प्रधानमंत्री के एक दिन के विदेश दौरे पर 21 लाख रुपए खर्च होते हैं तो केंद्र सरकार का विज्ञापनों पर एक दिन का खर्चा करीब 4 करोड़ रुपए है
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का धारदार विश्लेषण
'साफ नियत सही विकास' के साथ ईमानदारी और कामकाजी सरकार का जिक्र। 'न खाऊंगा न खाने दूंगा’ महज जुमले के साथ कांग्रेस का हमला। 'हम में है दम अब आपके भरोसे नहीं' के नारे के साथ नीतीश समेत एनडीए सहयोगियों का दम-खम। 'सब साथ तो फिर सत्ता हमारे हाथ' के साथ विपक्ष का नारा। तेवर हर किसी के, पर मुद्दे गायब। तो क्या ये मान लिया जाये, धर्म के आसरे ध्रुवीकरण की राजनीति की उम्र पूरी हो चुकी है।
हिन्दुत्व की चाशनी में सोशल इंजीनियरिंग का खेल खत्म हो चला है। मुद्दों की फेहरिस्त कोई गिना दे पर पूरी कोई नहीं करता, ये सच मोदीकाल की देन है। ईमानदारी का राग या घोटालों के दाग की परिभाषा बदल चुकी है। यानी पहली बार देश प्रिंट मीडिया और टीवी मीडिया से होते हुये डिजिटल मीडिया या कहें सोशल मीडिया के आसरे हर मुद्दे पर इतनी बहस कर चुका है कि छुपाने के लिये किसी भी राजनीतिक दल के पास कुछ भी है और बताने के लिये भी किसी नेता के पास कुछ भी नया नहीं है।
फिर भी 2019 आयेगा। चुनाव होंगे। लोकतंत्र का राग गाया जायेगा और वह मुद्दे जिन्हें कभी नेहरु के सोशलिज्म तले देश ने देखा—समझा। लाल बहादुर शास्त्री के 'जय जवान जय किसान' के नारे को सुना। इंदिरा के जरिये दुनिया की ताकत बनने का हौंसला पाया। राजीव गांधी के जरिये तकनीक की समझ विकसित की। पीवी के जरिये बाजारवाद को परखा। वाजपेयी के जरिये गठबंधन की अनूठी सियासत को समझा। मनमोहन सिंह के जरिए आवारा पूंजी को भोगा और नरेन्द्र मोदी के जरिये वादों की लंबी-चौड़ी फेरहिस्त को देखा।
पर हालात बदले क्यों नहीं। हर दौर में सत्ता को देश की गरीबी दिखायी, पर खुद की रईसी में किसी सत्ता ने कोताही नहीं बरती। और मौजूदा दौर तो रिकॉर्ड तोड़ने वाला है जहां प्रचार से लेकर दुनिया भ्रमण कुछ इस अंदाज में जारी है जैसे सबकुछ फ्री में हो। दरअसल सारे फैसले, समूची गवर्नेंस सिमटी तो ऊपरी तबके में। किसी ने भी उस भारत की जरूरतों को उसी की ताकत से स्वावलंबी बनाने के बारे में सोचा ही नहीं, जो समूची दुनिया में बेची जाती है।
मसलन भारत है तो सस्ते मजदूर मिल जाएंगे। गांव में बसता भारत किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिये मुफ्त में जमीन से लेकर खनिज संपदा देने को तैयार है। तीनों का दोहन किया गया। तीनों को वोटबैंक से जोड़कर हर सियासत ने लूटपाट की और निचले-पिछड़ों का यही वह तबका रहा जो वोट पावर का प्रतीक बन गया। क्योंकि इसी में दलित भी समाये और मुस्लिम भी। किसान-मजदूर के मुद्दे भी गुम हुये और महिलाओं के शोषण की कहानियां भी यहीं छुपीं। गरीबों की कल्याणकारी योजनायें भी इसी में गुम हो गईं। यानी जिसे जो कहना था कह दिया गया। कहने से कोई चूका नहीं और 21वीं सदी में सूचनाओं के आदान—प्रदान ने हर हालात को इतना पारदर्शी बना दिया कि कोई ये कह न सका कि उसने जो जो किया, उसे बाकि लोग जानते समझते नहीं हैं।
विज्ञापनों के जरिए धोखा दिया नहीं जा सकता ये सीख है, पर बेअसर है। हर राज्य ने जो नहीं किया, उसे प्रचारित किया।
27 राज्यों के विज्ञापन देश के हर राज्य में छपते रहे। अखबारों से लेकर टीवी तक दिखायी देते रहे।
भ्रष्ट्र राजनीति की लकीर मनमोहन सरकार के दौर में इतनी मोटी थी कि नेताओं से घृणा होने लगी, तो अन्ना आंदोलन के सामने झटपट संसद तक को नतमस्तक होने में देर नहीं लगी। और मोदीकाल ने किसी भी करप्शन के खिलाफ कोई कार्रवाई न कर ये जतला-बतला दिया कि सब सियासत है। ये सत्ता पाने का खेल है, तो फिर जनता क्या करे। क्योंकि जनता के पैसे पर ही सत्ता की मौज है।
आलम है क्या जरा समझ लें। मसलन आंकड़ों के लिहाज से समझें तो देश में कुल 4582 विधायकों पर साल में औसतन 7 अरब 50 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इसी तरह कुल 790 सांसदों पर सालाना 2 अरब 55 करोड़ 96 लाख रुपए खर्च होते हैं। और अब तो राज्यपाल भी राजनीतिक पार्टी से निकल कर ही बनते हैं तो देश के तमाम राज्यपाल-उपराज्यपालों पर एक अरब 8 करोड़ रुपये सालाना खर्च होते हैं। खर्चों के इस संमदर में पीएम और तमाम राज्यों के सीएम का खर्चा जोड़ा नहीं गया है। फिर भी इन हालातों के बीच अगर हम आपसे ये कहें कि नेताओं को और सुविधा चाहिये यानी बंगले की सुविधा।
देशभर में सभी नेताओं के बंगले और नेताओं की पार्टियों के ट्रस्ट की सरकारी जमीन अगर जोड़ दी जाये तो फिर आपको जानकर और हैरत होगी कि साढ़े तीन लाख एकड़ में फैली दिल्ली भी नेताओं के मकान के घेरे में छोटी पड़ जायेगी। पर हालत यहीं नहीं थमती। सवाल तो ये है कि कमोबेश हर राज्य में नेताओं की पौ बारह रहती है। सत्ता किसी की रहे, रईसी किसी की कम होती नहीं। नेताओं ने मिलकर आपस में ही यह सहमति भी बना ली कि नेता जीते, चाहे हारे उसे जनता का पैसा मिलते रहना चाहिये।
जी, अगर आपने किसी सांसद या विधायक को हरा दिया, तो उसकी सुविधा में कमी जरूर आती है पर बंद नहीं होती। मसलन सांसद हार जाये तो भी हर सांसद को 20 हजार रुपए महीने की पेंशन मिलते है। दस एयर टिकट तो सेकेंड क्लास में एक साथी के साथ यात्रा फ्री में। टेलीफोन बिल भी मिल जाता है। हारे हुये विधायकों के बारे में राज्य सरकारें ज्यादा सोचती हैं तो और हर पूर्व विधायक को 25 हजार रुपए की पेंशन जिंदगी भर मिलती रहती है। सालाना एक लाख रुपये का यात्रा कूपन भी मिलता है। सफर हवाई हो या रेल या फिर तेल भराकर टैक्सी सफर, महीने का 8 हजार तीन सौ रुपये। और अगर कोई पूर्व सांसद पहले विधायक रहा तो उसे दोनों की पेंशन यानी हर महीने 45 हजार रुपए मिलते रहेंगे।
यानी जनता जिसे कुर्सी से हटा देती है, जिसे हरा देती है, उसके ऊपर देश में हर बरस करीब दो सौ करोड़ रुपये से ज्यादा जनता का पैसा लुटाया जाता है। जो सत्ता में रहते हैं, उनकी तो पूछिये मत। दिन में होली, रात दीवाली हमेशा रहती है। ऐसे में आखिरी सवाल, 2019 में वह कौन सा मुद्दा होगा जिसके आसरे देश में सत्ता बदल जायेगी। या फिर वह कौन सी उम्मीद होगी जिसके जरिए आमजन सोचेगा कि 2019 जल्दी आ जाये तो उसके अच्छे दिन आ जायेंगे।
क्योंकि आखरी सच तो यही है कि एक दिन में पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी भर से केंद्र सरकार के खजाने में 665 करोड़ रुपए आ जाते हैं। राज्य सरकारों को वैट से 456 करोड़ की कमाई होती है। पेट्रोलियम कंपनियों को एक दिन में पेट्रोल-डीजल बेचने से 120 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा होता है।
प्रधानमंत्री के एक दिन के विदेश दौरे पर 21 लाख रुपए खर्च होते हैं तो केंद्र सरकार का विज्ञापनों पर एक दिन का खर्च करीब 4 करोड़ रुपए है। सिर्फ एक दिन में मुख्यमंत्रियों के दफ्तर में चाय-पानी पर 25 लाख रुपए खर्च होते हैं। प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम एक संदेश में 8 करोड 30 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। तो भी इंतजार करें 2019 का।
(दैनिक भास्कर से साभार)