'रम्माण’ और 'रामछाड़ी’ पर्याय हैं पहाड़ की लोक रामकथा के

Update: 2017-09-25 16:36 GMT

नृत्य नाटिका में पात्रों के मध्य संवाद नहीं होता, सिर्फ जागरी ही दृश्यों के अनुरूप रम्माण का गायन करता है। सम्पूर्ण रामकथा की प्रस्तुति गीत व नृत्य के माध्यम से होती है जिसमें राम, सीता, लक्ष्मण व हनुमान के पात्र पारंपरिक वेशभूषा व श्रृंगार के साथ अठारह तालों में नृत्य करते हैं...

चन्द्रशेखर तिवारी

उत्तर-मध्य भारत के हिन्दी भाषी प्रान्तों की तरह उत्तराखण्ड में भी रामकथा के नाट्य मंचन की एक दीर्घ परम्परा रही है। गोस्वामी तुलसी दास रचित रामचरित मानस पर आधारित नाटक ’रामलीला’ ही सर्वाधिक रूप से यहां प्रचलित है।

उत्तराखण्ड के जनमानस में रची-बसी यह रामलीला हालांकि उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग से निकलकर आयी है, लेकिन स्थानिक पहाड़ी शैली के गहन प्रभाव के चलते यह पहाड़ी रामलीला अपनी मंचीय प्रस्तुति और गायन व अभिनय की दृष्टि से विशिष्ट मानी जाती है।

उत्तराखण्ड की पहाड़ी रामलीला तकरीबन 160 साल पुरानी मानी जाती है। हालांकि कुछ सामाजिक इतिहासकार लोक मान्यता को आधार मानते हुए देवप्रयाग की रामलीला को सबसे पुरानी बताते हैं, जिसका मंचन 1843 के आसपास हुआ। संस्कृति के तमाम जानकार लिखित साक्ष्यों के आधार पर 1860 में अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला को ही पहली पहाड़ी रामलीला मानते हैं, जिसका विस्तार बाद में समय-समय पर नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी भीमताल, सतराली, श्रीनगर, टिहरी, काशीपुर व लैंसडाउन सहित गांव-शहरों में होता रहा।

उत्तराखण्ड में प्रचलित इस पहाड़ी रामलीला से इतर यदि यहां के लोक में निहित रामकथा की बात की जाए तो उसमें कई नये प्रतिमानों के दर्शन होते हैं। इन रामकथाओं में राम और अन्य पात्रों के चरित्र का आंचलिक रूप में चित्रित होना ही इसकी प्रयोगधर्मी विशेषता है।

यहां के लोक ने अपनी मौलिक कल्पना और आस्था-विश्वास के आधार पर रामकथा को अपने रंग में ढालने की अनुपम कोशिश की है। वस्तुतः यहां की लोक रामकथा में प्रमुख तत्वों और उसके चरित्रों में बदलाव तो नहीं दिखता, परन्तु इससे जुड़े कुछ प्रसंगों व आख्यानों में अंचलगत भिन्नता अवश्य देखने को मिलती है।

गढ़वाली और जौनसारी बोली में विरचित लोक रामकथा में पहाड़ की सम्पूर्ण प्रकृति राम की सहचरी के रुप में उपस्थित है। जंगल की लताएं, नदी, पर्वत, पेड़-पौधे व पक्षी-जानवर सब स्नेहिल और मित्र भाव से राम के सहयोगी बने हुए हैं। गहराई से देखें तो लोक की यह भावना साफ तौर पर सामूहिकता, प्रकृति संरक्षण व लोक कल्याण की महत्ता को उजागर करती है।

चमोली जनपद में स्थित सलूड़ डूंगरा व उसके आसपास के गांवों में मंचित होने वाला लोक नाट्य 'रम्माण’ तथा देहरादून जनपद के जौनसार-बावर में प्रचलित 'रामछाड़ी’ उत्तराखण्ड की लोक रामकथा का सर्वोपरि प्रतिनिधत्व करते हैं। एक सीमित क्षेत्र में ही प्रचलित रहने और सांस्कृतिक परिदृश्य से ओझल रहने के बावजूद भी इन रामकथाओं को लोक विरासत की दृष्टि से अनमोल धरोहर कहा जा सकता है।

यह बात गौरतलब है कि रामचरित मानस पर आधारित पहाड़ी रामलीला जहां अमूमन शारदीय नवरात्रियों में मंचित की जाती हैं, वहीं परम्परानुसार 'रम्माण’ का नाट्य मंचन बैशाख के महीने में तथा 'रामछाड़ी’ का गायन बसन्त पंचमी के पर्व पर ही किया जाता है।

बैशाख माह में एक पखवाड़े तक चलने वाला ’रम्माण’ चमोली जनपद के सलूड़ डूंगरा, डूंगरी बरोसी व सेलंग क्षेत्र का एक पारम्परिक पर्व व धार्मिक अनुष्ठान है। लोक संस्कृति के अध्येता संजय चौहान के मुताबिक गढ़वाल के ’रम्माण’ का इतिहास 500 साल से ज्यादा पुराना है।

प्रचलित लोकमान्यता के अनुसार 'रम्माण’ का सूत्रपात आदिगुरु शंकराचार्य जोशीमठ और बदरीनाथ आने के समय हुआ, जब उनके द्वारा देवभूमि में सनातन धर्म व अद्वैत सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार किया गया। ईश्वर के प्रति भक्ति भावना जागृत करने के लिए ही तब स्थानीय लोगों द्वारा भगवान राम और कृष्ण की लीलाओं के मंचन की शुरुआत की गयी।

खास बात यह है कि इस नृत्य नाटिका में पात्रों के मध्य संवाद नहीं होता है सिर्फ मुख्य गायक (जागरी) ही दृश्यों के अनुरूप रम्माण का गायन करता है। सम्पूर्ण रामकथा की प्रस्तुति गीत व नृत्य के माध्यम से होती है जिसमें राम, सीता, लक्ष्मण व हनुमान के पात्र पारंपरिक वेशभूषा व श्रृंगार के साथ अठारह तालों में नृत्य करते हैं।

नृत्य के दौरान रामजन्म, राम व लक्ष्मण का जनकपुरी में प्रवेश, सीता स्वंयवर, राम वन गमन, सीता हरण, राम-हनुमान मिलन, लंका दहन और राम का राजतिलक जैसे कुछ प्रमुख दृश्यों का प्रस्तुतीकरण होता है।

रामकथा के दृश्यों के बीच भूम्याल देवता, नृसिंह देवता व बुढ़ देवा (नारद) सहित कुछ अन्य प्रसंगों पर भी प्रस्तुति दी जाती है, जिनमें धरती की उत्पत्ति के सन्दर्भ में सूरज ईश्वर नृत्य, पशुपालकों पर आधारित म्वोर-मुरैण नृत्य, व्यापारी वर्ग पर केन्द्रित बंण्या-बंण्याण नृत्य प्रमुख हैं। इन नृत्यों में बहुधा मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।

'रम्माण’ के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्ता को देखते हुए वर्ष 2009 में यूनेस्को की ओर से इसे विश्व अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर दिया है।

जौनसार भावर में प्रचलित लोक रामकथा 'रामछाड़ी’ के गायन की परम्परा भी बहुत पुरानी मानी जाती है। जौनसार बाभावर की संस्कृति व इतिहास पर शोध कर रहे लक्ष्मीकांत जोशी बताते हैं कि 'रामछाड़ी’ गायन की यह मौखिक व परम्परागत विधा इस इलाके में कई सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आयी है।

जौनसार बावर की इस लोक रामकथा की बड़ी विशेषता यह है कि इसकी रचना यहां के स्थानीय भौगोलिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में हुई है। रामायण के कई प्रसंगों को स्थानीय मिथकों से जोड़ने का अभिनव प्रयोग यहां की लोक रामकथा में हुआ है जिसे शोध व अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

विशेष बात यह है कि 'रामछाड़ी’ में रामकथा का मंचन नहीं किया जाता, इसमें सिर्फ गायन की परम्परा है। महासू देवता के बड़े भाई के रूप में प्रतिष्ठित बासिक देवता के देवाल (परम्परागत गायक व वादक) इस रामकथा का गायन करते हैं। बसंत पंचमी के दिन सुबह-सबेरे महासू देवता को गेहूं की हरी लूंग (बालियां) अर्पित करने के बाद गीत व व नृत्य होते हैं और शाम के वक्त देवालों द्वारा परम्परागत शैली में ढोलक की थाप पर रामछाड़ी का गायन किया जाता है।

जौनसार-भावर की इस परम्परागत रामकथा को लोगों से परिचित कराने के उद्देश्य से दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से 26 सितमबर 2009 को एक आयोजन किया गया था, जिसमें परम्परागत गायक मदन दास व उनके पुत्र सन्तराम ने 'रामछाड़ी’ के सीता हरण प्रसंग की सुन्दर प्रस्तुति दी थी।

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