात पर भी बल दिया गया था कि ऐसे संस्थान जो वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान कार्यों से संबंधित है उन्हें सेल्फ फाइनेंसिंग या स्ववित्त पोषित शोधकार्य शुरू करने होंगे, व हर माह यह रिपोर्ट भेजते रहना होगा की उनके द्वारा हो रहे शोध केंद्र सरकार के ‘सामाजिक व आर्थिक एजेंडे’ पर खरे उतर रहे हैं या नहीं।

जाहिर है केंद्र सरकार जहां शोध संस्थानों के फंड में कटौती कर रही है, वहीं दूसरी ओर उनकी स्वायत्तता को भी सीमित कर रही है। केंद्र सरकार द्वारा इस तरह का कदम एक खास साजिश के तहत उठाया गया है। दरअसल मोदी सरकार फाइनेंशियल कटौती के बाद निजी पूंजी के जरिए जहां इन संस्थानों को कमजोर करके समाज की वैज्ञानिक चेतना को कंट्रोल करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर इन संस्थानों का पूंजीगत निजीकरण करके ये निश्चित करना चाहती थी कि तमाम शोध व अनुसंधान कार्य उसके ‘एजेंडे’ के तहत हों।

हमारे देश में होता है कुल बजट का सिर्फ 0.85 प्रतिशत शोध पर खर्च, वैज्ञानिकों को नहीं मिल पा रहा वेतन, सरकार ने कहा 50 फीसदी खुद जुटाओ

वैज्ञानिक के स्वतंत्र विचार जो वैज्ञानिक अनुसंधानों की पूर्व शर्त होते है, एक प्रकार से उसे मोदी सरकार ने पूंजी के संकट के जरिए खत्म करने की साजिश की है।

इन सरकारी संस्थानों को आर्थिक रूप से कमजोर करने के पीछे सरकार की ये कोशिश भी है कि इन संस्थानों को निजी पूंजी के जरिए निजीकरण करके प्रयोगशालाओं में हो रहे अनुसंधानों मुनाफे के उपक्रमों में बदला जाए। सरकारी शोध संस्थानों का निजीकरण करने के बाद देश के वैज्ञानिक अब इस दिशा में सोचेंगे कि किस तरह के अनुसंधानों से ज़्यादा मुनाफा व राजस्व आ सकता है। जैसे अभी भारत में दो सेक्टरों, रसायन उत्पादन तथा ऑटोमोबाइल सेक्टर में मुनाफे की संभावना ज़्यादा है तो निजी क्षेत्र के निवेशक इनमें ज़्यादा निवेश करेंगे, लेकिन एग्रो-प्रोसेसिंग या तारा भौतिकी जैसे विषयों का क्या होगा जिनमें त्वरित मुनाफा नहीं दिखता।

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देहरादून डेक्लेरेशन के बाद शोध संस्थानों के बजट में 2000 करोड़ तक की कमी आयी है। अगर डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी (DAE) के मातहत चलने वाले BARC (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) व TIFR (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च) को छोड़ दिया जाए तो लगभग सारे शोध संस्थान इस वक़्त फंड की कमी से जूझ रहे हैं। केवल इन्हीं दो संस्थानों को 'देहरादून डेक्लेरेशन' से बाहर रखा गया है। इस घोषणा के दो वर्ष बाद अब स्थिति विकराल रूप धारण कर चुकी है, देशभर के वैज्ञानिक शोध संस्थान इस वक़्त वित्तीय आपातकाल का सामना कर रहे हैं।

पहले भी बहुत सारे रिसर्च प्रोजेक्ट्स फंड की कमी के कारण बंद हुए हैं। फंड की कमी के कारण साल 2015 में CSIR द्वारा संचालित ओपन सोर्स ड्रग डेवलपमेंट कंसोर्टियम (OSDDC) प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया है। ज्ञात हो कि OSDDC संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए सस्ती दवाइयों के निर्माण के लिए शुरू किया गया था।

इसके तहत एम.डी.आर टी.बी. की रोकथाम के लिए PaMZ नामक नई दवा का निर्माण किया जा रहा था, जिससे इस बीमारी के इलाज में लगने वाले समय के एक-तिहाई हो जाने का अनुमान था, परन्तु ओ.एस.डी.डी.सी. के बंद हो जाने के बाद अब इस परियोजना का भविष्य अधर में है।

सिर्फ विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय ने ही शोध संस्थानों पर होने वाले खर्चों में कटौती नहीं की है, स्वास्थ्य मंत्रालय भी ऐसे कदम उठा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा फंडिंग रोकने के कारण नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाईजेशन द्वारा संचालित एच.आई.वी/एड्स की रोकथाम के लिए शोध करने वाले 18 डोनर फाइनेंस्ड परियोजनाओं और 14 ऑपरेशनल रिसर्च परियोजनाओं को बंद करना पड़ा है।

फंडिंग रोककर वैज्ञानिक शोध संस्थानों की हत्या कर रही है मोदी सरकार

समस्या केवल फंडिंग की ही नहीं है, वैज्ञानिक व तर्कशील चिंतन को भी नुकसान पहुंचाया जा रहा है। एक तरफ देशभर के शोध संस्थान आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं, वही दूसरी और केंद्र सरकार विज्ञान के नाम पर तमाम तरह के फर्जी अनुसंधानों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है।

मोदी के सत्तासीन होने के बाद से लगातार विज्ञान कांग्रेस और अन्य मंचों से मिथकों का विज्ञान के साथ घालमेल करने की कोशिशें की जाती रही हैं। करोड़ों रुपए का बजट आवंटित करके आयुष मंत्रालय ने तो बाकायदा शोध संस्थान व प्रयोगशालाएं खोलने की परियोजना की शुरुआत भी की हैं, जहां गौमूत्र व गोबर के ‘चमत्कारिक लाभों’ पर शोध करवाया जायेगा। देश के वैज्ञानिकों को हटाकर उनकी जगह आरएसएस के लोगों को रखकर ‘गौ मूत्र में ऑक्सीजन व गोबर में चमत्कारी पापनाशक कीटनाशक खोजने से लेकर काल्पनिक सरस्वती नदी व मिथकीय राम सेतु की खोज’ करवायी जा रही है।

इसी कड़ी में जुलाई 2017 में विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के अंतर्गत आने वाले साइंस फॉर इक्वॉलिटी, एम्पावर्मेंट एंड डेवलपमेंट (SEED) ने ज्ञापन जारी करके ‘पंचगव्य’ पर शोध करने के लिए साइंटिफिक वेलिडेशन एंड रिसर्च ऑन पंचगव्य (SVROP) नामक परियोजना शुरू के लिए राष्ट्रीय संचालन समिति गठित की थी।

आरएसएस से जुडे़ संगठन विज्ञान भारती के अध्यक्ष विजय भटकर समिति के सहअध्यक्ष बनाया गया था। सुपर कम्प्यूटर की परम सीरीज के वास्तुविद माने जाने वाले भटकर बिहार के राजगीर में नालंदा विश्विद्यालय के कुलाधिपति भी हैं।

file photo

राष्ट्रीय संचालन समिति नाम की समिति में नवीन एवं अक्षय उर्जा मंत्रालय, बायोटेक्नोलाजी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभागों के सचिव और दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिक शामिल हैं। इसमें आरएसएस और विहिप से जुडे संगठनों विज्ञान भारती और गौ विज्ञान अनुसंधान केंद्र के तीन सदस्य भी शामिल हैं।

उपरोक्त तथ्यों से साफ जाहिर है मोदी सरकार अपने ‘हिंदुत्व’ के एजेंडे के तहत ही तमाम वैज्ञानिक शोध संस्थानों की फंडिंग में कटौती करके उनकी हत्या कर रही है।

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