‘मास्टर आफ रोस्टर’ बनाम ‘मास्टर आफ कॉलेजियम’

Update: 2019-01-16 15:30 GMT

वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण फैसले और प्रस्तावों को कॉलेजियम में अन्य न्यायाधीशों की मौन सहमति के साथ मुख्य न्यायाधीश द्वारा लिया जा रहा है मनमाने और अनौपचारिक ढंग से

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

कॉलेजियम की सिफारिशों पर विधि क्षेत्रों में गम्भीर विवाद शुरू हो गया है। एक ओर जहाँ दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज कैलाश गंभीर ने उच्च न्यायालय के दो जस्टिसों को उच्चतम न्यायालय में भेजे जाने की कॉलेजियम की सिफारिश का विरोध किया है, वहीं दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कॉलेजियम की सिफारिशों में मनमाने परिवर्तन को लेकर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर तंज कसा है कि ‘मास्टर आफ रोस्टर’ अब अतिरिक्त रूप से ‘मास्टर आफ कॉलेजियम’ बन गए हैं।

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय का जज बनाने को लेकर कॉलेजियम की सिफारिश पर आपत्ति जताते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज और वरिष्ठ वकील कैलाश गंभीर ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी है। जस्टिस गंभीर ने इस चिट्ठी के जरिए वरिष्ठता की अनदेखी का मुद्दा उठाया है। उन्होंने राष्ट्रपति से कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता संरक्षित करिए और फिर ऐतिहासिक भूल होने से रोकिए।

जस्टिस गंभीर ने यह भी कहा कि जस्टिस संजीव खन्ना के नाम की सिफारिश में न सिर्फ दिल्ली हाईकोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई, बल्कि आल इंडिया सीनियरिटी मे 30 से ज़्यादा वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई है। जस्टिस गंभीर ने इस पत्र में यह भी कहा कि जस्टिस खन्ना योग्य हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय के जज के तौर पर उनके नाम की सिफारिश में जिन 32 वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई उसमें हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी शामिल हैं।

पत्र में पिछले वर्ष जनवरी में हुई जजों की प्रेस कान्फ्रेंस का भी हवाला दिया गया है जिसमें वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भी शामिल थे। इसमें मीडिया से कहा गया था कि अगर संस्था संरक्षित नहीं हुई तो देश में लोकतंत्र नही रह सकता।

इस बीच प्रशांत भूषण का एक लेख द वायर में आया है, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण फैसले और प्रस्तावों को कॉलेजियम में अन्य न्यायाधीशों की मौन सहमति के साथ मुख्य न्यायाधीश द्वारा मनमाने और अनौपचारिक ढंग से लिया जा रहा है।

प्रशांत भूषण के अनुसार कॉलेजियम ने 12 दिसंबर, 2018 को बैठक की और कुछ फैसले लिए। यह 10 जनवरी, 2019 कोलेजियम के संकल्प से स्पष्ट है, जिसमें कहा गया है, "12 दिसंबर, 2018 को तत्कालीन कॉलेजियम ने कुछ फैसले लिए।" फैसले और प्रस्ताव में राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाये जाने को लेकर था, लेकिन कॉलेजियम ने 10 जनवरी के प्रस्ताव में इन फैसलों को पलट दिया।

प्रचलित परम्परा के अनुसार, संकल्प को सरकार को सूचित किया जाना चाहिए और उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए, लेकिन कोई कदम नहीं उठाए गए। कारण जो भी हो, अधिक प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या मुख्य न्यायाधीश स्वयं कॉलेजियम की सिफारिश और उसे वेबसाइट पर अपलोड करने से रोक सकते हैं? यदि हां, तो मुख्य न्यायाधीश को कहां से ऐसी मनमानी शक्ति मिली है?

कॉलेजियम की 10 जनवरी की बैठक में संकल्प, जब 31 दिसंबर 18 को न्यायमूर्ति लोकुर के सेवानिवृत्त होने के बाद कॉलेजियम बदल गया, से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि 12 दिसंबर, 2018 को लिए गए निर्णय को सार्वजनिक डोमेन में रखा नहीं गया। यह स्पष्ट है कि 12 दिसंबर, 2018 से 10 जनवरी, 2019 तक की घटनाओं से केवल एक निष्कर्ष निकलता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अन्य न्यायाधीशों की मौन सहमति के साथ कॉलेजियम के मास्टर की भूमिका निभाई है।

12 दिसंबर, 2018 के प्रस्ताव को लागू नहीं करने का निर्णय प्रक्रियागत रूप से त्रुटिपूर्ण और रहस्य में डूबा हुआ है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता दांव पर है और कॉलेजियम प्रणाली को निश्चित रूप से बहुत देर होने से पहले पुनर्विचार की आवश्यकता है। मुख्य न्यायाधीश को खुद से सवाल पूछना चाहिए कि क्या इसीलिए उन्होंने 12 जनवरी, 2018 को पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग को लेकर चार जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग लिया था?

अब यहाँ तक कहा जा रहा है कि कॉलेजियम के इस अचानक यू-टर्न से उच्चतम न्यायालय के कई जज नाराज हैं और 'सांस्थानिक फैसले' की रक्षा के तरीकों को लेकर चर्चा कर रहे हैं। वे निर्णय-प्रक्रिया में निरंतरता के पक्ष में हैं। वे नहीं चाहते कि कलीजियम द्वारा लिए गए फैसले से कहीं से भी यह संकेत जाए कि ये सदस्यों के व्यक्तिगत पसंद से प्रभावित है।

टाइम्स न्यूज नेटवर्क के अनुसार उच्चतम न्यायालय के जस्टिस संजय कौल राजस्थान हाईकोर्ट के सीजे प्रदीप नंदराजोग को नजरअंदाज किए जाने के खिलाफ पहले ही लिखित आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। कॉलेजियम को लिखे पत्र में कौल ने कहा है कि नंदराजोग उन सभी जजों में सबसे वरिष्ठ हैं, जिनके नामों पर विचार किया गया। उन्होंने कहा कि नंदराजोग को नजरअंदाज करने से गलत संकेत जाएगा। वह (नंदराजोग) उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं।

कॉलेजियम द्वारा जस्टिस दिनेश माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय का जज बनाने की सिफारिश भी विवाद में है। मार्च 2018 में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन वरिष्ठतम जज चेलमेश्वर ने कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस दिनेश माहेश्वरी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को खत लिखा था। लेकिन मौजूदा कॉलेजियम ने जस्टिस माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय जज बनाने की सिफारिश की है। कॉलेजियम में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस ए. के. सीकरी, जस्टिस एस. ए. बोबडे, जस्टिस एन. वी. रामन्ना और जस्टिस अरुण मिश्र भी शामिल हैं।

दरअसल, जस्टिस माहेश्वरी ने सेक्सुअल हैरसमेंट से जुड़ी एक लंबित शिकायत पर एक डिस्ट्रिक्ट जज से स्पष्टीकरण मांगा था। वह भी तब जब उच्चतम न्यायालय ने उस डिस्ट्रिक्ट जज को क्लीनचिट दे दी थी। उसके बाद, जस्टिस चेलमेश्वर ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को लिखा था कि हमारी पीठ के पीछे कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाते लग रहे हैं। इसके बावजूद कॉलेजियम ने इस पर ध्यान देना उचित नहीं समझा।

दूसरी तरफ उच्चतम न्यायालय ने अपनी वेबसाइट पर पूरे मामले में सफाई भी दी है। वेबसाइट पर बताया गया है कि 12 दिसंबर, 2018 को तत्कालीन कलीजियम ने कुछ फैसले लिए थे।हालांकि, शीतकालीन अवकाश की वजह से जरूरी चर्चा पूरी नहीं हो पाई थी। अवकाश के बाद कोर्ट फिर खुला और इस दौरान कॉलेजियम में एक बदलाव आया (जस्टिस लोकुर रिटायर हो चुके थे और जस्टिस मिश्रा शामिल हुए)।

5 और 6 जनवरी को गहन चर्चा के बाद नवगठित कॉलेजियम ने पाया कि पिछले फैसले पर नए सिरे से विचार करना उचित होगा। इसके अतिरिक्त, यह भी तय हुआ कि जब अतिरिक्त सामग्री उपलब्ध है तो उन्हें दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तावों पर विचार किया जाए।

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