सारे जनप्रतिनिधि गांवों में न रहकर शहरों में रहते हैं, परिवार शहरों में बस जाता है और गांवों में बस अधिकारियों की तरह ही दौरा करने भर जाते हैं। गमी, शादी, विवाह इसलिए नहीं छोड़ते कि उसी से इनका वोट बैंक बनता है...
राजकुमार सचान होरी
सत्ता को दलीय आधार के अलावा एक अन्य आधार पर देखेंगे तब किसानों की दुर्दशा 1947 के बाद की ही नहीं, अपितु पहले की भी समझ जायेंगे। आइये सत्ता का चरित्र समझते हैं। सत्ता के चार स्तम्भों को एक एक कर समझते हैं।
पहले कार्यपालिका जिसमें कर्मचारी और अधिकारी आते हैं। इस वर्ग में शहरों में रहने वाले परिवारों से काफी संख्या में आते हैं जो कभी कभार गांव गये भी होंगे, तो पिकनिक मनाने। फिर जब सरकारी सेवाओं या प्राइवेट सेवाओं में आये तो इनको न गांव का अनुभव होता है न ही विशेष लगाव।
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ग्रामीण विकास इनके लिए बस सरकारी कर्तव्य भर होता है जिसमें इनकी रुचि आंकड़े बनाने, गिनाने, दिखाने में ज्यादा होती है। इनके शहरी परिवारों का वातावरण भी कभी किसानों से सहानुभूति का नहीं रहा तो ये किसान हितैषी संस्कार कहां से पाते।
इस वर्ग में दूसरे वे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से आये तो हैं पर सबके सब सेवा काल में किसी न किसी कस्बे, नगर या महानगर में रहने लगे। यद्यपि ये किसानों की योजनाओं में दूसरों की अपेक्षा मन अधिक लगाते हैं, परन्तु धीरे धीरे शहरी वातावरण में रहते रहते ये भी गांवों और किसानों व कृषि मजदूरों के लिये बाहरी से होने लगते हैं।
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ये लोग 100% क्या 50% दे लें तो बड़ी बात। इनकी कोशिश यही रहती है कि इनके परिवार में जो गांव में रह गये हैं उन्हें भी शहरों में ले आयें। समस्त कार्यपालिका किस तरह और कितना ग्रामीण और किसान हितैषी बचता है आप खुद जान सकते हैं।
अब विधायिका पर चर्चा करते हैं। यद्यपि विधायकों, सांसदों की सीटें शहरी से अधिक ग्रामीण हैं। पर यह देखना बड़ा तर्कसंगत है कि जो शहरी क्षेत्रों के जनप्रतिनिधि हैं वे तो किसानों, ग्रामीणों के लिये कान, आंख बन्द रखते ही हैं लेकिन जो ग्रामीण क्षेत्रों के जन प्रतिनिधि हैं वे भी केवल वोट मांगने, शादी विवाह, गमी मे ही वहां जाते हैं या फिर किसी दुर्घटना में बस।
शिलान्यास, उद्घाटन के समय को छोड़ दें तो किसानों, गांवों से इनका कुछ लेना देना नहीं। ऐसा क्यों होता है? ये सारे के सारे जनप्रतिनिधि गांवों में न रहकर शहरों में रहने लगते हैं, इनका परिवार शहरों में बस जाता है और ये गांवों मे बस अधिकारियों की तरह ही दौरा करने भर जाते हैं। अलबत्ता ये गमी, शादी, विवाह इसलिए नहीं छोड़ते हैं कि उसी से इनका वोट बैंक बनता है।
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यह आदत और तरीका हर पार्टी के नेता का होता है तो किसान, ग्रामीण करे तो क्या करे? सारी की सारी विधायिका एक सी। ये कभी इसको हराते हैं कभी उसको पर जन प्रतिनिधि तो सारे के सारे शहरी मिट्टी के बन जाने के कारण इनके लिए घड़ियाली आँसू ही बहाते हैं। इस तरह किसान और ग्रामीण विधायिका से लगातार ठगा जाता है।
न्यायपालिका और मीडिया को एक साथ लेते हैं। न्यायपालिका का चरित्र तो हमेशा शहरी रहा कार्यपालिका की तरह ही। ये किसी न किसी शहर में रहते हैं और रिटायर होने पर भी नगरों में ही बस जाते हैं। ग्रामीण बेचारा तो हो सकता है, पर उसके लिए समय ही कहां। कार्य भी शहरों में और कार्य के बाद भी शहरी जीवन।
कहां किसानों, ग्रामीणों की समस्याओं से आमना सामना पड़ता है। अधिक से अधिक मुवक्किल के रूप में किसान, गांव वाला दिख गया। बोल वह भी नहीं सका वकील साहब जो हैं जिनका सबसे बड़ा काम तारीख पर तारीख लेना भर होता है।
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अब चतुर्थ स्तम्भ -मीडिया की बात कर लें। इसका तो इतना शहरी चरित्र होता है कि अगर गांवों में आपदायें न आयें, किसान आत्महत्या न करें, देशी शराब पीकर ग्रामीण न मरें, गांव की बालिकाओं से बलात्कार न हो तो समाचार ही न बने। या फिर नेता या अधिकारी का दौरा हो जाये तो प्रायोजित मीडिया रहेगा ही।
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सत्ता के चारों पाये शहरी थे, हैं और सम्भावना है कि रहेंगे भी। जब तक सत्ता का चरित्र नहीं बदलेगा बहुत उम्मीद इस व्यवस्था से नहीं है। इसलिए किसानों, ग्रामीणों का उत्थान हो, विकास हो, आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। अगर एक ही कदम उठा लिया जाय कि ये चारों वर्ग अपनी सेवाकाल का आधा समय गांव में रहेंगे या इसी तरह का कोई उपाय तो फिर देखिये गांवों, किसानों का भाग्य बदल जाये।
(पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राजकुमार सचान होरी बौद्धिक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)