सिर्फ मनोरंजन नहीं है थिएटर

Update: 2017-08-19 10:11 GMT

थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस का दिल्ली नाट्योत्सव

'न्याय के भंवर में भंवरी' नाटक ने अपने आप को 'मर्द' कहकर सीना चौड़ा करने वाले पुरूषों को जिस तरह आईना दिखाया, उस अनुभूति को शब्द में बयान करना जरा मुश्किल है...

थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस नाट्य दर्शन के सृजन और प्रयोग के 25 वर्ष पूरे हुए। अपने सृजन के समय से ही देश और विदेश, जहां भी इस नाट्य दर्शन की प्रस्तुति हुई, न सिर्फ दर्शकों के बीच अपनी उपादेयता साबित की, बल्कि रंगकर्मियों के बीच भी अपनी विलक्षणता स्थापित की।

इन वर्षों में इस नाट्य दर्शन ने न सिर्फ नाट्य कला की प्रासंगिकता को रंगकर्मी की तरह पुनः रेखांकित किया, बल्कि एक्टिविस्ट की तरह जनसरोकारों को भी बार बार संबोधित किया। दर्शकों को झकझोरा और उसकी चेतना को नया सोच और नई दृष्टि दी। इन 25 वर्षों में थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस के सृजनकार मंजुल भारद्वाज ने भारत से लेकर यूरोप तक में अपने नाट्य दर्शन के बिरवे बोये, जो अब वृक्ष बनने की प्रक्रिया में हैं।

मंजुल ने यह भी साबित किया कि बिना किसी सरकारी अनुदान और कॉरपोरेट प्रायोजित आर्थिक सहयोग के बिना भी सिर्फ जन सहयोग से रंगकर्म किया जा सकता है और बिना किसी हस्तक्षेप के पूरी उनमुक्तता के साथ किया जा सकता है। ऐसे में 25 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 10, 11 और 12 अगस्त को राजधानी दिल्ली के ऑडिटोरियम में तीन दिवसीय नाट्य उत्सव का आयोजन किया गया।

थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस के दिल्ली नाट्योत्सव पर रंगकर्मी-अभिनेत्री रोहिणी निनावे का अनुभव

उत्सव की शुरुआत 'गर्भ' नामक नाटक से हुई। इसके कलाकार थे, अश्विनी नांदेडकर, सायली पावसकर, कोमल खामकर, योगिनी चौंक और तुषार म्हस्के। इस नाटक के जरिए विश्व भर में नस्लवाद, धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के बीच हो रही खींचतान में फंसी या गुम होती मानवता को बचाने के संघर्ष की गाथा को बड़ी खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया। अभिनय के स्तर पर वैसे तो सभी कलाकारों ने बढ़िया काम किया, लेकिन मुख्य भूमिका निभा रही अश्वनी नांदेड़कर का अभिनय अद्भुत था। हर भाव, चाहे वह 'डर' हो, 'दर्द' हो या खुशी हो, जिस आवेग और सहजता के साथ मंच पर प्रकट हुआ, वह अभूतपूर्व था।

दूसरे दिन 'अनहद नाद : unheared sounds of universe' का मंचन हुआ। इसमें भी उन्हीं सारे कलाकारों ने अभिनय किया। इस नाटक में इंसान को उन अनसुनी आवाजों को सुनाने का प्रयास था, जो उसकी अपनी आवाज़ है, पर जिसे वह खुद कभी सुन नहीं पाता, क्योंकि उसे आवाज़ नहीं शोर सुनने की आदत हो गई है। वह शोर जो कला को उत्पाद और कलाकार को उत्पादक समझता है। जो जीवन प्रकृति की अनमोल भेंट की जगह नफे और नुकसान का व्यवसाय बना देता है। सभी कलाकारों ने सधा हुआ अभिनय किया। लगा नहीं कि कलाकार चरित्रों को साकार कर रहे हैं, ऐसा लगा, मानो हम स्वयं अपने शरीर से बाहर निकल आये हों।

तीसरे दिन, 12 अगस्त को 'न्याय के भंवर में भंवरी' का मंचन देखने को मिला। इस नाटक की एक और विशेषता थी, इसमें एक ही कलाकार बबली रावत का एकल अभिनय था। मानव सभ्यता के उदय से लेकर आजतक जिस प्रकार पितृसत्ता से उपजी शोषण और दमनकारी वृति ने नारी के लिए सामाजिक न्याय और समता का गला घोंटा है और कैसे इस पुरुष प्रधान समाज में परंपरा और संस्कृति के नाम पर महिलाओं को गुलामी की बेड़ियों में कैद करने की साजिश रची गई, इसका मजबूत विवरण औए विश्लेषण मिलता है

बबली जी ने बड़ी परिपक्वता के साथ नारी के दर्द को उजागर किया और पूरे नाटक के दौरान दर्शकों की सांस को अपनी लयताल से बांधे रखा। जिस दृढ़ता से उन्होंने अपने आप को 'मर्द' कहकर सीना चौड़ा करने वाले पुरूषों को आईना दिखाया, उस अनुभूति को शब्द में बयान करना जरा मुश्किल है।

संकेत आवले ने प्रकाश संयोजन को बखूबी संभाला। दिल्ली में थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के तले पल्लवित पुष्पित रंगकर्मी स्मृति राज ने इस रंग उत्सव का आयोजन कर दिल्ली को एक नए एवम् अनूठे रंग अनुभव से रूबरू कराया!

जब मैं नाटक देखने गई थी, तब यही सोच था कि इन नाटकों में भी वैसा ही कुछ देखने को मिलेगा, आमतौर पर जैसा हम आज तक थिएटर में देखते आए हैं, लेकिन थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने मेरी इस धारणा को तोड़ा कि थिएटर सिर्फ एक मनोरंजन का साधन है। यह मनुष्य की अंतरात्मा को झिंझोड़ कर उसे चैतन्य भी बना देता है।

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