जेएनयू की फीस कम न होती तो ऑक्सफोर्ड तक न पहुंचता ट्रक खलासी का बेटा

Update: 2019-11-13 07:30 GMT

जेएनयू में फीस बढ़ोत्तरी का सीधा असर आर्थिक रुप से कमजोर तबके के छात्रों पर पड़ रहा है। इसीलिए छात्र बीते 16 दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। जेएनयू हमेशा गरीब तबके से ताल्लुक रखने वाले मेधावी छात्रों का गढ़ रहा है। अनुराग अनंत बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं। खुद उनके पिता इलाहाबाद में गोलगप्पे बेचते हैं...

अनुराग अनंत

दुःख होता है जब जेएनयू और ऐसे ही पब्लिक फंडेड यूनिवर्सिटी की फी स्ट्रक्चर पर लोग जोक बनाते हैं, मीम करते हैं। जब लोग शटडाउन जेएनयू की गुहार लगाते हैं। आप वो अनुभव नहीं जान सकते जो हमारी स्मृतियों और छातियों में कील की तरह धँसा है। जिसने हमारे हांथों को खुरदुरा और बातों को नुकीला कर दिया है। जिसने हमें इतना पैना कर दिया कि हम भ्रम के पर्दे के पार देख कर विद्रोही हो उठते हैं।

जी हाँ, आप नहीं जान सकते कि जेएनयू जैसे पब्लिक फंडेड यूनिवर्सिटी का क्या मतलब है हमारे लिए। हाँ, हमारे घर में इतना पैसा भी नहीं है कि हम एक हज़ार रुपये महीने भी दे सकें। नहीं है हमारी औकात कि हम 10 हज़ार सालाना फीस भी अदा कर सकें। कुछ अपने बारे में बताता हूँ। भोगा हुआ यथार्थ। जिया हुआ सत्य। मेरे पिता जी गोलगप्पा बेचते थे। महीने के 3 हज़ार मुश्किल से कमाते होंगे। उसपर भी तीन भाई बहन घर का ख़र्च और पिता जी का अपना शौक। इतना पैसा नहीं था कि शिक्षा में पैसे ख़र्च हो सकें।

चपन में नाना के एक मित्र ने देखा मेधा अच्छी है तो उन्होंने अपने कान्वेंट स्कूल में हम तीनों भाई बहनों की शिक्षा 5वीं तक मुफ्त कर दी। अच्छी शिक्षा क्या कर सकती है आज समझता हूँ। वो मोहल्ला जहाँ बचपन से ही लोग कट्टा और बम से खेलने लगते थे हमारे हाथों ने कलम का जोर जाना और दिमाग ने सोचना शुरू किया।

पाँचवीं के बाद शहर के सबसे अच्छे प्राइवेट स्कूल की प्रवेश परीक्षा पास की पर 150 रुपये महीने नहीं जुटे और सरकारी इंटर कालेज़ में पढ़ना पड़ा जहाँ लड़के पीछे बैठ कर हस्तमैथुन करते थे। लंच में बम बनाते थे। गिरोह बना कर छिनैती करते थे। मैं भी बचपन में उनमें से एक ग्रुप में जुड़ गया। नौवीं तक आते आते ये लड़के अपराधी हो चुके थे मैंने तय किया कि कालेज़ नहीं जाना और यकीन मानिए कि कभी कालेज़ को कोई फ़िकर हुई ना किसी टीचर को। घर पर पढ़ कर परीक्षा देता और पास हो जाता। 12वीं तक ऐसे ही चलता रहा।

प्रथम श्रेणी में गणित से 12वीं करने के साथ भी पिता जी ने जिद की बहुत हुई पढ़ाई गोलगप्पे बेचना शुरू करो। मैं बचपन से ही ज़िद्दी था। पढ़ाई छोड़ने को तैयार नहीं हुआ और पिता जी ने ये कहते हुए घर छोड़ दिया कि भूखे मरोगे तो काम करोगे ही। क्या क्या नहीं किया ट्यूशन पढ़ाने से लेकर दूसरों के घरों में काम करने और स्टेशन पर अख़बार बेचने तक सबकुछ। वो एक साल इसमें ही खराब हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय नहीं होता तो चाह कर भी ग्रेजुएट नहीं हो पाता। सालाना 900 फीस थी सो दे सका। नहीं घर चलाना और फीस भरना संभव नहीं था।

मैं अपने घर से पहला व्यक्ति था जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। उसके बाद जब मास्टर्स करने की बारी आई तो सबसे पहले कॉलेज के फी स्ट्रक्चर ही देखता था। वहाँ बीबीएयू मिला जहां 1000 रुपये हॉस्टल की छ: महीने की फीस थी और 1600 रुपये खाने के। 1000 रुपये में ही पत्रकारिता की पढ़ाई थी। जिसके लिए प्राइवेट वाले लाखों ले रहे थे। आप यकीन कर सकें तो करें घर पर 2000 रुपये महीने देने को भी नहीं था। कुल जमा 96 हजार रुपये जोड़े थे जिसमें बहन की शादी का सपना भी नत्थी था। उसे ही एफडी कराया और 600 रुपये महीने माँ ने देने को कहा।

शुरुवाती एक सेमेस्टर मैं एक टाइम खाना खा कर रहा। पर उसके बाद आईनेक्स्ट में फ्रीलांस हो गया और ट्यूशन भी मिल गए। इन सबके बीच भाई बहनों की पढ़ाई ख़राब हो चुकी थी। इसके बाद तो एमफिल पीएचडी फ़ेलोशिप से संभव हो सकी। मैं अपने साथ के दोस्तो को याद करता हूँ तो मन कैसा हो जाता है बता नहीं पाउँगा। मेरा एक दोस्त जो इलाहाबाद में हिन्दू हॉस्टल के बाहर फलों का जूस बेचता था और पढ़ने में बहुत अच्छा था कोचिंग नहीं मिल सकने की वजह से आईआईटी नहीं जा सका। वो आज इसी जेएनयू के बलबूते उसी आईआईटी दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट है।

क और दोस्त जिसकी माँ सड़कों पर झाड़ू लगाती थीं। आज वो इन्हीं पब्लिक फंडेड यूनिवर्सिटी के बल पर एक बड़ी एमएनसी में साइंटिस्ट है। एक और दोस्त जिसके पिता ट्रक में खलासी/मकैनिक थे वो इसी जेएनयू के बूते ऑक्सफ़ोर्ड में हैं। एक दोस्त जिसके पिता मजदूर थे। वो इन्हीं यूनिवर्सिटी की वजह से इंटरनेशनल एनजीओ में बड़े ओहदे पर है। कितने नाम गिनाऊँ, कितने ही अफ़सर, कितने ही प्रोफ़ेसर, कितने ही वैज्ञानिक हो गए। जिनके खाने को लाले थे। जिनकी जिंदगी में अंधेरा था पर जेएनयू और ऐसे ही विश्वविद्यालयों ने उनके ज़हन में उजाला भर कर सम्मान से इंसानों जैसे जीने लायक बनाया।

प क्या चाहते हैं? ये प्रतिभाएं अपना रास्ता मोड़ लें। क्योंकि नदी बहेगी ही अगर सही रास्ता और दिशा नहीं मिली तो ग़लत रास्ता और दिशा चुन लेगी। आप क्या चाहते हैं कि हम बमों, हिंसाओं, क्रूरताओं, और बर्बरताओं से निकलने को छटपटाते रहें। आपने वो नहीं देखा, नहीं महसूसा जिससे हम गुजरे हैं। इसलिए आपको हमारी बात कई बार बेज़ा लग सकती हैं। पर ये बरसों से दबी चुप्पियों से उपजी तीखी चीख़ है। इसमें वो सवाल हैं, जिन्हें हल किये बिना कोई देश समावेशी और संवेदनशील देश नहीं बन सकता। हमको मालूम है हमारे लिए जेएनयू सरीखे विश्वविद्यालय क्या हैं। इसलिए हम इसे बचाने को आख़री साँस तक लड़ेंगे। क्योंकि हमनें अपने अनुभव से सीखा है। हम लड़ेंगे तभी पढ़ सकेंगे।

पढ़े जेनएयू, लड़े जेएनयू, बढ़े जेएनयू,

तेरा जेएनयू, मेरा जेनएयू ज़िंदाबाद !!

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