वन गांवों के लोगों के हक-हकूक के लिए राजधानी में होगी दस्तक

Update: 2018-12-24 13:18 GMT

सरकार नहीं बनाती वन गांवों के लोगों का स्थाई निवास प्रमाणपत्र, पीढ़ियों से रह रहे इन ग्रामीणों को खुद को देश का नागरिक करना पड़ सकता है साबित, यह जुल्म केवल इसलिये कि जिस जमीन पर दशकों से वह काबिज हैं, उसका मालिकाना हक है वन विभाग के पास...

सलीम मलिक की रिपोर्ट

रामनगर, जनज्वार। केन्द्र सरकार की बहुप्रचारित ‘उज्जवला योजना’ के तहत देश के अन्तिम गांव के अन्तिम घर तक बिजली पहुंचाने के दावे के बीच यदि यह कहा जाये कि हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के जंगलों के बीच बसे करीब दो सौ गांव अभी भी बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं से महरुम हैं तो शायद भरोसा नहीं होगा।

हालांकि खबर में किया जा रहा दावा अर्द्धसत्य है, क्योंकि पूरी सच्चाई यह है कि इन गांवों में बिजली के साथ-साथ स्वास्थ्य, स्कूल, यातायात जैसी बुनियादी सुविधाएं भी पूरी तरह से नदारद हैं। इन गांवों से जुड़े एक और हास्यापद प्रहसन्न को जानना चाहें तो वह यह है कि इन गांवों के निवासियों को अपने सांसद व विधायक तो चुनने का अधिकार है, लेकिन अपनी छोटी पंचायत सरकार ग्राम प्रधान को चुने जाने का कोई अधिकार नहीं है।

सरकार इनका स्थाई निवास प्रमाणपत्र भी नहीं बनाती, जिसके चलते कौन जाने कल को पीढ़ियों से रह रहे इन गांवों के लोगों को देश का नागरिक ही साबित करने का न कहा जाने लगे। इन गांवों में बसे लोगों के साथ यह जुल्म केवल इसलिये हो रहा है कि जिस जमीन पर दशकों से वह काबिज हैं, उसका मालिकाना हक वन विभाग के पास है।

71 सालों से ऐसी जमीन पर बसे गांवों को उत्तराखण्ड में गोट, खत्ता, टोंगिया ग्राम, वन ग्राम के अलग-अलग नामों से पुकारे जाने के बाद इन गांवों की समस्याएं एक समान हैं। इन गांवों में बसने वाली अधिकांश आबादी भूमिहीन अनुसूचित जाति व वन गुर्जरों की है। इन गांव के लोगों के साथ देश व राज्य की चुनी हुयी सरकारें व वन विभाग दुश्मनों जैसा बर्ताव कर रही हैं।

वर्ष 2006 में देशव्यापी जनआंदोलनों के दबाव में केन्द्र सरकार द्वारा पारित वनाधिकार कानून में देश के वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय की बात को स्वीकार किया गया है। परन्तु कानून में दर्ज कर देने के बाद भी यह ऐतिहासिक अन्याय उत्तराखंड में आज भी बरकरार है। अतिक्रमण के नाम गरीबों के आवासों को तोड़ देना, जेसीबी से फसलें उजाड़ देना, फर्जी मुकदमे लगा देना, वनाधिकार के दावों पर सुनवाई न करना यहां का दस्तूर बन चुका है।

वन पंचायतों को शक्तिहीन कर सभी अधिकार वन विभाग को सौंप दिये गये हैं। जनता के जल-जंगल-जमीन पर अधिकारों को खत्म करने के लिए संरक्षित वन क्षेत्र का दायरा लगातार बढ़ाया जा रहा है। उत्तराखंड में दो तिहाई से अधिक क्षेत्र वन भूमि है। नेशनल पार्क, कंजरवेशन रिजर्व, वायोस्फेयर, टाइगर रिजर्व व ईको सेंसिटिव जोन जैसे कानूनों ने उत्तराखंड के विकास व जन-जीवन को संकट में डाल दिया है।

हिंसक बाघ तेंदुए हाथी, भालू व अन्य जंगली जानवर घरों में घुसकर इंसानों को मार रहे हैं, खेती-किसानी चैपट कर रहे हैं परन्तु सत्ता में बैठे लोग इनकी सुरक्षा के सवाल पर बोलने व सुनने के लिए तैयार नहीं है। भाजपा व कांग्रेस जैसे दल वनवासियों को मालिकाना हक व बुनियादी अधिकार देने का वायदा करते रहे हैं, परंतु गद्दी पर बैठते ही यह दल अपना वायदा भूल जाते हैं।

सरकार जहां एक ओर वनवासियों को उनकी भूमि पर मालिकाना हक व बुनियादी सुविधाएं देने की जगह, उन्हें उजाड़ने व बेघर करने पर तुली है, वहीं दूसरी तरफ देश के पूंजीपतियों को कौड़ियों के दामों पर भूमि व सब्सिडी लुटा रही है। इसके लिए सरकार अब भू कानूनों में भी संशोधन कर रही है। ऐसे में इन गांवों के निवासियों ने अपने हक की आवाज बुलन्द करने के लिये उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में अपनी आवाज बुलन्द करने का फैसला किया है।

‘जल-जंगल-जमीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी’ नारे के साथ वन गांवों की बसी हजारों की आबादी ने खुद पर हो रहे जुल्मों का प्रतिकार करने के लिये 28 दिसम्बर को सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिये चुना है।

इस दिन समस्त गोट-खत्ते, वन ग्राम, टोंगिया ग्राम व गूजर बस्तियों-डेरों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिये जाने और सभी को बिजली, पानी, सड़क, ग्राम प्रधान चुनने व चुने जाने का अधिकार देने के लिये साथ-साथ ही वन विभाग द्वारा वन गूजरों व वनवासियों का उत्पीड़न बंद करने और उन पर लगाए गये सभी फर्जी मुकदमे वापस लिए जाने, 13 दिसम्बर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास कर रहे सभी निवासियों को वनाधिकार कानून 2006 के दायरे में लाये जाने, जंगली जानवरों से इंसानों, मवेशियों व फसलों की हिफाजत करने तथा आबादी में आकर हमला करने वाले जानवरों को मारने का हक जनता को देने, वन पंचायतों को वनाधिकार कानून के दायरे में लाने के साथ ही कैम्पा फंड की धनराशि वन पंचायतों को सौंपी जाने जैसी मांगों को सरकार के सामने रखा जायेगा।

ऐसे समय में जब इन गांवो के निवासियों के विधायकों व सांसदों ने इनसे मुंह मोड़े रखा हो तो उत्तराखंड वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, किसान संघर्ष समिति, सरपंच संगठन, समस्त ग्राम स्तरीय वनाधिकार समिति उत्तराखंड, समाजवादी लोक मंच जैसे जनवादी संगठनों ने इनकी आवाज सत्ता तक पहुंचाने की ठानते हुए इन ग्रामीणों का न केवल हौसला बढ़ाया है, बल्कि उनकी लड़ाई किसी मुकाम तक पहुंचाने का संकल्प भी दोहराया है।

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