यह साल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 150वां जयंती वर्ष है, गांधी की 150वीं जयंती पर गांधी के उस अधूरे भाषण से रू-ब-रू करा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी जिसके कारण मंचासीन अध्यक्ष तिलमिलाकर मंच छोड़कर चले गये और समारोह में मौजूद जनता गांधी के पक्ष में नारे लगाती रही....
गांधीजी की 150वीं जयंती पर उस भाषण को याद करना ज़रूरी है, जो उन्हें मोहनदास से महात्मा बनने की ओर ले जाता है। यह भाषण 6 फरवरी, 1916 को दिया गया।
दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी को एक साल बीत चुका था। उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने हिदायत दी थी कि किसी सार्वजनिक बयान और भाषण से पहले वह पूरे देश का भ्रमण करें और हिन्दुस्तान को समझें। गांधी ने अपने गुरु की इस सलाह पर सही मायनों में अमल किया।
फरवरी 1916 के पहले हफ्ते गांधी बनारस पहुंचे। उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में बुलाया गया था। इस समारोह के मुख्य अतिथि वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग थे और समारोह में करीब 6,000 लोग मौजूद थे। वायसराय के आगमन की वजह से पूरा शहर छावनी में तब्दील कर दिया गया था। तमाम राजे-रजवाड़े इस समारोह में शाही कपड़ों में सजे और आभूषणों से लदे हुये पहुंचे। दूसरी ओर गांधी एक बहुत ही साधारण धोती-कुर्ते में थे।
भारत आने के बाद यह गांधी का पहला सार्वजनिक भाषण था। उनकी वाणी और विचारों में उस क्रांतिकारी बदलाव की आहट साफ सुनाई दी, जिसकी नींव गांधी रखने जा रहे थे। आज करीब 100 साल बाद भी गांधी का यह भाषण उतना ही प्रासंगिक लगता है।
यह भी पढ़ें : गांधी जी की विरासत के साथ विश्वासघात
जिन मुद्दों को गांधी ने उठाया, वह आज भी अनसुलझे हमारे सामने खड़े हैं और उनका महत्व कम नहीं हुआ है। कई मायनों में तो वह विषय हमें अधिक ललकारते दिखते हैं, क्योंकि आज हम किसी विदेशी हुकूमत के तले नहीं बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी लोकशाही में जी रहे हैं।
बीएचयू की स्थापना मदन मोहन मालवीय और एनी बेसेंट ने की। गांधी के भाषण से ठीक पहले एनी बेसेंट बोली थीं। उनके व्याख्यान का विषय था –“चरित्र निर्माण में विश्वविद्यालय का योगदान”। गांधी के भाषण के वक़्त भी बेसेंट मंच पर थीं और महाराजा ऑफ दरभंगा उस सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे।
गांधी का यह भाषण वहां मौजूद लोगों के लिये कोई प्रशंसापत्र नहीं, बल्कि देश की सामाजिक स्थिति बहुत तीखा हमला और आयोजकों समेत वहां मौजूद गणमान्य लोगों को नाराज़ करने वाला था। गांधी ने अपने भाषण की शुरुआत में वाणी के बजाय कर्म पर ज़ोर दिया।
“कितने भी भाषण हों वह हमें स्वराज के लिये उपयुक्त नहीं बना सकते। केवल हमारा आचरण ही हमें इस लायक बना सकता है।”
गांधी ने एक दिन पहले बनारस के विश्वनाथ मंदिर के दर्शन किये थे और वह शहर में फैली गंदगी से काफी दुखी और खिन्न हुये। उन्होंने प्रश्न किया क्या मंदिर की ओर ले जाने वाली गलियों को इतना गन्दा होना चाहिये। हिन्दू धर्म और मान्यताओं का हवाला देते हुये गांधी ने सवाल पूछा कि क्या अंग्रेज़ों के भारत से चले जाने के बाद हमारे मंदिर पवित्रता और साफ सफाई के साथ शांति का घर बन जायेंगे? 'अगर हमारे मंदिर तक स्वच्छता के प्रतीक नहीं बने तो हम कैसा स्वराज हासिल कर सकते हैं?'
यह भी पढ़ें : वे गांधी का नाम तो लेते हैं, मगर मंदिर गोडसे का बनाते हैं
फिर गांधी ने वह बात कही जो वहां मौजूद राजे-रजवाड़ों को सबसे अधिक अखरी। गांधी के बोलने से पहले समारोह में मौजूद महाराजाओं ने भारत में ग़रीबी की समस्या पर भाषण दिये थे और इसे मिटाने के लिये उपायों पर चर्चा की, लेकिन गांधी ने सवाल उठाया कि राजा के प्रति वफादारी दिखाने के लिये क्या सिर से पैर तक आभूषण लादकर खड़ा होना ज़रूरी है। गांधी ने अपने भाषण में राजे-रजवाड़ों की अकूत संपदा पर कटाक्ष किया और कहा कि जब तक सारे आभूषण उतार कर देशवासियों (गरीबों) को नहीं दे दिये जाते तब तक किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता।
गांधी ने अपने इस भाषण से वहां मौजूद प्रिंस नाराज़ हो गये। सबसे पहले अलवर के महाराजा और फिर बाकी लोगों ने मंच से जाना शुरू किया। गांधी बोलते रहे और समारोह में मौजूद जनता गांधी के पक्ष में नारे लगाती रही। गांधी ने इस भाषण से वहां मौजूद जनता और सामान्य लोगों के दिल जीत लिये। उनसे प्रभावित होने वालों में युवा उद्योगपति जी डी बिड़ला और 20 साल के विनोबा भावे भी थे।
मंच पर मौजूद एनी बेसेंट गांधी की बेबाकी से कतई खुश नहीं थीं। उन्होंने गांधी से चुप हो जाने को कहा। लेकिन गांधी ने कहा वह इस बारे में अध्यक्ष (दरभंगा के महाराज) के आदेश का इंतज़ार करेंगे।
आज 100 साल बाद गांधी के व्याख्यान का भारत में व्याप्त आर्थिक असमानता और साम्प्रदायिक माहौल के बीच खास महत्व है। रोज़गार की कमी, ढुलमुल अर्थव्यवस्था और उद्योगपतियों को टैक्स माफी के बीच आलीशान होटलों में हो रहे सरकारी सम्मेलन, अति महंगा चुनाव प्रचार और देश के भीतर और बाहर अपनी ब्रांडिंग के लिये प्रधानमंत्री और सरकार द्वारा किये जा रहे सम्मेलन। ये सब आज गांधी के व्याख्यान के निशाने पर दिखते हैं।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि गांधी की आत्मकथा में उनकी इस बनारस यात्रा का ज़िक्र नहीं है। गुहा के मुताबिक यह कहना कठिन है कि गांधी ने जान-बूझकर इस यात्रा का ज़िक्र नहीं किया या यह महज़ संयोग था, लेकिन यह भाषण उनकी राजनीतिक नियति तय करने अहम भूमिका रखता है।
रुद्रांक्षु मुखर्जी द्वारा संपादित “द ग्रेट स्पीपेज़ ऑफ मॉडर्न इंडिया” में भी इस भाषण का ज़िक्र है। इस व्याख्यान की भूमिका में मुखर्ज़ी लिखते हैं, गांधी के भाषण के वक़्त ऐसा शोर मचा कि अध्यक्ष (दरभंगा के महाराज) मंच से उठकर चले गये और गांधी को भाषण अधूरा छोड़ना पड़ा।
बाद में गांधी ने अपने एक मित्र को लिखा, “मैंने अब तक बोरियत की वजह से श्रोताओं को उछकर जाते देखा था। मैंने देखा था कि वक्ताओं को चुप करवा कर बिठा दिया गया हो, लेकिन अध्यक्ष सभा छोड़कर चला जाये यह नहीं देखा था।”