'लोहिया से अखिलेश यादव का उतना ही संबंध है जितना राहुल का महात्मा गांधी से'

Update: 2018-03-24 09:07 GMT

राजनीति एक अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति : राममनोहर लोहिया

योगेंद्र यादव, अध्यक्ष स्वराज पार्टी

23 मार्च को लोहिया जी का जन्मदिवस होता है। लोहिया आजाद भारत में पहले इंसान थे, जिसने खुल कर नेहरु के खिलाफ मोर्चा खोला, जिस ज़माने के बुद्धिजीवी नेहरु के खिलाफ बोलने की सोच भी नहीं सकते थे वैसे समय में उन्होंने नेहरु के खिलाफ खुल कर बोला।

उन्होंने अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ बोला और भारतीय भाषाओं को बढ़ाने की बात की क्यूंकि इस देश में अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा नहींं एक सामंत बन गया है। उन्होंने जाति का सवाल उठाया जो की एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इस देश के कम्युनिस्ट भी उस समय गैर बराबरी की बात तो करते थे पर जाति व्यवस्था पर सवाल उठाने से बचते थे, ऐसे समय में लोहिया ने सवर्ण जातियों के खिलाफ खुल कर बोला।

इन तीन अपराध के लिए इस देश के अंग्रेजी बोलने वाले, स्वर्ण और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने लोहिया को कभी माफ़ नहीं किया। लोहिया के जीवनकाल में और उनके मरने के बाद भी उनका खूब दुष्प्रचार हुआ जिसके वजह से जो असली लोहिया हैं, उन्हें हम आज भी पहचान नहीं पाते।

अगर आज़ लोहिया होते तो सबसे पहले तो आज़ इस छद्म राष्ट्रवाद के बारे मे बोलते औऱ बताते की राष्ट्रवाद औऱ हिंदू की बात करने वाले लोगों को तो न तो हिंदू धर्म पता है औऱ न इन्हें भारत का इतिहास ही पता है औऱ न ही ये भारतीय राष्ट्रवाद के जनक ही हो सकते हैं।

आज़ अगर कभी कभार राम मनोहर लोहिया का नाम आता है तो समाजवादी पार्टी के संदर्भ मे आता है औऱ हम सोचते हैं की अच्छा वो अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव इनकी पार्टी के पितामह रहे होंगे, दादाजी रहे होंगे। कुछ ऐसे ही आदमी होंगे।

दरअसल, राम मनोहर लोहिया का अखिलेश यादव की पार्टी से उतना ही सम्बन्ध है, जितना महात्मा गाँधी का राहुल गाँधी की पार्टी से सम्बन्ध है। ये जो समाजवादी पार्टी है, वो समाजवाद से, लोहिया के विचारों से उतना ही दूर है, जितना आज़ की कॉंग्रेस पार्टी गाँधी जी के विचारों से दूर है। अगर आज़ लोहिया होते तो शायद सबसे पहली बात जो कहते, वे इस देश मे बढ़ती हुयी गैर बराबरी। आर्थिक गैर बराबरी से चिढ़ व समता बनाये रखने की जिद्द लोहिया ने जिंदगी भर पाली।

अगर आज़ लोहिया होते तो अम्बानी, अडानी की बात करते, अगर आज़ लोहिया होते तो किसानों की आत्महत्या का सवाल संसद मे उठाते, अगर आज़ लोहिया होते तो पूछते की इस देश के सरकारी कर्मचारी को जितनी न्यूनतम आय मिलती है, 18 से 20 हजार महीना, वो इस देश के किसान को क्यों नहीं मिलनी चाहिये। लोहिया ने ही वे बहस शुरू की की इस देश के प्रधनमन्त्री को कितना ख़र्च करना चाहिये।

वो आरटीआई का ज़माना नहीं था, लोहिया ने आंकड़े जुटाये की इस प्रधानमंत्री पर, इस देश पे कितना खर्च होता है औऱ समान्य व्यक्ति कितने आने ख़र्च करता है औऱ लोहिया ने इसको संसद मे उठाया औऱ कहा की जब आप एक प्रधानमंत्री पर 25 हज़ार रुपया औऱ एक गरीब आदमी पे सिर्फ़ 3 आना, इसकी बहस चलाई लोहिया ने। गरीब और अमीर के बीच अधिकतम कितनी दूरी हो, उन्होंने इसकी बहस चलाई कि अगर इस देश के अमीरों के पास दस रूपया है तो गरीब के पास एक रुपया हो।

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