कोर्ट मार्शल में एक सैनिक का बयान

Update: 2018-11-19 12:45 GMT

'कोर्ट मार्शल में एक सैनिक का बयान' रोहतक में रह रहे युवा कवि संदीप सिंह की एक संवेदनशील सैनिक की भावनाओं को बयां करती कविता है, जिसका कोर्ट मार्शल हो चुका है और वह जज को वह सबकुछ बता रहा है जो उसने देखा—भोगा—झेला, यह कविता हर तथाकथित 'देशभक्त' को एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। आइए पढ़ते हैं 'कोर्ट मार्शल में एक सैनिक का बयान'

जब मैं पैदा हुआ

मेरा स्वागत थालियों की गड़गड़ाहट से हुआ

इस मिथ के साथ

कि मैं निडर रहूं हमेशा

मुझे बहन से अलग

खिलौने दिए

बहन गुढ़िया के साथ खेलती थी

डरी-सहमी घर के कोने में

और मैं गलियों में

प्लास्टिक की बंदूक से

चोरों का पिछा करता था

इस तरह बचपन से

एक सैनिक में ढाला गया मुझे।

घर-आसपड़ोस और स्कूल में

ईमानदारी, सच्चाई की जीत होगी

शब्द सुनते हुए बड़ा हुआ मैं

मेरे गांव में

किसी को नहीं मालूम

अफसर कैसे बनते हैं

वो बस इतना जानते हैं

एक सैनिक बनने के लिए

दसवीं पास होना काफी है

मेरे माता-पिता सुबह सायं

किसी के भी पूछने पर

गर्व से सिर ऊंचा करके कहते

देखना हमारा बेटा फौजी बनकर

देश का नाम रौशन करेगा

फौजी बनने की लगन में

मैं सुबह चार बजे उठता

कड़कती ठंड और

रूला देने वाली गर्मी के बीच

ताकि परिवार के सपने पूरे कर सकूं

मेरे फौजी बनने में

मेरी बहन ने बड़ा त्याग किया

दूध पीना यह कहकर छोड़ दिया

दूध मुझे अच्छा नहीं लगता

घी खाना लड़कों का काम है

और इसलिए

बहन का हीमोग्लोबीन

दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर पाया

मैंने दसवीं पास करते ही

पड़ोसियों से किराया उधार लेकर

भर्तियों में जाना शुरू किया

पहली भर्ती में ड्यूटी पर तैनात सैनिक ने

भर्ती प्रक्रिया समझाने से पहले

गालियों की झड़ी लगा दी

मुझे गुस्सा आया

और प्रण लिया मैं किसी को

गाली नहीं दूंगा

इस तरह सैनिक भर्तियों के अनुभव

मिट्ठे कम, खट्टे ज्यादा रहे

आखिर धक्के खाते हुए

उम्र के आखिरी पड़ाव पर

सेना में भर्त्ती हो गया

फोन की घंटिया झनझना उठीं

दोस्तों और रिश्तेदारों की

ट्रेनिंग के लिए

सभी मुझे विदा करने आए

भरी आंखों के साथ

लेकिन मैंने सबको हंसते हुए

विदा किया

मगर बस में बैठकर खूब रोया

देश से बढ़कर मेरे लिए कुछ नहीं था

और आज भी कुछ नहीं है

ट्रेनिंग कैंप में

अफसर हमेशा अफसर रहे

सैनिक, सैनिक नहीं

गुलाम बनाए गए

बात-बात पर गाली देना

अफसर अपनी शान समझते थे

ट्रेनिंग करते हुए खुजली होने पर

लौह अनुशासन का बहाना बना

सबके बीच नंगा कर दिया जाता

घंटों ऊपर हाथ करवाए जाते

ठोकरें मारी जाती फुटबाल की तरह

मुर्गा बनाकर चक्कर लगवाए जाते ग्राउंड के

मूर्छित होकर गिरने तक

मैं सबकुछ बर्दाश्त करता रहा

एक सच्चा व ईमानदार सैनिक बनने के लिए

इस तरह ट्रेनिंग के नाम पर

ब्रेनवॉश किया जाता

इंसान से इंसानियत छिनी जाती

वहां हमेशा बताया जाता

जनता को डराना जरूरी है

जनता डरे

इसलिए हथियार चलाना जरूरी है

कभी नहीं बताया

जनता को प्यार से भी जीता जा सकता है

मैंने अपनी इंसानियत को जिंदा रखा

उन गालियों और नौकरशाही के बीच

जज साहब, बस मेरा यही कसूर है

ट्रेनिंग कैंपो में

इंसानियत बचाए रखना

एक युद्ध के समान है

मैं हर सायं खुद से लड़ता

और याद करता वो दिन

जब पिता ठंड में कांपते

और मुझे मंहगे कोट-जूते दिलाते

मां मेरे लिए चूरमा बनाती

और फिर बहन के साथ

लाल मिर्च की चटनी से रोटी खाती

इस तरह ट्रेनिंग की यादें

कभी खुशनुमा नहीं रही मेरे लिए

मेरी पहली पोस्टिंग

भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर हुयी

ट्रेनिंग कैंप में

मुझे बताया गया था

पाकिस्तान हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है

जब दुश्मन की आंखों में आंख मिलाई

तो देखा, उसे भी मेरी तरह

बलि का बकरा बनाया गया है

जो उम्र में मुझसे बड़ा है

उसके और मेरे बीच

कुछ खास फासला नहीं था

इसलिए मैंने गुस्से से पूछा -

सुना है तुम

भारत को नक्शे से मिटाना चाहते हो?

उसका जवाब इतना सीधा था

कि मैं फिर कोई सवाल नहीं कर सका

उसने कहा-

"नहीं बेटा, मैं अपने बाप का कर्ज उतारने

सेना में भर्ती हुआ था

जो कभी नहीं उतरा"

इस तरह उसने

मेरे मुंह की बात छिन ली

और मेरी आंखों में

बैंक की दराजों में रखी

खेत की फाईल घूमने लगी

जबतक वो वहां रहा

मैं उससे हमेशा चाचा कहकर बातें करता रहा

वो ईद पर सेवइयां खिलाता

और मैं दिवाली पर मिठाइयां

जज साहब, बस मेरा यही कसूर है

मेरी अगली पोस्टिंग मणिपुर में हुयी

जहां आफस्पा के तहत

हमें कुछ भी करने की छूट दी गई

अब दुश्मन पाकिस्तान नहीं

मेरे अपने देश के लोग थे

हम कैंपों से बाहर

झुंड के झुंड निकलते

गांवों में घूसने से पहले

हजारों हवाई फायर करते

लोग डरकर अपनी झोंपडियां छोड़

जंगलों-पहाड़ों में चले जाते

जो बुजुर्ग घरों में मिलते

उन्हें घसीटते हुए चौक में एकत्रित करते

और बंदूक की नली गर्दन पर रख पूछते -

कहां छुपे हैं तुम्हारे देशद्रोही बच्चे?

वो हमेशा जंगल की ओर सिर उठाते

हताश, निराश अफसर

झुंझलाते हुए ताबड़तोड़ गोलियां चलाता

और प्रेस स्टेटमंट देता

हमने दस विद्रोहियों को

ढेर कर दिया

फिर हम घरों का सामान

सड़को पर फेंकते

बकरी और मुर्गियां चुराते

आते हुए घरों में आग लगा देते

और इस तरह लोगों को

मुख्यधारा में लाने की कोशिश करते

लेकिन मैंने कभी गोली नहीं चलायी

चुरायी गयी मुर्गी और बकरी का

कभी गोश्त नहीं खाया

बीड़ी पीना भी बंद कर दिया

मेरी जेब से निकली दियासलाई से

मैं किसी जलते घर को नहीं देख सकता

जज साहब, मेरा यही कसूर है

आफस्पा, ने संविधान के प्रति

प्यार नहीं नफरतें भरी हैं

वह मेरी ही बटालियन थी

जिसने मनोरमा को उठाया था

और बलात्कार के बाद

मौत के घाट उतार फेंक दिया सड़कों पर कि लोग डरें

लेकिन, लोग डरे नहीं

अगले ही दिन सैंकड़ों नग्न महिलाएं

गगनभेदी नारों के साथ

कैंप गेट पर प्रदर्शन कर रही थी

*आओ भारतीय आर्मी हमारा रेप करो*

उन नारों ने

कई रातों तक मुझे सोने नहीं दिया

मैंने अपने अफसर से कहा-

"सर दोषियों को सजा मिलनी चाहिए

आज दोषी बचते हैं तो कल

रेप सामान्य घटना बन जाएगी"

इसके बदले कई दिनों तक

मुझे खाना नहीं दिया

मैं सिर्फ आदेशों का पालन करूं

मशीन की तरह चुपचाप खटता रहूं, इसके लिए -

मुझे महीनों एकांत में रखा

मगर मेरी संवेदनाएं जिंदा रही

जज साहब, मेरा यही कसूर है।

मेरी आखिरी पोस्टिंग छत्तीसगढ़ रही

जहां मुझे नक्सलियों से लड़ना था

मैंने संविधान को फिर से पढ़ा

क्योंकि मैंने

संविधान पर हाथ रखकर कसम खायी थी

ना अन्याय सहन करूंगा और ना अन्याय होने दूंगा

5वीं अनुसूची किसी को इजाजत नहीं देती

कोई बाहरी व्यक्ति जंगल पर कब्जा करे

और हम जंगल में

हजारों टन गोले बारूद के साथ उतरे

जज साहब पहले गुनाहगार तो हम ही हैं जिन्होंने

आदिवासियों की शांति भंग की है

छत्तीसगढ़ के जंगलों को भेदने

हम हजारों की संख्या में निकलते हैं

और पकड़ लेते हैं

एक बारह-तेरह साल की लड़की को

निचोड़ते हैं उसके स्तन

जब दूध नहीं उतरता छाती में

यह तो पक्का नक्सली है कहकर

मुंह में रायफल ठूंस गोली चला देते हैं

और भारत मां की जय बोलते हैं

मैं इस वक्त भी सबसे पीछे खड़ा था

जज साहब, मेरा यही कसूर है

इस घटना ने मेरी भूख, नींद प्यास

सब खत्म कर दी

जब मनोरमा के साथ रेप हुआ था

उसके कई साल बाद

रेवाड़ी में रेप करने वाला सैनिक ही था

इसलिए मैं डर गया

जब कोई सैनिक अपने घर लौटे

वह इतना संवेदनहीन न हो जाए

कि गलियों में खेलती बच्चियों को

चाकलेट के बहाने घर बुलाए

और स्तनों से दूध न आने पर

रायफल न सही

उसे चाकू या किसी और हथियार से

देशद्रोही कहते हुए मौत के घाट उतार दे

इसलिए मैंने

आतंकवाद और नक्सलवाद को समझने की कोशिश की

जज साहब, मेरा यही कसूर है

आतंकवादी यहां थे नहीं

नक्सलियों से मिलना खतरों से भरा था

मैंने जंगलों में पेड़ों पर लगे

नक्सलियों के पर्चे पढ़े

उन पर्चों में भगतसिंह की फोटो देख

मेरी आंखें खुली की खुली रही

घर जब छुट्टी आया

संपूर्ण भगतसिंह भी खरीद लाया

खुद भी पढ़ा महबूब को भी पढ़ाया

इस तरह समझ में आया

सरकार महज कठपुतली है

जो अडाणी, अंबानी के इशारों पर नाचती है

जो देशभक्ति के नाम पर

नकली दुश्मन खड़े कर रही है

आतंकवाद, नक्सलवाद तो बहाना है

असली मकसद पूंजीपतियों को

कच्चा माल उपलब्ध करवाना है

अब मैं मानता नहीं

हर चीज जानना चाहता हूं

जज साहब, मेरा यही कसूर है।

मैं फिर छतीसगढ़ जाता हूं

और संविधान रक्षा का दायित्व खूब निभाता हूं

जनांदोलनों पर

लाठी, गोली नहीं चलाता

गीत कैंपों में संविधान के गाता हूं

मुझे उड़ाओ गोली से या

फांसी पर लटकाओ

सुलगा आया हूं आग छावनी में

हर सैनिक अब इंकलाब बोलेगा

जज साहब, मेरा यही कसूर है

कि मैं इंकलाब गाता हूं

हां मैं इंकलाब गाता हूं...

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