मौत से बदतर जीवन जीते हैं रोहिंग्या मुसलमान

Update: 2017-09-09 12:36 GMT

बर्मा में अपने को अहिंसक कहने वाली बौद्ध धर्म अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिम और हिन्दुओं पर हिंसक हमले कर रहे हैं। ‘अहिंसक धर्म’ का अत्याचार इतना क्रूर है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने रोहिंग्या को दुनिया के सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों में से एक माना है...

अशोक कुमारी

मैंने एमफिल के दौरान ‘बौद्ध धर्म के राजकीय संरक्षण’ विषय पर काम किया। उस शोध में निष्कर्ष निकला कि जब भी किसी देश कि सत्ता पर जिस धर्म के मानने वाले आसीन रहते हैं, वह उसी धर्म को संरक्षण (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सहयोग) प्रदान करते हैं और उस धर्म का प्रचार प्रसार भी करते हैं।

इस प्रचार—प्रसार के लिए सत्तासीन धर्म के मानने वाले अन्य धर्म व समुदाय के लोगों पर अत्याचार करने लगते हैं, जैसे कि हिटलर ने नाजी धर्म को बढ़ावा देने के लिए लाखों यहूदियों को मरवा डाला था। इसी तरह भारत के सन्दर्भ में देखें तो बहुसंख्यक कट्टरपंथी लोग इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अपसंख्यकों (खासकर मुसलमानों) पर हमले कर रहे हैं।

श्रीलंका में तमिलाें के साथ हो रहा है, वहां का बहुसंख्यक बुद्धिस्ट, अल्पसंख्यक तमिलों पर वर्चस्व रखते हैं। पाकिस्तान से भी वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं की उत्पीड़न की खबर आती रही है। इसी कड़ी में बर्मा (म्यांमार) में बुद्धिस्ट रोहिंग्या मुसलमानों के साथ कर रहे हैं।

दुनिया में बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों पर वर्चस्व बनाकर रखना चाहते हैं, बहुसंख्यक कट्टरपंथी के सत्ता में आते ही उन पर पहले से ज्यादा अत्याचार बढ़ जाता है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगता है। इसी तरह बर्मा में अपने को अहिंसक कहने वाली बौद्ध धर्म अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिम और हिन्दुओं पर हिंसक हमले कर रहे हैं। ‘अहिंसक धर्म’ का अत्याचार इतना क्रूर है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने रोहिंग्या को दुनिया के सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों में से एक माना है।

वर्ष 2014 की जनगणना के अनुसार बर्मा की जनसंख्या 5.5 करोड़ के आसपास थी जिसमें 87.9 प्रतिशत बौद्ध, 6.2 प्रतिशत क्रिश्चियन, 4.3 प्रतिशत इस्लामी, .5 प्रतिशत हिन्दू तथा .8 प्रतिशत आदिवासी हैं।

वर्मा से भागकर रोहिंग्या लाखों की संख्या में श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, भारत सहित कई देशों में शराणार्थी के रूप में रह रहे हैं। रोहिंग्या समुदाय को बर्मा की नागरिकता प्राप्त नहीं है। बौद्ध उनको बाहर से आये हुये बताते हैं जबकि रोहिंग्या समुदाय का इतिहास बर्मा में लगभग 600 वर्ष पुराना है।

एक अनुमान के मुताबिक दस लाख रोहिंग्या मुसलमान कई पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं, जिन्हें दक्षिणी म्यांमार में रखाईन (अराकान) प्रान्त में मुगलों ने बसाया था। सन 1948 आजादी के पश्चात ब्रिटिश शासकों ने बर्मा को बौद्ध बर्मियों के हाथों सौंप दिया था।

वर्ष 1985 में बर्मा के बौद्धों ने दक्षिणी प्रांत रखाईन (अराकान) पर कब्जा कर लिया था, तब से आज तक यहां से रोहिंग्या मुसलमानों के सफाए का दौर चल रहा है, बर्मा के बुद्धिस्ट इसे प्रजातीय सफाये की संज्ञा देते हैं।

वर्ष 2010 के चुनाव में रोहिंग्या समुदाय ने वोट डाला था, उसके बाद उनसे वोट डालने का अधिकार भी छीन लिया गया। रोहिंग्या को बर्मा में एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिये पुलिस से परमिशन की जरूरत होती है, यहां तक कि इलाज तथा शादी तक के लिये भी परमिशन लेना होता है।

जानवरों के बच्चे पैदा करने से लेकर मरने तक की सूचना पुलिस थाने में दर्ज करानी पड़ती है। जानवरों के मरने या घर जल जाने पर भी सरकार को रोहिंग्या समुदाय हर्जाना देता है। फसलों का एक हिस्सा सरकार को देना पड़ता है। सैनिक उनको अपने ठिकानों पर ले जाकर काम करवाते हैं, पहरा दिलवाते हैं, जहां पर उनको हमेशा जागना होता है।

थोड़ी—सी आंख लगने पर उनके साथ अमानवीय बर्ताव किये जाते हैं तथा हर्जाना वसूला जाता है। महिलाओं के साथ बलात्कार आम बात है। एक अनुमान के मुताबिक रखाइन प्रांत में रोहिंग्या की आबादी करीब दस लाख है जो और प्रांतों से सबसे ज्यादा है। तीन दशक बाद 2014 में जब बर्मा की जनगणना हुई तो अधिकारियों ने रोहिंग्या मुसलमान के नाम पर जनगणना करने से मना कर दिया और कहा कि वह अपने आप को बंगाली मुसलमान पंजीकृत करवाएं, अन्यथा उनका पंजीकरण नहीं किया जायेगा।

बर्मा में खुलेआम रोहिंग्या मुसलमानों का कत्लेआम किया जा रहा है। रोहिंग्या महिलाओं के साथ बलात्कार हत्या आम बात है। इनके शिविरों मे बिजली—पानी की सुविधा खत्म कर दी गई, जिससे कि ये लोग दाने—दाने तथा पीने के पानी तक के लिए तरस रहे हैं।

अपनी जान बचाने की खातिर ये लोग मानव तस्करी करने वालों, मछुआरे व बिचौलियों का शिकार होते जा रहे हैं। मछुआरे बिचौलिए इन्हे नदी पार कर बंग्लादेश भेजने की एवज में इनके पास जो थोड़ा—बहुत रुपया पैसा होता है वह ले लेते हैं और छोटी—छोटी नावों मे इन्हें जानवरों की तरह ठूंसकर नदी पार कराते हैं जिसमें से अधिकतर बंग्लादेश पहुंचने से पहले ही डूबकर मर जाते हैं।

बचे हुए लोग बंग्लादेश पहुंचते है फिर उन्हें वहां से खदेड़ा जाता है। बंग्लादेश की सीमा पर अभी 3 लाख रोहिंग्या मुुसलमान हैं। बंग्लादेश सरकार इन्हें जलिसाचार टापू तथा थेंगाचार टापू पर बसाने की सोच रही है, परन्तु इन टापुओं पर कोई सुविधा नहीं है।

बरसात के समय ये टापू 70 फीसदी तक डूब जाते हैं। ऐसे में इन्हें यहां बसाना डूबों कर मार देने के बराबर है। इसी तरह भारत से भी उनको वापस बर्मा भेजने पर विचार किया जा रहा है। रोहिंग्या ने इस विचार के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली है, जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत से निकाले जाने पर उनकी मृत्यु निश्चित है जो भारतीय संविधान के तहत मिले जीवन के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन है।

बौद्ध धर्म की उत्त्पति का मूल कारण
बौद्ध धर्म कि उत्त्पति ब्राह्मण धर्म मे उत्पन्न जातीय कट्टरता, पशुबलि, हिंसा, छुआछूत तथा धार्मिक कुरीतियों के प्रतिक्रिया स्वरूप हुई। तथागत बुद्ध ने जनमानस के दुखों को देख अपना महल छोड़ दिया। गौतम बुद्ध समाज में उत्पन्न दुखों के कारणों की खोज तथा उसे दूर करने के प्रयत्न में लग गए। यहीं से बौद्धधर्म की उत्पति हुई।

विश्व भर में बौद्ध धर्म करुणा, मैत्री व शान्ति के लिए प्रसिद्ध है। बौद्ध धर्म के दर्शन प्रतित्यसमुत्पाद व मध्यममार्ग काम, लोभ, इच्छा, तृष्णा, हिंसा, जैसी व्याधियों से बचना, तथा प्राणी रक्षा, प्रेम, करुणा, मुदिता, मैत्री पर आधारित है। परन्तु सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव मे आज तथागत बुद्ध के वचनों पर अमल किया जा रहा है?

भले ही बौद्ध धर्म अनेक निकायों में बंटा परन्तु प्रेम, मैत्री, मुदिता अहिंसा जैसे मूल सार मे कोई परिवर्तन नहीं हुआ। परन्तु आज कुछ देश ऐसे हैं जहां बौद्ध धर्म सत्ता में होने के बावजूद अल्पसंख्यकों पर हमले हिंसा आदि हो रहे हैं।

तथागत बुद्ध ने मानव रक्षा को धर्म सर्वोपरि माना था। इसी मानवतावादी धर्म का संदेश विश्वभर में फैलाया। बौद्ध धर्म के पास मैत्री सबसे बड़ा बल है जिसने सम्पूर्ण विश्व को अपने में समेटे हुए है, परन्तु बर्मा के बुद्धिस्ट की भूमिका कुछ और ही नजर आती है।

बर्मा के बौद्ध भिक्षु असिल मिराथु रोहिंग्या मुसलमान विरोधी प्रचार अभियान में सबसे आगे हैं। इस विषय पर बर्मा की संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अनेक मानवाधिकार संगठनों ने तीखी आलोचना की, परन्तु बर्मा को इससे कोई फर्क नही पड़ता कि विश्वभर में उसकी कैसी आलोचना हो रही है।

इस विषय पर बर्मा एक तानाशाह की भूमिका निभा रहा है। लोकतान्त्रिक कही जाने वाली आंग सांन सू की सरकार भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। आज भी म्यांमार की मुख्य शक्तियां सेना के पास हैं। ऐसे में एक बुद्धिस्ट होने के नाते हमें बौद्ध धर्म के व्यवहार व सिद्धांत पर पुनः विचार किया जाना चाहिए तथा बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों पर किए जा रहे अत्याचार व अमानवीय हिंसा का विरोध करना चाहिए जो बौद्ध धर्म के मानवतावाद के लिए अत्ंयत आवश्यक है।

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग में शोधार्थी हैं।)

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