स्वच्छ भारत के नाम पर मोदी जी का फोटो सेशन और कूड़े के ढेर से दबते मलबे के पहाड़

Update: 2019-03-05 13:03 GMT

जनता की गाढ़ी कमाई के टैक्स से नेता-मंत्रीगण विदेश यात्रा पर वहां की सफाई व्यवस्था का जायजा लेकर तो कई बार आये, पर उसको जमीनी स्तर पर लागू नहीं करवा पाये। आज तक ना साफ नियत दिखी ना सही विकास, कूड़े के विशालकाय पहाड़ जरूर मुँह चिढ़ाते नजर आते हैं....

सुरेश कौशल, स्वतंत्र पत्रकार

दिल्ली और भारत के तमाम बड़े राज्य मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई आज भी कूड़े के पहाड़ पर बैठे हैं, मगर सरकारों को क्या फर्क पड़ता है? सरकारें स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर अब तक करोड़ों-अरबों रुपये फूँक तो चुकी हैं, लेकिन परिणाम सिर्फ शून्य ही रहा है।

2 अक्टूबर यानी गाँधी जयन्ती के दिन जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छता के नाम पर गाँधी का अधिग्रहण किया था, उस समय देशवासियों के मन में एक आस जरूर जागी थी कि अब तो जरूर कुछ अच्छा होगा, कूड़ा हटेगा, पर्यावरण में सुधार होगा, अपने शहर की खुली और शुद्ध हवा में सांस ले पायेंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ,सब खोखले दावे और जुमले साबित हुए।

उन्होंने आनन-फानन में सफाईगिरी के नाम पर अपनी तमाम रैलियों में देश के बड़े नामचीन हस्तियों के नाम लेकर उन्हें सफाई के लिये नामांकित भी कर दिया, पर उन नामचीन हस्तियों ने भी झाड़ू पकड़कर अपना फोटो सेशन करवाया और फिर न जाने कहाँ गायब हो गये?

भारत सरकार और आम जनता सबको पता है कि दिल्ली के तीनों लैंडफिल क्रमशः भलस्वा-गाजीपुर ओखला वर्तमान में अब और कूड़े का बोझ ढोने की सहनशक्ति खो चुके हैं, फिर भी दिल्ली के छह नगर निगम मिलकर इस समस्या का ठोस हल निकालने की बजाय इन पर "थोड़ा और-थोड़ा और" करके कूड़ा डाले जा रही हैं।

सालभर पहले गाजीपुर लैंडफिल यानी कूड़े का पहाड़ दरक गया और अपनी सीमा लाँघते हुए भरभराकर सड़क पार करते हुए अपने निकटवर्ती नाले में समा गया। परिणामस्वरूप उस हादसे में वहाँ से गुजर रहे अनेकों वाहन और सड़क पर चल रहे राहगीर भी उस कूड़े की आँधी के साथ निकटवर्ती नाले में जा गिरे। इस भयंकर हादसे में दो लोग असमय काल के गाल में समा गये। चीख-पुकार सुनकर स्थानीय लोगों ने नाले में डूबते कई लोगों की जान बचायी।

आनन-फानन में मौके पर दिल्ली के मुख्यमंत्री समेत निगम के कई आला अधिकारी नींद से जागकर मौके पर पहुँचे। मुआवजे का ऐलान हो गया पर किसी के चेहरे पर उस निरीह लैंडफिल की बिगड़ते हालात पर कोई खास चिंता नहीं दिखी। चिंता दिखी तो सिर्फ इस बात की कि अपनी राजनीति में चार-चाँद लगाने के लिये दिल्ली को एक चौथे लैंडफिल की सौगात कितनी जल्दी और कहाँ दे दी जाये?

सरकार के नुमाइंदों द्वारा कूड़ा भरण के लिये सोनिया विहार के पास एक और नई जगह भी चिंहित कर ली गयी पर स्थानीय निवासियों के धरने पर बैठने और भारी विरोध प्रदर्शन के चलते सरकार को अपने पैर वापस खींचने पड़े। सरकार के पास भी कोई ठोस विकल्प ना होने पर "लौट के बुद्धू घर को आये" वाली बात हो गयी, तीनों लैंडफिल पर ही प्रतिदिन ट्रक के ट्रक कूड़ा भर कर भेजने का क्रम जारी है।

मौजूदा दिल्ली सरकार में गंदगी का दंश सबसे ज्यादा पूर्वी दिल्ली ने झेला, सफाई कर्मचारियों की तन्ख्वाह के लिये फण्ड ना होना, उनको नौकरी पर स्थायी ना करने पर बार-बार हड़ताल होने की वजह से जगह-जगह चौक चौराहों पर कूड़े का अंबार लगा रहा। केंद्रशासित राज्य होने के कारण आरोपों की गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकी जाती रही, आरोप-प्रत्यारोप का क्रम चलता रहा, नेतागण राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे और बीच में असहाय आम जनता पिसती रही।

ये सब देश के किसी दूरदराज इलाके में नहीं बल्कि प्रधानमंत्री निवास से 15 किलोमीटर की दूरी पर ही हो रहा था, और देश के चौकीदार-प्रधानसेवक मूकदर्शक बने तमाशा देखते रहे। आम आदमी की सरकार का ढोल पीटते न थकने वाले मुख्यमंत्री को भी साँप सूँघ गया।

सरकार ने ठोस कचड़ा प्रबन्धन अधिनियम 2016 पारित तो कर दिया, पर इसे योजनाबद्ध तरीके से लागू करने का कोई ठोस और कारगर तरीका नहीं निकाला। दरअसल इसकी जमीनी हकीकत यह है कि हर राज्य में स्वच्छता के नाम का जो बजट मिलता है उससे हर राज्य सरकारें ठोस कचड़ा प्रबन्धन का ठेका निविदा के जरिये बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को दे देती हैं। यहीं से पैसों का सारा खेल शुरू होता है, क्योंकि कंपनी के प्रस्ताव में 100 आदमी की आवश्ययकता दिखायी जाती है, भर्ती 70 आदमी की होती है, 30 कर्मचारियों की फर्जी तरीके से हाजिरी लगाकर उसका पैसा अवैध तरीके से निकाला जाता है, और उस रकम की बंदरबाट मुँह बंद रखने के लिये ऊपर से लेकर नीचे तक होती है।

हमारे देश के कई राज्यों में कूड़ा उठाने वाली गाड़ियों के ऊपरी हिस्से को दो भागों में बाँट दिया। क्रमशः हरा रंग जैविक, नीला रंग अजैविक के लिये ताकि उदगम स्थल पर ही कूड़े की छँटाई का निर्धारण होकर कूड़ा डल सके इस योजना के तहत कई रिहायशी इलाकों के निवासियों ने कूड़ा अलग-अलग कर के देना भी शुरू किया, पर गाड़ी पर चल रहे कूड़ा एकत्रित करने वाले सहायकों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया, सफाई से जुड़े कर्मियों को घरों से कचरा निस्तारण का सही प्रशिक्षण न होना और इसके क्रियान्वयन में उनकी अनुभवहीनता भी बहुत हद तक स्वच्छता मिशन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, जिसकी वजह से वो आज भी आम जनता के द्वारा अलग किये गये कूड़े को भी अपनी गाड़ी में मिक्स कर रहे हैं।

"सेग्रीगेशन एट दि सोर्स" यानि उदगम स्थल पर कूड़े की छँटाई करने में किसी तरह का कोई रॉकेट साइंस नहीं है, यह बहुत आसान प्रक्रिया है। यह कार्यक्रम हमारे देश में इसलिये भी लागू नहीं हो पा रहा रहा है क्योंकि जिन प्राइवेट कंपनियों को कूड़ा उठाने का ठेका दिया जाता है, उसका भुगतान कूड़े के वजन पर निर्भर होता है तो जाहिर सी बात है ये कंपनियाँ क्यों होने देंगी कूड़े की छँटाई?

एक निजी कंपनी के संचालक ने नाम न छापने की शर्त पर इस रैकेट के बारे में कई खुलासे करते हुए बताया कि ऐसा करना हमारी मजबूरी होती है, यदि हम उनके इशारों पर नहीं चलेंगे तो निगम में बैठे अफसर हमें दिये गये ठेके को फर्जी आरोपों और कमियों को दिखाकर चंद रोज में निरस्त करवा देंगे

उसने बताया कि हमें एक बार 80 लाख रुपये अनुमानित रकम का ठेका मिला, जिसमें निगम के द्वारा चिन्हित कूड़ा घरों से 250 टन कूड़ा प्रतिदिन 6 महीने तक JCB मशीन से ट्रकों में कूड़ा भरकर शहर से 15 किलोमीटर दूर लैंडफिल पर डालना था, जिसकी एवज में हमें 210 रुपये प्रति टन के हिसाब से पैसा मिलना था। लगभग 20 से 24 ट्रक कूड़ा लैंडफिल तक पहुँचाया जाता था, एक ट्रक में औसतन 8 से 10 टन कूड़ा भरा जा सकता है, पर लैंडफिल पर इस काम की देखरेख करने के लिये बैठे निगम के जूनियर इंजीनियर 25 से 30 ट्रकों के आगमन की पर्ची निकाल लेते थे।

यानी 6 से 8 पर्ची अतिरिक्त, उन फर्जी पर्चियों का हिसाब अलग से एक डायरी में नोट किया जाता था,और माह के अंत में निगम से हमारी कंपनी को भुगतान होने पर उन फर्जी पर्चियों पर लिखे वजन के हिसाब से पैसे वापस लेकर निगम में बैठे अफसर आपस में बाँट लेते थे। इस धोखाधड़ी में फँसने के डर से हमने अगली बार का ठेका ही नहीं लिया। तकरीबन 1.5 से 2 लाख रुपये प्रतिमाह का घोटाला सफाई के नाम पर कितनी सफाई से हो रहा था।

एक तरफ सरकार द्वारा जारी किये गये ठोस कचड़ा प्रबन्धन अधिनियम 2016 में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि कूड़े के सही निस्तारण की जिम्मेदारी कूड़ा उत्पादक की होगी,और दूसरी तरफ सरकार ने बड़ी-बड़ी FMCG कम्पनियों को देश में कूड़ा रूपी अराजकता फैलाने की खुली छूट दे रखी है। इन कम्पनियों के सारे उत्पाद या तो LOW VALUE PLASTIC पॉलीथिन में पैक होते हैं या मल्टीलेयर प्लास्टिक जैसे चिप्स-नमकीन-बिस्किट-साबुन-गुटखा जैसी अन्य दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली वस्तुओं के खाली पाउच के रुप में,जबकि इस तरह के कचड़े का निस्तारण / रिसायकलिंग हमारे देश में बिल्कुल ही असम्भव है।

रिसायकलिंग न होने की वजह से इन उत्पादों का कूड़ा हर गाँव-शहर, चौक-चौराहे और नाली-नालों में उड़ कर पहुँच रहा है, और उनके जल प्रवाह को भी अवरूद्ध कर रहा है। भू-सम्पदा को दिन-प्रतिदिन नुकसान हो रहा है। इन कम्पनियों ने धड़ल्ले से देशवासियों को कूड़े रूपी बम पर बैठने पर विवश कर दिया है।

ठोस कचड़ा प्रबन्धन अधिनियम 2016 में लिखा गया है कि नगर निगम डोर टू डोर कूड़ा प्रबंधन के लिये किसी संस्था के जरिये कूड़ा बीनने वाले कबाड़ियों को सेवारत किया जाना चाहिये, क्योंकि यह तबका कूड़े को उदगम स्थान पर ही अलग-अलग यानि सूखा अजैविक-गीला जैविक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह तबका गीले कूड़े को निगम के द्वारा चिन्हित कूड़ेदान पर डाल देते हैं और छँटे हुए सूखे कूड़े को बेचकर होने वाली आय से अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।

कुछ शहरों में ऐसा हो भी रहा है, पर जब हमने ग्राउण्ड जीरो पर जाकर इसकी पड़ताल की तो जो हकीकत हमारे सामने आयी वो भी बेहद शर्मनाक थी। इस बार छानबीन की शुरूआत उन कबाड़ियों यानि स्वच्छता सहायकों से की, जो उदगम स्थल से कूड़ा उठाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन लोगों ने बताया कि पूर्व में निगम के सफाईकर्मी अपने-अपने क्षेत्र में झाड़ू लगाने के अलावा इन घरों के संपर्क में रहते थे, और घर से निकलने वाले दैनिक कूड़े को ये लोग अपनी रेहड़ी में डाल कर ले जाते हैं और महीने के अंत में पैसे की उगाही करते हैं।

इन्हें सूखे-गीले से कोई मतलब नहीं होता था, पर वर्तमान में ये लोग हमारे जरिये घरों का कूड़ा उठवाते हैं पर घरों से मिलने वाले मासिक सेवा शुल्क को आज भी वो सरकार से मिलने वाली तनख्वाह के अतिरिक्त ऊपरी कमाई के तौर पर अपनी जेब में ही डालते हैं। आज भी हर म्युनिसिपल वार्ड के सफाईकर्मी अपने क्षेत्र के स्थानीय कूड़ाघरों के मठाधीश बने बैठे हैं। निगम के द्वारा संचालित कूड़ा एकत्रित करने वाले टेम्पो-टिपर का हाल भी सबसे अनूठा है। इन गाड़ियों के चालकों ने भी अपने वाहन से स्थानीय ढलाव पर कूड़ा डालने के एवज में कबाड़ियों से पैसा वसूली का धंधा बना रखा है।

ठोस कचड़ा प्रबन्धन पर काम कर रही कुछ संस्थाओं का कहना है कि जब तक प्रशासन इन छोटी-छोटी बातों पर बारीकी से ध्यान देकर इनमें सुधार नहीं करेगा, तब तक इस क्षेत्र में सुधार की गुंजाईश न के बराबर है। कूड़ा सभी घरों से छँट के मिलने के कार्य में सबसे बड़ा रोड़ा ये सरकारी सफाईकर्मी ही हैं।

ठोस कचड़ा प्रबन्धन पर देश की कई नामी गिरामी कंपनियों ने C.S.R. फण्ड के रूप में कुछ संस्थाओं के साथ गठबंधन करके पैसा खर्च करने के द्वार खोले, पर इन कंपनियों का मकसद इस दिशा में जमीनी स्तर पर सुधार कम खुद को लाईमलाईट में रखना ज्यादा पसंद है। यह कंपनियाँ सिर्फ अपने द्वारा चुनी गयी संस्था के द्वारा भेजी गयी फोटोग्राफी और मोटी-मोटी मसिक/सालाना रिपोर्ट पर ज्यादा यकीन करती हैं। समाज में सुधार हो या ना हो इनको मूल मुद्दों से कोई खास सरोकार नहीं होता।

डिजिटल क्रांति के इस युग में सरकारों ने आम जनता के लिये अपने आसपास की गंदगी और कूड़े के ढेर हटवाने के लिये कई नामों जैसे-स्वच्छता ऐप, स्वच्छ दिल्ली, SBM-engineer ,स्वच्छ भारत-क्लीन इंडिया, स्वच्छता MoUHA जैसे नाम से अनेकों ऐप बना दिये। लोगों ने भी इस पर शिकायतों की भरमार लगा दी, मगर उन शिकायतों का निपटारा कैसे करेंगे उस का खाका सरकार ने नहीं खींचा।

देखा जाये तो स्वच्छता के मामले में एक ही ऐप "NDMC-311" काम करता है वो भी बहुत तेजी से, इसके काम करने की एक सबसे बड़ी वजह ये है कि यह साफ्टवेयर भारत की राजधानी दिल्ली की सबसे महत्वपूर्ण जगह लुटियन जोन "नई दिल्ली नगर पालिका परिषद" को व्यवस्थित रखने के लिये बना है, क्योंकि इस जगह बड़े-बड़े मंत्रालयों के कार्यालय, संसद भवन, इंडिया गेट, सर्वोच्च न्यायालय स्थापित है। यहाँ देश के तमाम हुक्मरान, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, बड़े-बड़े मंत्री, सांसद, विधायक, राजनेता, IAS/IPS/IFS/IRS रहते हैं। किसी को गंदगी से तकलीफ हो तो हो, पर इन नेताओं को न हो, क्योंकि कुर्सी और नौकरी से बाहर जाने का खतरा सफाई से जुड़े सभी कर्मचारियों पर हमेशा बना रहता है।

शर्म की बात है कि जनता की गाढ़ी कमाई से भरे जाने वाले टैक्स से नेता-मंत्रीगण विदेश यात्रा पर वहाँ की सफाई व्यवस्था का जायजा लेकर तो कई बार आये, पर उसको जमीनी स्तर पर लागू नहीं करवा पाये। हम लोग भी चीन-जापान-अमेरिका जैसे बड़े देशों से सफाई के मामले में कुछ सीख नहीं सके। आज तक "ना साफ नियत दिखी ना सही विकास" दिखा। कूड़े के विशालकाय पहाड़ मुँह चिढ़ा रहे हैं।

अगर देश में कूड़े के और पहाड़ खड़े नहीं करना है तो छँटाई के इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम को सिरे से लागू करने के लिये सरकार और नगर निगम को योजनाबद्ध तरीके से कदम दर कदम चलना होगा। सरकारों को सजग होकर साफ और स्वच्छ नियत के साथ पूरी ईमानदारी से जमीनी स्तर पर काम करना होगा। निकटवर्ती ढलाव पर मिक्स कूड़ा डलवाने की प्रथा को बंद करके इन जगहों का इस्तेमाल खाद बनाने की जगह में परिवर्तित करके रोल मॉडल स्थापित करना होगा।

नगर निगम को RWA एवं स्थानीय निवासियों को इस कार्यक्रम से अपने साथ जोड़ना होगा। उन्हें उन लोगों पर नजर बनाये रखने के लिये प्रेरित करना होगा, जो लोग घर से पालीथिन में कूड़ा भर के आस पास जहाँ-तहाँ नाली-नालों में कूड़ा डालते हैं, जिसके कारण नालियाँ बंद हो जाती हैं। ऐसे लोगों को स्थानीय निगम के सफाई निरीक्षक के सहयोग से चालान करके दण्डित भी करना होगा, ताकि वो भविष्य में दोबारा गलती ना करें।

सबसे महत्वपूर्ण बात कूड़े पर काम कर रही संस्थाओं को अपने क्षेत्रों में निर्बाध रूप से काम करवाने के लिये अपने साथ जोड़ना होगा। यह संस्थायें निगम के फण्ड से नहीं बल्कि यूजर चार्ज यानी सेवा शुल्क लेकर इस काम को बेहतर तरीके से करेंगी। तब जाकर बनेगा "स्वच्छ भारत"

(स्वतंत्र पत्रकार सुरेश कौशल पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

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