न्याय पंचायतों को सशक्त किए बिना हर इंसान को इंसाफ मिलना असंभव

Update: 2018-07-10 11:08 GMT

आॅपरेशन आतंक आउट के अंतर्गत योगी सरकार ने अब तक 1240 एनकाउंटर कराये हैं। एक फिल्म बनी थी अब तक छप्पन। इसी की तर्ज पर तथाकथित आरोपी पकड़े गए और 1240 फर्जी मुठभेड़ दिखाकर 'कानून के शासन' का ढिंढोरा पीटा गया...

जनार्दन शाही का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार बनाम एलजी मामले में अहम फैसला दिया कि बॉस दिल्ली सरकार है, न कि एलजी। दिल्ली सरकार एक चुनी हुई सरकार है, जो लोकतंत्र में अहम है। एलजी की सहमति ही फैसले में आवश्यक नहीं है। किंतु कैबिनेट के फैसले की जानकारी एलजी को देनी होगी।

दिल्ली सरकार के कैबिनेट की सलाह से एलजी को काम करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आम आदमी पार्टी में जश्न का माहौल रहा। सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों ने बड़ी ही मार्मिक टिप्पणी की है कि 'जनमत के साथ किसी सरकार का गठन हुआ है तो यह महत्वपूर्ण है।'

अब दिल्ली सरकार जनता के लिए फैसले ले सकती है। एलजी से अनुमति लेना आवश्यक नहीं है। चुनी हुई सरकार अफसरों के ट्रांसफर, पोस्टिंग कर सकती है। लोकतंत्र में लोक महत्वपूर्ण है। लैंड, पुलिस और लॉ सरकार के अधीन नहीं रहेंगे, किंतु शिकायतें, ट्रांसफर, विकास आदि पर दिल्ली सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहेगा।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मद्देनजर पूरे देश की व्यवस्था को देखा जाना चाहिए। कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका को अपने—अपने क्षेत्रों में कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता होनी ही चाहिए। किंतु प्रधान सेवक (मंत्री), मुख्यमंत्री, न्यायपालिकातथा कार्यपालिका को अपने नियंत्रण में रखते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करके लोकतंत्र खतरे में है, कहना वर्तमान गंभीरता को दर्शाता है। कार्यपालिका विधायिका के इशारे पर काम करती है। मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व तब बेमानी हो जाते हैं, जब कार्यपालिका सत्ता के इशारे पर काम करना शुरू कर देती है।

यूपी पुलिस का आॅपरेशन आतंक आउट के अंतर्गत योगी सरकार ने अब तक 1240 एनकाउंटर कराये हैं। एक फिल्म बनी थी अब तक छप्पन। इसी फिल्म की तर्ज पर तथाकथित आरोपी पकड़े गए और 1240 फर्जी मुठभेड़ दिखाकर 'कानून के शासन' का ढिंढोरा पीटा गया। देश में बुद्धिजीवी, पत्रकार, मीडिया, समाजसेवी का प्रतिरोधी क्षीणावस्था के कारण स्वहित में ही लीन हो गये हैं। ऐसी दशा में भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों का प्रवर्तन नाममात्र का ही रह गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखित 'समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य अपने प्रभाव को खोता नजर आता है।

आप कल्पना करें कि विधायिका और कार्यपालिका दोनों के संयुक्त अभियान में कानून के समक्ष समानता और कानून का शासन की दुहाई देने वाला क्या अपनी जान बचा सकता है? हरगिज नहीं। कानून की दशा तथा दिशा सत्तासीन पार्टी अथवा वर्ग तय करता है। कांग्रेस—भाजपा दोनों का शासन केंद्र में रहा है। आज तक दोनों दलों ने अपने—अपने ढंग से देश में भ्रष्टाचार तथा शोषण के विरूद्ध तर्क दिए। किंतु दोनों दलों में से एक भी नेता भ्रष्टाचार, कदाचरण के दोषी नहीं पाए गए।

दोनों दल एक दूसरे को बचाते रहे। इनके अंतर्संबंध इतने मजबूत हैं कि उसके सामने कानून का शासन एक मुहावरा बनकर रह जाता है। अन्तोव चेखव की कहानी 'वार्ड नं. 6' में उसका पात्र इवान दि​मीत्रिच चिल्लाते हुए कहता है, 'बिना मुकदमा चलाए किसी की स्वतंत्रता नहीं छीनी जा सकती। यह तो सरासर हिंसा है। बिल्कुल स्वेच्छाचारिता है।'

मैं भी मानता हूं कि बेशक स्वेच्छाचारिता है। इसी प्रकार चेखव अपनी कहानी में एक पात्र से कहलाते हैं कि, 'बड़े लोगों में आपसी एक समझदारी तथा समझौता होता है कि दोनों एक दूसरे पर आरोप—प्रत्यारोप नहीं लगाएंगे तथा विरोधी होने पर एक दूसरे की मदद करते रहेंगे।

अंत में लोकतंत्र का अर्थ है लोक का शासन। यानी जनता का शासन। संविधान की आत्मा स्वायत्तता है। पंचायतों, निकायों, न्याय पंचायतों और ग्राम स्वराज एक कल्पना मात्र है। नीति निर्देशक तत्व के (संविधान() अनुच्छेद 40 में पंचायतों तथा निकायों को सेल्फ गवर्नमेंट अर्थात ग्राम सरकार, निकाय सरकार माना है। किंतु नौकरशाही तथा पदलोलुप नेता अपने स्वार्थ के चलते इसका लोकतंत्रीकरण नहीं कर सके।

हमें जाति, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय से उपर उठकर इस लड़ाई को लड़ना होगा। पुलिस एक्ट 1861 को नए सिरे से बनाना होगा। न्याय सस्ता करने हेतु न्याय पंचायतों को सशक्त बनाना होगा।

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