'संघ के आदमी' की छवि से खुद को बाहर लाने की चुनौती

Update: 2017-07-22 10:44 GMT

बचपन को याद करते हुए भले ही कोविंद ने कहा हो कि आज भी बहुत सारे रामनाथ कोविंद बरसात में भीग रहे होंगे, शाम के खाने के जुगाड़ में पसीना बहा रहे होंगे, वो इन लोगों के प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त में वो दलितों—गरीबों नहीं संघ और मोदी के प्रतिनिधि के रूप में ही राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं...

पीयूष पंत, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक

आखिर रामनाथ कोविंद भारत के चौदहवें राष्ट्रपति बन ही गये। उन्हें बहुत-बहुत बधाई। साथ ही पूरे देश को बधाई क्योंकि एक ऐसे समाज का व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हुआ है जो समाज सदियों से हिन्दू ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की प्रताड़ना और उपहास का शिकार रहा है।

लेकिन मैं भारतीय जनता पार्टी को उनके प्रत्याशी की जीत पर बधाई नहीं दूंगा, क्योंकि उसने दलित प्रत्याशी खड़ा कर विशुद्ध राजनीति की थी। उसने एक राजनीतिक तीर से कई निशाने साधे थे।

मसलन केंद्र और अन्य राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें काबिज़ होने के बाद दलितों पर हिंसा की घटनाओं में हो रही बढ़ोत्तरी पर पर्दा डालना, दलित प्रत्याशी खड़ा कर विपक्षी एकता के लिए तेज हो रहे प्रयासों को विफ़ल करना, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को प्रत्याशी बना नागपुर के हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की योजना में पलीता लगने की संभावनाओं को निरस्त करना और एक ऐसे व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर आसीन करवाना जो प्रधानमंत्री मोदी का खास हो और आगे ज़रूरत पड़ने पर उनके कहे अनुसार ही कार्य करे।

भले ही अपनी जीत के बाद रामनाथ कोविंद ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा हो कि आज भी बहुत सारे रामनाथ कोविंद बरसात में भीग रहे होंगे ...शाम के खाने के जुगाड़ में पसीना बहा रहे होंगे, वो इन लोगों के प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त यही है कि वो संघ और मोदी के प्रतिनिधि के रूप में ही राष्ट्रपति भवन जा रहे हैं।

इसीलिये आने वाले समय में रामनाथ कोविंद के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही रहेगी कि वे संविधान के संरक्षक की भूमिका में नज़र आते हैं या फिर संघ और मोदी के एजेंडा को निर्विघ्न आगे बढ़ने देने में सहायक के रूप में। फ़िलहाल उनके संविधान संरक्षक होने के पक्ष में यह दलील दी जा रही है कि बिहार के राज्यपाल रहने के दौरान उन्होंने नीतीश सरकार को परेशान नहीं किया।

इस दलील के समर्थन में राष्ट्रपति पद के लिए विपक्षी होने के बावजूद नीतीश द्वारा उन्हें समर्थन दिया जाना गिनवाया जा रहा है। लेकिन राज्यपाल के पद और राष्ट्रपति के पद में भारी अंतर होता है। राष्ट्रपति के अधिकार कहीं ज़्यादा शक्तिशाली और ज़िम्मेदारी कहीं ज़्यादा बड़ी होती है।

दूसरा, चाहे राज्यपाल हों या फिर राष्ट्रपति इम्तहान की असली घड़ी तो तब आती है जब संवैधानिक प्रावधानों का दुरूपयोग राजनीतिक फ़ायदों के लिए उठाया जाता है। जैसाकि कुछ समय पहले अरुणाचल और उत्तराखंड में देखा गया था। उस समय तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की भूमिका को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे थे।

तय है कि रायसीना हिल्स में निवास करना रामनाथ कोविंद के लिए चुनौती भरा होगा। देश में जिस तरह भीड़ द्वारा दलितों और अल्पसंख्यकों को हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है क्या उस पर रामनाथ कोविंद निवर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की तरह बेबाक टिप्पणी करेंगे या फिर मोदी स्टाइल में चुप्पी साधे रहेंगे?

देखना यह भी होगा कि चुने जाने के बाद अपने जैसे करोड़ों दलितों को न्याय दिलाने की दिशा में सरकार पर दवाब बनाकर वो कोई सकारात्मक पहल लेते हैं या नहीं? इस दिशा में उनका अब तक का रिकॉर्ड बहुत सकारात्मक नहीं दिखा है। ऊना, अलवर और सहारनपुर में दलितों पर हुयी हिंसा पर कोविंद का वक्तव्य देखने को नहीं मिला। वैसे भी गौरक्षक जिस तरह छुट्टा घूम रहे हैं उसके चलते आने वाले दिनों में उनके द्वारा हिंसा की और घटनाएं देखने को मिल सकती हैं। ऐसे में राष्ट्रपति कोविंद के सामने अपने भूत और भविष्य में सामंजस्य बिठाने की बड़ी चुनौती होगी।

लेकिन संभवतः सबसे बड़ी चुनौती पेश होगी संवैधानिक मसलों को लेकर। कोविंद की जीत के बाद चौड़ी हो चुकी भारतीय जनता पार्टी की गिद्धदृष्टि अब बिहार की गठबंधन सरकार पर टिकी रहेगी। वैसे भी कुछ समय से भाजपा द्वारा नीतीश को दाने डालने शुरू कर दिए गए हैं, उधर तेजस्वी यादव पर भी शिकंजा कसा जा रहा है।

मक़सद यही लग रहा है कि नीतीश लालू का साथ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के साथ आ जाएँ और दोनों मिलकर बिहार में सरकार चलाएं। यदि यह संभव न हो सके तो ऐसे हालात बना दिए जाएं कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए। बंगाल के राज्यपाल पूर्व भाजपाई केसरी को पहले ही बिहार का अतिरिक्त भार सौंपा जा चुका है। ऐसे में कोविंद के सामने संविधान की रक्षा की चुनौती खड़ी हो सकती है।

वैसे कोविंद बिहार के राज्यपाल रह चुके हैं और बिहार की राजनीति तथा समस्याओं से भलीभांति अवगत हैं। ऐसे में राष्ट्रपति शासन के बहाने बिहार की शासन-व्यवस्था चलाने के लोभ से बच पाना उन्हें मुश्किल हो सकता है। संवैधानिक चुनौती का सवाल इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि आने वाले समय में गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। अगर इन राज्यों में ख़ुदा न खास्ता त्रिशंकु विधान सभाएं गठित होती हैं तो राज्यपाल के साथ-साथ राष्ट्रपति की भूमिका भी अहम् हो जाती है।

लेकिन संभवतः सबसे बड़ी चुनौती का सामना रामनाथ कोविंद को 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद करना पड़ सकता है। हालाँकि फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी एक के बाद एक क़िले फतह करती जा रही है और 2019 का क़िला फतह करने की भी पूरी संभावना नज़र आ रही है, फिर भी अभी दो साल बाकी हैं और हालात बदलते देर नहीं लगती है।

ज़रा सन 2004 में वाजपेयी सरकार की हार को याद कीजिये। अगर 2019 के आम चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा बनती है तो वो निसंदेह राष्ट्रपति कोविंद के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। देखना होगा कि ऐसे में वो राजीव गांधी के शासनकाल के ज़ैल सिंह बनते हैं या फिर संघी होने और मोदी के मित्र होने का व्यक्तिगत धर्म निभाते हैं।

बहरहाल 2019 के पहले भी कई तरह की चुनौतियों का सामना उन्हें करना पड़ सकता है। अगले साल तक राज्यसभा में भी एनडीए को बहुमत मिलने के आसार हैं। ऐसे में मोदी द्वारा निर्वाचन क़ानून, नागरिक अधिकार क़ानून समेत अनेक क़ानूनों में फेर-बदल करने या नए कानून लाने की झड़ी लग सकती है। इस परिदृश्य में कोविंद के सामने चुनौती होगी की वे महज़ रबर स्टैम्प राष्ट्रपति दिखना पसंद करेंगे या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाये रखने की ख़ातिर एक प्रभावी राष्ट्रपति।

एक अन्य चुनौती जो राष्ट्रपति कोविंद के सामने आएगी वो है सज़ा-ए-मौत पाए अभियुक्तों द्वारा दायर मर्सी पेटीशन यानी दया की भीख के आवेदन। क्या किसी ख़ास समुदाय के अभियुक्तों को सूली पर चढ़ाया जाएगा या फिर उनका नज़रिया सबके लिए समान रहेगा? साथ ही यह भी देखने लायक होगा कि मृत्युदंड को लेकर वो उदार नज़रिया अपनाते हैं या फिर कट्टर?

इस सन्दर्भ में निवर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के कई फैसले आलोचना के केंद्र में भी रहे हैं। क्या कोविंद पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की तरह पेश आते हैं जिन्होंने उनके पास आये चौदह के चौदह दया के आवेदनों को निरस्त कर दिया था या फिर पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की तरह जिन्होंने अपने कार्यकाल में सबसे ज़्यादा 34 याचिकाओं को स्वीकार किया था और केवल तीन को निरस्त किया था।

राष्ट्रपति कोविंद पर इस बात को भी लेकर नज़र रहेगी कि विपक्षी दलों के प्रति उनका नज़रिया कैसा रहता है। क्या कोविंद विपक्षी दलों के प्रतिनिधि मंडलों को उसी तरह का सम्मान देंगे, जैसा प्रणब दादा दिया करते थे?

हालांकि रामनाथ कोविंद ने कहा है कि वे बतौर राष्ट्रपति, संविधान की गरिमा को बनाये रखेंगे। लेकिन इस पर फ़ैसला तो आने वाला समय ही दे पायेगा।

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