देश की 63 फीसदी महिलाएं बच्चा होने के दिन तक करती हैं हाड़-तोड़ मेहनत, ढोती हैं ईंट, पत्थर

Update: 2019-11-21 12:57 GMT

ग्रामीण भारत की 63 प्रतिशत महिलाएं बच्चे को जन्म देने के दिन तक करती हैं ईंट ढोने, मिट्टी खोदने, पत्थर तोड़ने जैसे हाड़-तोड़ मेहनत का काम, इससे हरहाल में बचना है जरूरी, यह स्थिति मां-बच्चे दोनों के लिए गंभीर संकट का कारण बनती है...

जनज्वार। पाखंड भारतीय समाज का सबसे बुनियादी लक्षण है। सबसे ज्यादा यह महिलाओं के संदर्भ में दिखाई देता है। यह तथ्य एक बार फिर अर्थशास्त्री-सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज और रितिका खेर के नेतृत्व में हुए एक अध्ययन में सामने आया है। यह अध्ययन गर्भवती माताओं और लरिकोर ( दुधमुहें बच्चे की मां) माताओं की भारतीय समाज में क्या स्थिति है, यह जानने के लिए किया गया।

ह अध्ययन इसी वर्ष जून महीने में भारत के 6 राज्यों में किया गया। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि भारत के ग्रामीण समाज की 63 प्रतिशत महिलाएं बच्चे को जन्म देने के दिन तक कड़ी मेहनत करती रही हैं। इसमें ईंट ढोने, मिट्टी खोदने, पत्थर तोड़ने जैसे हाड़-तोड़ मेहनत के काम भी शामिल हैं।

इस संदर्भ में मेडिकल विशेषज्ञों का कहना है कि गर्भ के अंतिम तीन महीनों में गर्भवती स्त्री को सामान्य शारीरिक गतिविधियां और छोटे-मोटे रोजमर्रा के काम तो करना चाहिए, लेकिन हाड़-तोड़ परिश्रम से हरहाल में बचना चाहिए। यह स्थिति मां-बच्चे दोनों के लिए गंभीर संकट का कारण बनती है।

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र्भवती मां के संदर्भ में एक स्थापित चिकित्सीय तथ्य यह है कि गर्भ के दौरान मां का वजन कम से कम 13 किलो बढ़ना चाहिए। इसमें मां के गर्भ मे पलते बच्चे का वजन भी शामिल होता है। लेकिन इस अध्ययन का निष्कर्ष बताता है कि औसतन गर्भवती माताओं के वजन में 7 किलों से अधिक की वृद्धि नहीं हुई।

सका निहितार्थ यह कि अधिकांश महिलाएं गर्भ के दौरान कुपोषण का शिकार रही हैं। हम जानते हैं कि भारत में जच्चा-बच्चा की मौत का सबसे बड़ा कारण माताओं का गर्भ के दौरान कुपोषित होना होता है जिससे मां तो कुपोषित रहती है, बच्चा भी कुपोषित रहता है। कुपोषित बच्चा या तो किसी बीमारी का शिकार होकर मर जाता है या उसका शारीरिक और मानसिक विकास ठीक से नहीं होता। वह आजीवन गर्भ के दौरान मां के कुपोषित रहने का अभिशाप झेलता है। गर्भ के दौरान कुपोषित माताओं का प्रसव के मरने का खतरा भी सबसे अधिक रहता है।

स सर्वे में जिनती महिलाओं से बात की गई, उसमें से हर तीसरी ने बताया कि गर्भ के दौरान बच्चे के जन्म के लिए या उसके बाद की जरूरतों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें कोई न कोई सामान बेचना पड़ा या गिरवी रखना पड़ा। गर्भवती महिलाओं में 41 प्रतिशत को सूजन की बीमारी, 9 प्रतिशत को झटके की बीमारी और 17 प्रतिशत को दिन की रोशनी में ठीक से दिखाई न दिखाई देने की बीमारी का सामना करना पड़ा।

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बसे दुखद यह है कि 48 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं और 39 प्रतिशत हाल में बच्चे को जन्म देने वाली ( लरिकोर) महिलाओं को यह भी पता नहीं है कि गर्भ के दौरान उनका वजन बढ़ा था या नहीं। 21 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि बच्चे को जन्म देने के बाद उनकी कोई मदद करने वाला नहीं था। उन्हें स्वयं ही अपनी तथा बच्चे की सारी जिम्मेदारी उठानी पड़ी।

र्भवती और हाल में बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं के एक हिस्से को न्यूनतम बुनियादी चिकित्सकीय सुविधा भी नहीं मिली। जिसमें आयरन की गोली और बच्चे को जन्म देने के बाद टिटनेस का इंजेक्शन भी शामिल है। इस पूरे संदर्भ में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और झारखंड की स्थिति सबसे बदत्तर है।

यह है उन महिलाओं के प्रति भारतीय समाज और राज्य का क्रूर चेहरा, जिन्हें वह जन्मदात्री, मातृ देवी, मां, जननी, सृजनकर्ता और देवी आदि विभूषण देता रहता है। जबकि वास्तविक जीवन में उनके प्रति क्रूर, निर्मम और अमानवीय बना रहता है।

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