पोर्न देखना उतना ही सहज होता जा रहा है जैसे हवा पानी

Update: 2018-04-24 21:31 GMT

पोर्न फिल्में पहले भी सर्वसुलभ थी और अब भी हैं, सस्ते स्मार्टफोन और डाटा ने आग में घी का काम किया है. इसके साथ अगर नशा करने की प्रवृत्ति भी मिल जाए तो रेप जैसे अपराध होंगे ही और सबसे आसान शिकार मासूम बच्चियां....

गुरविंदर का विश्लेषण

रेप—दर—रेप। देश में बलात्कार के केसों की बाढ़ आ गई है। छोटी अबोध बच्चियां, लड़कियां, महिलाएं पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गई हैं। अच्छे आधुनिक समाज में जिस घिनौने अपराध की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वह हर रोज सामान्य अपराधों की तरह खबरों की सुर्खियां बन रहा है। आरोपियों को फांसी की सजा की मांग अनापेक्षित नहीं है। अपराध ही ऐसा घिनौना है।

निर्भया कांड के बाद जगी तत्कालीन सरकार ने कानून में सख्त प्रावधान किए थे, जिसमें आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी, फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई और अन्य कई सख्त प्रावधान थे। अभी हाल में हुए उन्नाव, कठुआ, गुजरात और इंदौर के वीभ्त्स रेपकांडों ने पूरे देश को आक्रोशित कर दिया और सरकार ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों पर किए गए अपराध पर फांसी का प्रावधान कर दिया है।

यहां यह सवाल ज्यादा मौजूं है कि क्या कारण है इन घटनाओं की बढ़ोतरी के पीछे? कानून तो पहले भी थे और निर्भया कांड के बाद और सख्त हो गए पर क्या घटनाओं में कमी आई। नहीं, उल्टे लगभग वैसे ही कई विभिन्न अपराध सामने आए। हरियाणा में हुआ नेपाली युवती का केस जो अखबारों की सुर्खियां नहीं बटोर पाया, ऐसा ही केस था।

दरअसल बलात्कार की किसी घटना के पीछे कई कारण काम करते हैं। स्थान, व्यक्ति, उम्र, सामाजिक स्थिति, पारिवारिक स्थिति, शिक्षा और रोजगार की उपलब्धता आदि कारकों पर यह अपराध निर्भर करता है। यौनाकांक्षा एक सामान्य प्रवृत्ति है। इसकी पूर्ति व्यक्ति प्राकृतिक प्राकृतिक तरीके से करता है या करने की कोशिश करता है।

व्यक्तिगत तौर पर कोई इसकी बगैर किसी को नुकसान पहुंचाए पूर्ति करे तो कोई दिक्कत नहीं। दिक्कत तब आती है जब इंसान सिर्फ अपने इच्छा पूर्ति के लिए किसी भी हद तक चला जाए और अपराध को अंजाम दे।

सामान्य प्रक्रिया को बाजारवादी व्यवस्था ने टैबू बना दिया है। बाजार में आप चले जाएं, लगभग हर वस्तु के विज्ञापन के साथ स्त्री देह की नुमाइश मिलेगी। यही हाल हमारी फिल्मों का है, जहां पर स्त्री देह का बड़ा प्रदर्शन होता है। फिल्मों में रेप सीन या बेडरूम सीन आधुनिकता के नाम पर परोसे जाते हैं।

कंडोम के कई विज्ञापनों को तो सॉफ्टपोर्न कहा जाता है। इतना ही काफी नहीं था शायद, सस्ते स्मार्टफोन और डाटा ने आग में घी का काम किया है। पोर्न फिल्में पहले भी सर्वसुलभ थी और अब इतनी आम हैं जैसे हवा पानी। इसके साथ अगर नशा करने की प्रवृत्ति भी मिल जाए तो रेप जैसे अपराध होंगे ही और सबसे आसान शिकार मासूम बच्चियां हैं।

ऐसी मानसिक अवस्था में किसे सजा का डर रहेगा। रही सही कसर हमारी सड़ी गली सामाजिक प्रणाली पूरी कर देती है। लड़का लड़की का घटता लिंगानुपात, कई की तो शादी ही नहीं हो पाती और कइयों की बेमेल होती है और वह भी ढलती उम्र में।

दोष बाजार के साथ हमारी सरकारों का भी बराबर का है। अगर यूं कहें कि वह भी इस में बराबर की भागीदार है तो गलत नहीं है। सरकारों की तरफ से घटता सामाजिक सरोकार, शिक्षा व्यवस्था की चौपट स्थिति, बेरोजगारी भी बड़े कारक हैं।

मनुष्य को, समाज को चारों तरफ से घेरकर देह से सोचने पर सीमित कर दिया गया है, मजबूर कर दिया गया है। कानून जितना मर्जी सख्त कर लें पर आंकड़े बताते हैं कि देश में बलात्कार के लगभग 90% मामले लंबित हैं। ऐसे में अगर सजा सख्त भी हो तो क्या लाभ।

हमारा समाज अब बीमार समाज बन गया है। ईमानदारी भरी पहल और बड़ी इच्छाशक्ति के साथ समस्या की जड़ों पर प्रहार करने की जरूरत है, जो कि इस व्यवस्था के एजेंडे में दूर तक नजर नहीं आती।

Similar News