अब माओवादी खतरे से राजनीतिक संजीवनी की आस में मोदी जी

Update: 2018-06-09 05:52 GMT

एक चिठ्ठी के सहारे मोदी को राजनीतिक संजीवनी देने के लिए जिस तरह षडयंत्र रचा जा रहा है उसके लपेटे में प्रकाश अंबेडकर को लेने के लिए मीडियाकर्मी जितनी मेहनत कर रहे हैं उससे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव के केंद्र में दलित की भूमिका निर्णायक होने जा रही है...

अंजनी कुमार, सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता

पिछले तीन दिनों में भीमा कोरेगांव के नाम पर शहरी माओवाद के नाम पर जो हो रहा है उससे एक साथ दलित और माओवाद को निशाने पर लिया गया है। एक चिठ्ठी के सहारे मोदी को राजनीतिक संजीवनी देने के लिए जिस तरह षडयंत्र रचा जा रहा है, उसके लपेटे में प्रकाश अंबेडकर को लेने के लिए मीडियाकर्मी जितनी मेहनत कर रहे हैं उससे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव के केंद्र में दलित की भूमिका निर्णायक होने जा रही है।

एक तरफ राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नक्सलवाद को मुख्य शत्रु को खत्म करने की आम सहमति, जिसे कांग्रेस ने पिछले 15 सालों में बना चुकी है; का प्रयोग पूरे विपक्ष को चुप कराने के लिए, तर्कहीन बना देने के लिए किया जा रहा है। दूसरी ओर उभर रहे दलित नेताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जबाबदेह बनाने के लिए उन्हें नक्सल नेताओं से सीधा जोड़ देने की कवायद की जा रही है।

पुलिस और मीडिया का जो प्रयोग चल रहा है वह नया नहीं है। जो नया है वह पूरा का पूरा मीडिया हाउस का मोदी को ‘सबका मारा, बेचारा प्रधानमंत्री’ और ‘भारत मतलब मोदी’ के रूप में प्रचारित करना। पूरे देश को एक ऐसी बेचारगी और जादू-टोने में फंसा दिया गया है, जिसका उद्धारकर्ता भी मोदी ही है। मसलन, विदेशी यात्रा इसी तरह का एक जादू-टोने जैसा प्रयास है जिससे उम्मीद दिखाई जाती है कि इसी से एक दिन विदेशी पूंजी आयेगी और देश का विकास हो जायेगा।

पुलिस को एक पत्र मिला है जिसमें माओवादी मोदी को वैसे मारना चाहते हैं जैसे राजीव गांधी की हत्या हुई, यह पत्र किसी आर ने किसी प्रकाश को लिखा है, पत्र में है सीमा, जीएन साईंबाबा और उनकी पत्नी का जिक्र

मुसलमानों को विकास का ठोस अवरोधक की तरह पेश किया गया और फिर एक दिन प्रधानमंत्री कांग्रेस को ही विकास का अवरोधक बता दिया। किसानों को उतावले समूह की तरह पेश किया गया। और, अब दलित समुदाय को राष्ट्रहित के लिए एक हिंसक समुदाय की तरह पेश किया जा रहा है। जाहिर है आदिवासी समूह पर बात नहीं हो रही है। उन पर पिछले 15 सालों से सिर्फ गोले दागे जा रहे हैं।

राजनीति के विमर्श में यदि कुछ बच गया है तो सिर्फ मोदी, मोदी, मोदी, ...। इस शब्द को हजारों बार लिखा जाए तब भी यह कम पड़ेगा। यह प्रचार, मनोविज्ञान और वोट की एक ऐसी तकनीक है जिसका भुगतान आम जन को करना पड़ रहा है। उससे भी अधिक जनता को संगठित कर उसकी आवाज को बुलंद करने वाले लोगों को भुगतना पड़ रहा है।

इंटरनेट पर तेजी से फैलती खबरों में जनता की आवाज एक संदेह के फार्मेट से गुजारी जाती है। इसे इस तरह से फैलाया जाता है कि मूल स्वर फट जाए और कुछ किरकिराट सी रहे जिससे आपका मनोविज्ञान मान ले कि यहा कुछ समस्या है। फोटो को ऐसे पेश किया जाता है जिससे रहस्य बने जिससे कि आप जननेता के रूप स्वीकार न करें। उन्हें एक ऐसे अदृश्य संगठन या पार्टी से जोड़कर दिखाया जाता है कि आप उस नेतृत्व के दसियों साल के काम को भूल जाएं।

सुधीर ढ़वाले को एक ऐसे ही रहस्यमयी व्यक्ति की तरह पहले भी पेश किया गया और उन पर यूएपीए के तहत देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। पुलिस और मीडिया ने उनका जो खतरनाक रूप पेश किया था वह मुकदमें में टूट गया। वह बाइज्जत बरी होकर बाहर आये, लेकिन एक बार फिर उन्हें खतरनाक शहरी माओवादी बताया गया।

रोना विल्सन जो पिछले 25 सालों से दिल्ली में हैं, जेएनयू में लगातार बने रहे और मानवाधिकार के मसले पर लगातार काम किया। यह रोना विल्सन अचानक ही रोना जैकब विल्सन में बदल जाता है और मीडिया उसे एक ऐसे व्यक्ति की तरह पेश करने लगती है मानो वह गुप्त ठिकानों से अचानक ही निकलकर आ गया है।

यह तब है जब दिल्ली में मीडिया में संपादक जैसे पदों पर काम करने वाले लोग उनके घनिष्ठ मित्रों में से हैं। इस संदर्भ में मुझे प्रशांत राही और सीमा आजाद की गिरफ्तारियां याद आ रही हैं। ये दोनों ही पत्रकार के रूप में काम कर चुके थे, लेकिन जब उनकी गिरफ्तारी हुई तो उनकी खबरें ‘एक खतरनाक गुप्त व्यक्ति’ की तरह छपी।

लेकिन इस बार जो खतरनाक खेल खेला जा रहा है वह यह है कि इसे एक खतरनाक मोड़ दिया जा रहा है। इन गिरफ्तारियों को भीमा कोरेगांव से शिफ्ट कर प्रधानमत्री से जोड़ जा रहा है। इस एक राष्ट्रीय मसले से जोड़ा जा रहा है। उनके द्वारा पेश किया गया पत्र भले ही जितना हास्यास्पद लगे, लेकिन कोर्ट में इन साथियों की जिंदगी के साथ खेल खेला जायेगा।

हम जीएन साईबाबा के मसले में यह देख चुके हैं। उनके इस खतरनाक खेल को गंभीरता से लेना होगा। यह कोर्ट, संविधान, राष्ट्रीय हित, तथ्य और उससे अधिक राजनीतिक हितों के रास्ते से गुजरेगा। पूर्व गृहमंत्री चिदम्बरम् ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जो सूत्र छोड़ा था अब उसे ही आगे बढ़ाया जा रहा है।

यह न सिर्फ नागरिक जीवन को चुनौती है बल्कि इससे भी कहीं कई गुना अधिक भूख, कर्ज, बेरोजगारी, गरीबी, जातीय और धार्मिक उत्पीड़न, राष्ट्रीय भेदभाव और दमन में मर रहे लोगों के जीवन जीने की चुनौती है। हमारी एकजुटता ही इस देश में जीवन की सभ्यता को विकसित कर सकेगी। मौत का नजारा तो हम देख ही रहे हैं।

(अंजनी कुमार सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, इन दिनों मजदूरों के बीच काम कर रहे हैं।)

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