सिर्फ सड़कों पर दूध गिराते, सब्जी—फल फेंकते किसानों को ही नहीं उनके असल सवालों को भी दिखाए मीडिया
घिसी हुई, मरम्मत की हुई चप्पलें, फटी हुई एड़ियां, सूखे खेतों की धूल, बदरंग होते कपड़े, माथे पर गहरी पड़ती लकीरें धीमी चाल चलता आसमान की ओर ताकता किसान इस बेरहम मीडिया में क्यों नहीं दिखाई देता...
गिरीश मालवीय का विश्लेषण
एक छोटा सा सवाल है, विचार जरूर कीजिएगा 'किसान की तकलीफ़ हमारे आधुनिक समाज में महत्व क्यों नहीं रखती? हम उसे अन्नदाता कह तो देते हैं पर उसकी जरूरतों उसकी परेशानियों के साथ कोई तादात्म्य नहीं बिठा पाते!
कल दिन भर की सुर्खियां क्या थी? किसी दिनेश शर्मा ने सीता माता को टेस्ट ट्यूब बेबी बता दिया, किसी अधेड़ प्रोफेसर का डांस चर्चा का विषय बन रहा है, कैराना की हार पर स्थानीय विधायकों के बयानों को दिखाया जा रहा है?
देश के 7 राज्यों में चल रहा किसानों का आंदोलन हमारे विमर्श में कहीं नजर नहीं आता, महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है तो हजारों गाँवों में जो यह आंदोलन चल रहा है, उसकी हम खोज खबर क्यों नहीं लेते?
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सैकड़ों न्यूज़ वेबसाइट और दसियों न्यूज़ चैनल को खंगालने के बाद यह आपको बता रहा हूँ कि इन सभी में सिर्फ एक ही छवि दिखाई जा रही है, किसान सड़कों पर दूध ढोल रहा है किसान अपनी सब्जियां फेंक रहा है।
घिसी हुई, मरम्मत की हुई चप्पलें, फटी हुई एड़ियां, सूखे खेतों की धूल, बदरंग होते कपड़े, माथे पर गहरी पड़ती लकीरें धीमी चाल चलता आसमान की ओर ताकता किसान इस बेरहम मीडिया में क्यों नहीं दिखाई देता।
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यह एक नैरेटिव सेट किया जा रहा आंदोलन के खिलाफ कि आपके बच्चे दूध को मोहताज हो रहे हैं और किसान दूध सड़क पर बहा रहा है? आगे रहकर यह बताने के प्रयास नहीं किये जा रहे कि ऐसा किसान आखिर कर क्यों रहा है?
इस सरकार में सबसे अधिक यदि बदहाल कोई है तो वह किसान ही है, किसान कहता है कि उसे कर्जमुक्त किया जाए तो क्या गलत कहता है। इस देश में बड़े उद्योगपतियों के हजारों लाखों करोड़ के कर्ज माफ किया जा सकता है, लेकिन किसान के कर्ज़ माफी की बात सुनकर देश के वित्तमंत्री की भृकुटि तन जाती है।
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यदि जिओ के आने से एयरटेल, आइडिया ओर वोडाफोन को नुकसान हुआ है, तो उन्हें स्पेक्ट्रम शुल्क माफ किया जा सकता है लेकिन किसानों का कर्जा माफ नहीं किया जा सकता।
दिवालिया कानून में हजारों करोड़ रुपये के लोन लिए उद्योग कुछ सौ करोड़ में दूसरे उद्योगपति को दिया जा सकता है, उसका घाटा बैंक उठा सकते हैं लेकिन किसानों का कर्ज माफ नहीं हो सकता।
कर्ज का दबाव इतना है कि किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का रिकॉर्ड बताता है कि बीते दो दशक में (1995-2015) तक देशभर में 3.22 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यानी हर आधे घंटे में एक किसान निराश होकर मौत को गले लगा लेता है। 80 फीसदी किसान बैंक लोन न चुका पाने की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं।
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कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के मुताबिक "2016 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार देश के 17 राज्यों में किसानों की सालाना आय सिर्फ 20 हजार रुपये है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी कम है।
13 अप्रैल 2016 को 'डबलिंग फार्मर्स इनकम कमेटी' का गठन किया गया। कुछ दिनों पहले कमेटी के चेयरमैन डॉ. अशोक दलवाई से पूछा गया कि मोदी सरकार में किसानों की आय कितनी बढ़ी है, तो उनके पास कोई सही-सही जवाब नहीं था।
ये हालत है किसानों की और सरकार कहती है कि किसानों की आमदनी हमने डेढ़ गुनी कर दी है। अगर आमदनी डेढ़ गुनी की है, तो किसान नाराज क्यों है? सच्चाई यह है किसान की आमदनी के संदर्भ निगेटिव ग्रोथ हुई है, उसे जितने पैसे अपनी फसल के 4 साल पहले मिलते थे उससे भी कम मिल रहे हैं।
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यह पोस्ट किसानों द्वारा किये जा रहे हिंसात्मक व्यहवार का समर्थन नहीं करती, लेकिन किसान की समस्याओं को जब तक सरकार वास्तविक रूप में हल करने का प्रयास नहीं करती तब तक यह आंदोलन यू ही चलता रहेगा। किसानों ने सरकारी वादों पर बहुत यकीन कर लिया, अब उसने कुछ कर दिखाने की ठानी है, जिसका हमें पुरजोर समर्थन करना होगा।