राजस्थान एवं गुजरात में टिड्डियों के हमले का कारण जलवायु परिवर्तन

Update: 2020-01-28 05:15 GMT

टिड्डियों के एक औसत झुंड में 80 लाख तक कीट हो सकते हैं और एक झुंड एक दिन में 2,500 लोगों या 10 हाथियों के बराबर खाना खा सकता है। पहले प्रजनन काल में 20 गुना बढ़ता है, दूसरे प्रजनन काल में यह 400 गुना और तीसरे प्रजनन काल में 16,000 गुना...

पर्यावरणविद सुनीता नारायण का विश्लेषण

ब यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में भयंकर आग का कारण जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है। इस आग से वहां की जमीन बुरी तरह झुलस गई तथा कई लोग और जंगली जानवर मारे गए हैं। वहां के जंगलों में आग लगना सामान्य है, लेकिन इस भयानक आग का कारण यह था कि गर्मी का स्तर बढ़ रहा है। इस वजह से वहां मैदान सूख गए और स्थिति विकराल हो गई।

लंबे समय से पड़ रहे सूखे के कारण वहां आग के लिए आदर्श स्थिति बन गई, लेकिन दुनिया का ध्यान ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग की तरफ था और दूसरी ओर हमारे यहां इससे भी बदतर मानवीय संकट पैदा हो गया। इसका संबंध भी जलवायु परिवर्तन से है।

दिसंबर में टिड्डियों के भारी-भरकम झुंडों ने राजस्थान और गुजरात में फसलों को चौपट कर किसानों की आजीविका को बरबाद कर दिया। इससे फसलों को हुए नुकसान के बारे में अभी तक ज्यादा अनुमान नहीं है, लेकिन सरकारों ने दिल्ली के आकार से लगभग तीन गुना अधिक क्षेत्र में कीटनाशकों का छिड़काव किया है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग की तरह यह दलील दी जा सकती है कि इस क्षेत्र में टिड्डियों का हमला आम है तो फिर से हंगामा क्यों?

'डाउन टु अर्थ' पत्रिका में मेरे सहयोगियों ने अपनी जांच में पाया है कि जिस तरीके से टिड्डियों के हमले हो रहे हैं उसमें बदलाव आया है। इसकी वजह भारत ही नहीं बल्कि उन इलाकों में हो रही बेमौसमी बारिश है, जहां टिड्डियां पनपती हैं। इनमें लाल सागर के तट से अरब प्रायद्वीप, ईरान और राजस्थान शामिल हैं। यह कीट बहुत तेजी से अपनी आबादी बढ़ाता है और टिड्डियों के एक औसत झुंड में 80 लाख तक कीट हो सकते हैं।

ह झुंड एक दिन में 2,500 लोगों या 10 हाथियों के बराबर खाना खा सकता है। पहले प्रजनन काल में 20 गुना बढ़ता है। दूसरे प्रजनन काल में यह 400 गुना और तीसरे प्रजनन काल में 16,000 गुना बढ़ता है। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर प्रजनन काल लंबा होगा तो इसकी संख्या में भारी इजाफा होगा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि टिड्डियों का झुंड हमें अकाल की याद दिलाता है।

स साल टिड्डियों के झुंड बहुत बड़े थे और इस वजह से ज्यादा तबाही हुई। क्यों? इसके कई कारण हैं जिनकी पड़ताल की जरूरत है। पहली वजह यह थी कि इस बार पाकिस्तान के सिंध प्रांत और पश्चिमी राजस्थान में बेमौसम बारिश हुई थी। भारत का मरुस्थल टिड्डियों के प्रजजन के लिए मुफीद जगह नहीं है। इन कीटों को अपना परिवार बढ़ाने के लिए गीली और हरी जमीन की जरूरत होती है, लेकिन पिछले साल इस इलाके में समय से पहले बारिश हुई। यही वजह थी कि मई 2019 में ही वहां टिड्डियों के हमले की खबरें आने लगी थी, लेकिन इन्हें नजरंदाज किया गया। इसके बाद मॉनसून ज्यादा लंबा खिंच गया। अक्टूबर तक इसकी वापसी नहीं हुई थी। बारिश जारी रही और कीट पश्चिम एशिया और अफ्रीका की ओर पलायन करने के बजाय यहीं जमे रहे और प्रजनन करते रहे।

दूसरी वजह यह रही कि मई 2018 में चक्रवाती तूफान मेकुनू और फिर अक्टूबर 2018 में चक्रवाती तूफान लुबान के कारण अरब प्रायद्वीप में भारी बारिश हुई। इससे मरुस्थल में झीलें बन गईं जो कीटों के प्रजनन के लिए आदर्श स्थिति है। टिड्डियों ने इन गरीब और युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में भारी तबाही मचाई, लेकिन बाहरी दुनिया को इसकी जानकारी नहीं मिली। फिर लाल सागर के तटीय इलाकों में पिछले साल जनवरी में भारी बारिश हुई। यह भी बेमौसम बारिश थी। वहां बरसात का मौसम नौ महीने तक खिंच गया और इस दौरान टिड्डियों ने अपनी तादाद में भारी इजाफा किया।

टिड्डियों के प्रकोप पर काम कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि इनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि लाल सागर के तटीय इलाकों में पर्याप्त फसल नहीं हो पाई। साथ ही समुद्री चक्रवाती तूफानों और हवा के प्रवाह में बदलाव के कारण टिड्डियां भारत पहुंच गईं। अमूमन टिड्डियां मॉनसूनी हवाओं के साथ भारत आती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 2019 में टिड्डियां लाल सागर को पार करते हुए अफ्रीका और फारस की खाड़ी से होते हुए ईरान पहुंचीं। सर्दियों में टिड्डियों का दल ईरान में आराम करता है। वहां से उन्होंने भयंकर झुंडों के रूप में पाकिस्तान और भारत का रुख किया।

टिड्डियों के झुंड ने जब गुजरात और राजस्थान के बाद पाकिस्तान और ईरान की ओर लौटना शुरू किया तो तीसरी पीढ़ी के कीट पैदा हो चुके थे। इनका जन्म राजस्थान में मॉनसून की अवधि बढऩे के कारण हुआ था। यही वजह है कि इस साल नुकसान अधिक हुआ है। किसान बुरी स्थिति में हैं। अब इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि इस क्षेत्र में बेमौसम बारिश या बार-बार समुद्री चक्रवाती तूफान आने की वजह जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है। इसलिए इस बात को समझना मुश्किल नहीं है कि परस्पर निर्भर और वैश्वीकृत दुनिया में हमें क्या देखने को मिल रहा है। यह केवल लोगों या पूंजी के प्रवाह के बारे में नहीं है। यह केवल ग्रीनहाउस गैसों के बारे में नहीं हैं, जो किसी सीमाओं में नहीं बंधी हैं। इसका संबंध जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों के प्रकोप और कीटों के हमलों के वैश्वीकरण से है।

लेकिन हमारी असमान और सूचना-विभाजित दुनिया में जो बात इसे ज्यादा घातक बनाती है, वह यह है कि हम ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग के बारे में तो जानते हैं लेकिन अपने इलाके में हो रहे टिड्डियों के हमले से अनभिज्ञ हैं। हम यह संबंध नहीं बना रहे हैं। अफ्रीका से एशिया तक हम अपने लोगों का दर्द नहीं समझ सकते हैं जो पहले से ही जलवायु से जुड़े जोखिम वाले भविष्य में जी रहे हैं। इसलिए उन्हें जलवायु परिवर्तन के बारे में बताने या भाषण देने की बात भूल जाइए। इस समस्या से निपटने के लिए मिलकर काम कीजिए। इसकी समस्या हम हैं। वे हमसे पीडि़त हैं। यह ठीक नहीं है।

(सुनीता नारायण सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवॉयरनमेंट से संबद्ध हैं। उनका यह लेख पहले बिजनैस स्टैंडर्ड में प्रकाशित।)

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