12 करोड़ की आबादी वाले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का 5 करोड़ भी नहीं है सलाना बजट
दो राज्यों के 18 जिलों और नेपाल के 3 जिलों की 12 करोड़ की आबादी का इलाज करने वाले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का बजट सिर्फ 5 करोड़ है, जो देश में सबसे कम है, यूपी के सिर्फ 4 मेडिकल कॉलेजों को चला जाता है यूपी हेल्थ का 80 फीसदी बजट
बीआरडी मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल और बाल विभाग के विभागाध्यक्ष रहे केपी कुशवाहा से जानिए वह 10 बड़ी वजहें जिसके कारण गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अगस्त, सितंबर, अक्तूबर महीने में बच्चों के लिए बन जाता है श्मशान।
1. देश का पहला मेडिकल कॉलेज जो संभालता है 12 करोड़ की आबादी। 21 जिलों और 250 किलोमीटर तक के रोगियों का ईलाज करता है यह मेडिकल कॉलेज। यूपी के 12, बिहार के 6 और नेपाल के तीन जिलों का है सहारा। इतने में कम से कम होने चाहिए 10 मेडिकल कॉलेज। अस्पताल जब इतना ओवरलोडेड है, तो फिर कमियों की क्या गिनती।
2. यूपी के चार मेडिकल कॉलेजों पर खर्च होता है 80 फीसदी बजट, बाकि 9 मेडिकल कॉलेज चलते हैं बचे 20 प्रतिशत बजट से, उसमें से एक है गोरखपुर मेडिकल कॉलेज। अभी इसका सालाना बजट है करीब 5 करोड़।
3. 80 फीसदी बजट वाले तीन कॉलेज केजीएमसी, पीजीआई और बनारसी दास मेडिकल कॉलेज लखनऊ में और एक है मुलायम सिंह यादव के गांव सैफई में।
4. परमानेंट बजट का आधा खत्म हो जाता है सैलरी और मेडिकल कॉजेल के औजार खरीदने में। यह बजट कितना नाकाफी है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीजी हॉस्टल के 52 कमरों, एमबीबीएस छात्रों के 450 कमरों, 200 से ज्यादा टाइप वन फ्लैट, 150 टाइप टू फ्लैट, 72 टाइप 3 और करीब 50 अधिकारियों के फ्लैटों समेत 12 वार्डों के पूरे मेडिकल कॉलेज की बिजली, सड़क, सफाई के सामान और पानी का पूरे सालभर का बजट मात्र 22 लाख है। वह भी तब हुआ है, जब मैंने व्यक्तिगत तौर पर प्रयास किए।
5. मेडिकल कॉलेज का भ्रष्टाचार सामने आया है, पर दिल्ली और लखनऊ में जहां मेडिकल कॉलेजों का बजट पास होता है, एक बार उनकी भी पड़ताल होनी चाहिए। मुझे याद है अनूप मिश्र केंद्र सरकार के मुख्य सचिव थे, उन्होंने जांच के बाद लगभग 7 करोड़ का बजट देने में पल भर की देरी नहीं लगायी, लेकिन वहीं 96 लाख के बजट के लाइसेंस के लिए 2012 में मुझे 4 बार अधिकारियों ने दौड़ाया। उनके पास लाइसेंस था, पर कहते थे पुराना वाला लाइए। मैंने कभी न कमीशन लिया और न दिया, पर बजट न पास करने की बहानेबाजी की विधिवत जांच होनी चाहिए।
6. जापानी इंसेफ्लाइटिस और एंट्रोवायरस का सबसे बड़ी वाहक सुअर है। 2006 में ही राजेश कुमार श्रीवास्तव द्वारा 2002 में दाखिल याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश दे दिया था कि सुअरों के लिए बाड़े का इंतजाम सरकार करे। पर सब ढाक के तीन पात हो गया। मच्छर जब सुअर को काटता है तो अरबों वायरस दूसरे पशुओं के मुकाबले सुअर में कई लाख गुना ज्यादा मल्टीप्लाई होता है। वही मच्छर जब फिर से सुअर को काटकर बच्चों को काटता है तो बच्चे जापानी इंसेफ्लाइटिस और एंट्रोवायरस के शिकार होते हैं। जो लोग सुअर पालते हैं उनके बच्चों को इसलिए इंसेफ्लाइटिस नहीं होता कि वह बचपन से ही उसी माहौल में रहते हैं और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अरबों वायरस से लड़ पाती है। गुड़गांव में 2006 में और दिल्ली में भी इसी समय के आसपास इंसेफ्लाइटिस के कारण कुछ मौतें हुई थीं। गुड़गांव के डीएम ने जब से वहां सुअरों को रखना प्रतिबंधित कर दिया, तब से मैंने वहां इंसेफ्लाइटिस के कारण मौत की बात नहीं सुनी।
7. जापानी इंसेफ्लाइटिस के रोग में मृत्यु दर 30 फीसदी है। इसलिए अगर 100 को यह रोग हो गया तो बचेंगे तो 60—65 के लगभग ही, पर जो बच जाते हैं, उनकी देखरेख का कोई तरीका नहीं है। जो बच्चे बच जाते हैं, उनमें चिड़चिड़ापन, तनाव, गुस्सा आदि सामान्य बात है। कई शारीरिक अक्षमता के शिकार भी होते हैं। इनके लिए कोई सुविधा होनी चाहिए, जिस पर कभी काई चर्चा नहीं हुई। हम कभी अपने मृत्युदर पर ध्यान नहीं देते। यूपी में मृत्युदर 61 है, जबकि छोटे से देश श्रीलंका की 18।
8. मेडिकल कॉलेज में काम करने वाले लोगों में सर्वाधिक ठेके और संविदा पर रखे गए हैं, जिनको समय पर सैलरी नहीं मिलती। मेडिकल कॉलेज में इलाज की असुविधा में यह कभी कारण के रूप में नहीं गिना गया, पर जो इलाज के लिए जिम्मेदार हैं, उनको आर्थिक तनाव और संकट में रखना अच्छा नहीं कहा जा सकता।
9. अभी दो तरह के बजट आते हैं। एक परमानेंट बजट राज्य सरकार से और दूसरा एनएचआरएम जो अब एएचएम हो गया है, उससे। एनएचएम के बजट से ठेके और संविदा कर्मियों की पेमेंट होती है। वह बजट तभी देते हैं, जब हर साल हम अलग से प्रपोजल बनाकर भेजते हैं। इसकी वजह से पूरी व्यवस्था में अराजकता रहती है, कमीशनखोरी की आदत पड़ती है। इसको खत्म करने के लिए हमने राज्य सरकार को 2013 या 2014 में मेडिकल कॉलेज को एक बजट भेजने का प्रस्ताव भेजा, पर वह किसी कोने में पड़ा होगा।
10. हमारे यहां नाले गंदगी को बहाने के काम कम आते हैं और गंदगी को रोके रखने के काम ज्यादा। मेरा मानना है कि अगर गंदा पानी लगना कम हो जाए, नाले और इनका विभाग काम करने लगे तो इंसेफ्लाइटिस के रोगी आधे भी नहीं रह जाएंगे।
(रिपोर्ट केपी कुशवाहा से की गई बातचीत पर आधारित है।)
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