सिर्फ 12 दिन में होगी 80 फीसदी बारिश, बाढ़ का खतरा अब पहले से ज्यादा

Update: 2019-02-12 07:00 GMT

यूनिवर्सिटी आफ नटिंघम के वैज्ञानिकों के अध्ययन के मुताबिक भारत में बढ़ते तापमान और प्रदूषण के कारण बारिश की अवधि और घटेगी और वह 12 दिन में ही देश में सर्वाधिक बारिश होगी

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय की रिपोर्ट

मानसून भारतीय अर्थव्यवस्था और कृषि के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। आधे से अधिक कृषि व्यवस्था और करोड़ों किसानों की उम्मीदें इसी पर टिकी हैं, फिर भी भारतीय मानसून के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है। यह और भी आवश्यक इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि इसे प्रभावित कर सकता है।

हमारे देश में सामान्य मानसून मई से सितम्बर तक रहता है, इसे दक्षिण-पश्चिम ग्रीष्म मानसून कहा जाता है, जबकि अक्टूबर से दिसम्बर तक दक्षिण भारत में मानसून का असर रहता है, जिसे उत्तर-पूर्व भारतीय मानसून के नाम से जाना जाता है।

अभी तक यही माना जाता रहा है कि उत्तर-पूर्व मानसून का समय अक्टूबर से दिसम्बर तक रहता है पर इसके आरम्भ होने और समाप्त होने की वास्तविक तिथि नहीं पता थी। यह मानसून दक्षिण भारत में अधिक सक्रिय रहता है। इसका पूर्वानुमान भी दो-तीन दिनों पहले ही हो पाता था, जबकि नए अध्ययन का दावा है कि अब इसके आने की सूचना 2 सप्ताह पहले और इसके जाने की सूचना 6 सप्ताह पहले उपलब्ध कराई जा सकती है।

फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के मौसम वैज्ञानिक वासु मिश्र ने इस नए अध्ययन का आधार सतही तापमान को बनाया है। इस अध्ययन के आधार पर उत्तर-पूर्व मानसून 6 नवम्बर से 13 मार्च तक सक्रिय रहता है। पुराने अनुमानों में इसे महीने के आधार पर बताया जाता था, और महीने थे अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर।

मिश्र के अनुसार इन तीन महीनों में उत्तर-पूर्व मानसून की 30 से 60 प्रतिशत तक वर्षा होती है। सतही तापमान सीधा-सीधा स्वास्थ्य और कृषि से जुड़ा है, इसलिए इसका महत्व और बढ़ जाता है। वासु मिश्र का यह अध्ययन मन्थली वेदर रिव्यु नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

वासु मिश्र के अध्ययन के अनुसार मानसून के आने की सूचना 2 सप्ताह पहले उपलब्ध कराई जा सकती है। किसानों के लिए एक-एक दिन महत्वपूर्ण होता है और दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर कृषि मानसून पर आधारित है। ऐसे में दो सप्ताह के समय में किसान आसानी से खेतों को तैयार कर बुवाई कर सकेंगे।

वर्ष 2016 में पोस्टडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के वैज्ञानिकों ने दक्षिण पश्चिम मानसून, जो पूरे भारत का मुख्य मानसून है, के बारे में महत्वपूर्ण अध्ययन प्रकाशित किया था। यह अध्ययन जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन का आधार स्थानीय मौसम के आंकड़ों को बनाया गया है, जो आसानी से उपलब्ध रहते हैं। इस अध्ययन का दावा है कि इस आधार पर मानसून का पूर्वानुमान बहुत पहले ही किया जा सकेगा।

इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने उत्तरी पाकिस्तान से पूर्वी घाट तक के तापमान, आर्द्रता और दूसरे आंकड़ों का विश्लेषण किया और इसमें बाद्लाव के आधार पर मानसून का सटीक विश्लेषण किया जा सकता है। परम्परागत मानसून विश्लेषण में केवल केरल के सागर-तटीय क्षेत्रों को ही मानसून का आधार माना जाता रहा है। दक्षिण-पश्चिम मानसून, जिसे भारतीय मानसून भी कहते हैं, किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और इसी दौरान धान, सोयाबीन और कपास जैसी फसलों की बुवाई की जाती है।

यदि इन किसानों को मानसून के आने की सटीक सूचना मिल जाए तब उनका बहुत भला हो सकता है। यह मानसून आम तौर पर जून से सितम्बर तक सक्रिय रहता है। मानसून के पूर्वानुमान के नए तरीके को वैज्ञानिकों ने वास्तविक आंकड़ों से तुलना करने पर देखा कि यह तरीका 80 प्रतिशत से अधिक सटीक जानकारी देता है।

वर्ष 2014 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ नाटिंघम के वैज्ञानिकों ने बताया कि भारत में तापमान वृद्धि के कारण मानसून 15 दिन देर से आएगा। कुछ महीनों पहले एक अध्ययन के अनुसार अभी पूरे वर्ष की बारिश का लगभग 80 प्रतिशत केवल 15 दिनों में ही बरस जाता है, पर आने वाले समय में यह अवधि मात्र 12 दिन रह जायेगी।

इसका सीधा सा मतलब है कि इन 12 दिनों में अधिक बारिश होगी और बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहेगा। इतना तो तय है कि मानसून पर पूरी तरीके से आश्रित होने के बाद भी अभी इसके बारे में बहुत कुछ जानना बाकी है।

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