बिहार के छपरा के पॉश इलाके तक बन जाते हैं बरसात के दिनों में टापू, माकूल ड्रेनेज सिस्टम के अभाव के कारण साल के चार से छह महीने यहां के लोग हो जाते हैं घरों में कैद और नाव ही रह जाता है आवागमन का विकल्प...
छपरा से राजेश पाण्डेय की रिपोर्ट
जनज्वार, छपरा। 'सुनिए न सर! बरसात के बाद छपरा का हाल सुनिएगा तो पटना की बाढ़ भुलाइए जाइएगा। लेकिन क्या है न कि पटना बड़ा शहर है न, राजधानी है और सुशासन बाबू भी रहते हैं। इसलिए हर तरफ चर्चा है, दान—दक्षिणा भी खूब आ रहा है, मगर हम छपरा वालों के लिए बरसात के सीजन में घर-घर में पानी घुसना तो किस्मत है। पूरे शहर में आप पैंट उठाए बिना चल दें तो मान ही जाएंगे।' यह टिप्पणी किसी एक छपरा वासी की नहीं, बल्कि वहां रह रहे किसी भी आदमी की हो सकती है, क्योंकि इस शहर में बारिश होने के बाद लोग जीवन जीते नहीं, जीवन को भुगतने की तरह जीने लगते हैं।
गली-मुहल्ले तो छोड़िये छपरा के वो मुहल्ले जो शहर के पॉश इलाके कहे जाते हैं, में भी बरसात के मौसम के बाद महीनों तक जलजमाव रहता है। कई-कई महीनों तक बारिश के बाद ये पॉश कॉलोनियां शहर में होकर भी टापू बनी रहती हैं।
छपरा शहर के उत्तरी भाग में स्थित प्रभुनाथ नगर, उमा नगर और शक्ति नगर कॉलोनियों को शहर का पॉश इलाका माना जाता है और एक बड़ी आबादी यहां रहती है। इन मुहल्लों में महानगरों की तरह बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं खड़ी हैं, पर माकूल ड्रेनेज सिस्टम के अभाव के कारण साल के चार से छह महीने यहां के निवासी घरों में कैद हो जाते हैं और नाव ही आवागमन का विकल्प रह जाता है।
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जब जनज्वार टीम ने यहां के जमीनी हकीकत की पड़ताल की तो इस समस्या से जुड़े कई आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए। यहां के जगदम कॉलेज स्थित रेलवे क्रॉसिंग पार कर प्रभुनाथ नगर मुख्य पथ पर पहुंचे तो यहां के मुख्य पथ पर तो कम मगर कॉलोनी की लिंक पथों पर जलजमाव दिखा। यह जानकर आश्चर्य होगा कि तालाब और पोखर, जहां स्थिर जल की सालों भर उपलब्धता रहती है, वहां उपजने वाली जलकुंभी कॉलोनी की सड़कों और खाली पड़े प्लॉटों पर उपजी हुई है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहां काफी दिनों से जलजमाव की स्थिति है। इस कॉलोनी के अंदर प्रवेश करना अपने आप में एक दुरूह और मुश्किल कार्य साबित हुआ।
प्रभुनाथ नगर के रहने वाले जेपी सिंह जिनका मकान इसी कॉलोनी में है, वे किसी तरह पानी पार कर कालोनी की मुख्य सड़क तक पहुंचे थे। उन्होंने अपनी पीड़ा साझा करते हुए कहा, शुरू में जब यह कॉलोनी बसी तब यहां लोगों ने बड़े-बड़े मकान बनाए, पर नाले नहीं बने। शुरुआत में खाली प्लॉटों में घरों के नालों का पानी गिरता रहा और यही परंपरा बन गयी। धीरे-धीरे उन खाली प्लॉटों पर भी मकान बन गए और लोगों की यह सुविधा भी छिन गई।'
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जेपी सिंह बताते हैं, सरकार ने यहां की जमीन को आवासीय श्रेणी में डालकर मोटा सर्किल रेट निर्धारित कर दिया, जिससे जमीन की खरीद-बिक्री पर भारी-भरकम रजिस्ट्री शुल्क लगने लगा, मगर न तो यहां नाले बनाए गए न ही ड्रेनेज सिस्टम।
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किसी तरह जलजमाव को पार करते हुए टापू बने इस कॉलोनी में आगे बढ़े तो अरविंद सिंह से मिले, जो इस कॉलोनी के पुराने वाशिंदे हैं। उन्होंने भी अपनी पीड़ा जनज्वार के साथ साझा की। अरविंद कहते हैं, मुख्य शहर में रहकर भी साल के छह महीने हम दियारा वासियों की तरह समस्याओं से जूझते हैं। जलजमाव की समस्या दूर करने और ड्रेनेज निर्माण के लिए कॉलोनी के लोगों ने लंबा संघर्ष किया है, पर नतीजा अब तक सिफर ही रहा है। अगर इस समय किसी की तबियत बिगड़ जाती है तो नाव पर या खाट पर लादकर ले जाना पड़ता है।
कॉलोनी के अंतिम सिरे पर हरेंद्र सिंह मिले। हरेंद्र कहते हैं, बरसात शुरू होने से पहले ही हम छह माह का राशन और अन्य आवश्यक चीज स्टोर कर लेते हैं, चूंकि एक बार जलभराव हो गया तो वह सिर्फ धूप से ही सूखता है और इसमें चार से छह माह का समय लगता है।
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यहां रहने वाले अजय सिंह ने इस जलभराव को दूर करने का एक तात्कालिक रास्ता भी बताया। वो कहते हैं, अगर खनुआ नाला सहित अन्य बड़े नालों का किवाड़ा खोल दिया जाय तो इस समस्या से तत्काल निजात मिल जाएगी, पर प्रशासन यहां के लोगों की नहीं सुन रहा।
उधर शक्ति नगर और उमा नगर जो एक-दूसरे से सटी हुई पॉश कॉलोनियां हैं, उनकी स्थिति इससे भी बुरी है। यहां कई नावें चलती दिखीं तो कुछ लोग टायर के सहारे पानी को पार करते दिखे। यहां रहने वाले और दूध बेचने का काम करने वाले सिकंदर यादव कहते हैं, 'हमें तो जो परेशानी है, वह सामने है पर सबसे ज्यादा दिक्कत जलभराव के इस दौर में मवेशियों के चारे की हो रही है।'