रोहित आओ तुमको माफ़ करें कि तुम चले गए

Update: 2019-04-11 04:44 GMT

युवा कवि सौम्य मालवीय की कविताएं

वतनपरस्त

कितना आसां है

तुम्हारे लिए वतनपरस्त होना

क्योंकि तुम्हारी वतनपरस्ती का बोझ

तुम खुद नहीं दूसरे उठाते हैं

जैसे यह बात इन दूसरों के नाम रक़म है

कि वे हर कुछ दिनों पर ग़द्दार निकलते रहें

और बैठे-बिठाये तुम्हारी वफ़ादारी का वक़ार बढ़ता रहें!

बिना ख़ास कोई ज़हमत उठाये!

कितना मज़ेदार है ना कि तुम्हें

खिड़की से गर्दन भी नहीं निकालनी पड़ती

और देशभक्ति तुम्हारे घर महीने की रसद की तरह पहुँच जाती है!

पर इन दिनों तुम कुछ ज़्यादा ही दरियादिल नज़र आते हो

ग़द्दारी की अदायगी तुमने इन ‘दूसरों’ पर इतनी आसान जो कर दी है!

बस कभी तुमसे बड़ी दाढ़ी रख लेनी होती है

कभी तुमसे जुदा विचार तो कभी

कुछ ऐसा खा लेना होता है

जो गाहे-बगाहे तुम्हें ईश्वर की याद दिला देता हो!

बाकी बची-खुची रस्में तुम खुद ही निभा लेते हो!

सचमुच इस ‘हद-ए अख़लाक़’ का जवाब नहीं

जिसे तुमने एक बेमुरव्वत डबल बेड के नीचे से

निकली ईंटों से साफ़-साफ़ मुक़र्रर कर दिया है!

पर ऐसा भी नहीं कि

सिर्फ दूसरे ही सिद्ध करते हों तुम्हारी वतनपरस्ती

तुम भी धनतेरस पर कार, अक्षय-तृतीया पर सोना,

और फ्लिपकार्ट पर दुर्गा सप्तशती खरीद कर

अपनी भूमिका निभा ही देते हो!!

फर्क़ यह है कि जब तुम यह भूमिकाएं निभाते हो

तो तुम्हारे लिए वतनपरस्ती

कोई तकाज़ा नहीं एक जिंसी हक़ होता है!

कोला पीने से लेकर गुड़ी पाड़वा मानाने तक

कुछ भी तुम्हें सहज ही भारतीय बना जाता है

ज़हे-नसीब!

इतना आसान तो राम के लिए भगवान बनना भी न था!

कभी सोचता हूँ तो लगता है

ये कैसा सफर तय कर लिया तुमने

जहाँ ख़िरदमंदों का क़ातिल होना

तुम्हें वतनपरस्त बना देता है!

ये कौन सा मक़ाम है

जहाँ इतना आसाँ है तुम्हारे लिए

वतनपरस्त होना कि ज़िंदगी परस्त होना नामुमकिन सा हो गया है!

ये और बात है कि ज़िंदगी को छोड़ो

अब तो ग़ारत-ए-जां ही तुम्हारा ईमान नज़र आता है

और वतन?? तुम्हारी वतनपरस्ती ख़ैर करे

वो तो जब तक है बस तब तक ही है!

रोहित वेमुला के नाम

("मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया। खुद को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है। किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, न तो अपने कृत्य से और न ही अपने शब्दों से। ये मेरा फैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूँ। मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान न किया जाए" – रोहित वेमुला।)

एक दोस्त की तरफ़ से कुछ और औपचारिकताएं...

रोहित,

आओ माफ़ करें,

दुःख, दुःख, दुःख

की इस घड़ी में माफ़ करें

उन सबको

जो नाकाबिले माफ़ी हैं!

अवसाद और अकेलेपन

की समूची गहराई को

उतार लें सीने में और माफ़ करें

आँखों में बसाकर आहत सन्नाटे,

बालों में भर कर सुदूर तारों की धूल,

उँगलियों के पोर-पोर पर सजाकर ख़ून की बूँदें,

और माथे पर लगाकर अलकतरे का लेप,

माफ़ करें!,माफ़ करें!, माफ़ करें!

माफ़ करें उन्हें जो देश को

बाबाजी का लोटा समझते हैं

माफ़ करें उन्हें जो न्याय को

कानून का सोंटा समझते हैं

माफ़ करें उन्हें जिन्हें रंगों से डाह है

माफ़ करें उन्हें जिन्हें लहू की चाह है

माफ़ करें उन्हें जो सत्ता के मद में अभुआए हुए हैं

माफ़ करें उन्हें जो अपने ही कद में बिलाये हुए हैं

माफ़ करें मन्मथनाथों की मनुसाई को

माफ़ करें पुण्डरीकों की प्रभुताई को

माफ़ करें उन्हें जो बिकास का बल्लम घुमा रहे हैं

माफ़ करें उन्हें जो मज़हब का च्युंगम चबा रहे हैं

माफ़ करें उन्हें जो तेज़ाब को तीर्थोदक समझते हैं

माफ़ करें उन्हें जो कालिख को विद्योतक समझते हैं

माफ़ करें मनु के आत्मजों को

माफ़ करें वेदों के मगजचटों को

माफ़ करें उन्हें जो प्रकृति पर मुकद्दमे की मिसिल पर बैठे हैं

माफ़ करें उन्हें जो गंगा की कोख से निकली सिल पर बैठे हैं

माफ़ करें असहनीयता और अमर्ष को

माफ़ करें वितर्कों के विमर्श को

माफ़ करें गांधी के हत्यारों को

माफ़ करें अंबेडकर के गुनहगारों को

माफ़ करें पूरी नेकदमी के साथ,

हिंसा और प्रतिकार से परे,

एक आदिम तितिक्षा से भरकर माफ़ करें,

माफ़ करे इन सबको

वह स्वाभिमानी सिलाई मशीन और तनकर खड़ा हुआ झाड़ू,

वह नींद से भारी वर्दी एक सुरक्षा गार्ड की,

वह सौर-ऊर्जा से चलने वाला मतवाला पंखा

वह मोहल्ले भर का साझा फ्रिज और अलगनी पर टंगे हुए कपड़े

वह दोस्त चाँपाकल,

वह आइना जिसने सहेज ली तुम्हारी दार्शनिक गंभीरता, बिजली के तार,

पानी गरम करने वाला रॉड, और रौशनी से बझे हुए परदे,

वह एकांतमय बचपन, उमा अन्ना का कमरा,

फेलोशिप के पैसे और रामजी का क़र्ज़,

सितारे, छायाएँ, नक्षत्र, आकाशगंगायें

वे शब्द जो लिखे गए और जो नहीं लिखे गए

वह आख़िरी ख़त, वह दूसरी दुनियाएं

ये सभी चीज़ें अपनी पूरी वस्तु-सौजन्यता,

अपने पूरे आत्माभिमान के साथ,

बिना कोई दोख मढ़े, बिना कोई अभियोग लगाये,

उनकी आँखों में आँखें डाल कर माफ़ करें!

हम दुःख और गुस्से की उस इन्तेहाँ पर खड़े हैं रोहित

जहाँ माफ़ करना ही प्रतिशोध लेना है!

आओ उन्हें यूँ माफ़ करें कि उनके सीनों पर सांप लोट जाएँ

आओ उन्हें यूँ माफ़ करें कि उन्हें अहसास हो कि वे हमारे शत्रु नहीं महज़ एक रुकावट हैं

(और हमें उनके लिए खेद है)

आओ उन्हें यूँ माफ़ करें कि उन्हें यह समझ आये कि,

किसी चीज़ के लिए लड़ना किसी चीज़ के ख़िलाफ़ लड़ने से कहीं बड़ा होता है

आओ उन्हें यूँ माफ़ करें कि वे बौखला उठें,

उन्हें मालूम हो कि हम रेत के बोरे नहीं जिन पर वे निशानेबाज़ी का अभ्यास करें,

उन्हें पता चले कि हम जिस तम्बू को उखाड़ फेंकना चाहते हैं वे उसमें लगे मामूली से पैबंद भर हैं

आओ उन्हें यूँ माफ़ करें कि उन्हें जो अभीप्सित है वह हमसे ना मिले

उन्हें हमारी फ़राख़दामनी का पता चलने दो,

आओ उन्हें ईसा के ढले हुए हाथों की करुणा,

तुम्हारे कटुतारहित आख़िरी शब्दों की उदात्तता

और तुम्हारे सपनों की मासूमियत से भर कर सदा के लिए माफ़ कर दें

रोहित आओ तुमको माफ़ करें कि तुम चले गए...

आओ खुद को माफ़ करें खुदी हुई ज़बानों और खोखली आत्माओं के लिए

आओ खुद को माफ़ करें की तुम हम जैसों से छले गए

रोहित हम बेचैन हैं कि हमारे संघर्षों को तुम्हारे 'सुसाइड नोट' जितनी विराटता मिले

और इसी बेचैनी से भर कर हम माफ़ करते हैं उन्हें ताकि वे शर्मिंदगी से गड़ जाएँ,

ताकि तुम्हारी मौत वह शून्य बने जिसके बाद घनात्मक संख्याएँ शुरू हो सकें

हर गिनती में गूंजे तुम्हारा नाम, 0(रोहित), 1(रोहित), 2(रोहित), 3 (रोहित)...

रोहित हम शर्मिंदा हैं, शर्मिंदा हैं,

हाय हमें माफ़ करो, माफ़ करो, माफ़ करो...

"पाकिस्तान की माँ की!"

"पाकिस्तान की माँ की"

का नारा सुना तो

पहले-पहल ख़्याल आया कि

क्या पाकिस्तान की माँ भी है?

अपनी माँ का तो पता नहीं

बाप था सो उसे मार दिया,

फ़िर अक़्ल के हवाले से बात करें तो

पाकिस्तान की माँ हमारी भी माँ हुई!

सोचा क्या मुल्क़ों की माएँ भी होती हैं?

या वे सिर्फ़ बापों की

स्वैर कल्पनाओं से पैदा होते हैं

और अगर होती है तो

बँटवारे के बाद वो किस बेटे के साथ रहती है?

किसी मुक़म्मल माँ का तो पता नहीं पर

भारत और पाकिस्तान की नाजायज़ माएँ

तो कश्मीर में रहती हैं

और अपने सौदागर बेटों से

अपने खाविन्दों की कब्रों का पता पूछती हैं

"पाकिस्तान की माँ की" कहते हुए

जब वतनपरस्त दिल्ली से लेकर पटना तक

गली-गली अपनी ज़बानों से भारत-पाकिस्तान खींचते हुए

दौड़ते हैं

तो भारत माँ कहाँ होती है,

जय-जय की हुँकारों में

या अज़ान की कातर पुकारों में?

ठीक, ठीक यही मुश्किल है

माँ नाम की शै के साथ

बलवाइयों के बाप तो तय हो सकते हैं

माएँ नहीं,

वतन का जिनपर मालिकाना है

उन्हें दूसरों की माँओं की जगह बतानी है

ये और बात है की माँ तो कुहसारों पर फिसलती धूप है,

हवाओं पर संतानों की ग़ुमशुदगियाँ हैं

और दूसरों की माएँ क्या पता अपनी ही माएँ हैं,

"पाकिस्तान की माँ की"

सुनकर अगर आप खुद को नंगा महसूस नहीं करते

तो यक़ीनन आप अपने बाप की औलाद हैं

पर सिर्फ़ अपने बाप की,

माँ तो "पाकिस्तान की माँ" के साथ बाहर है

माँओं के अदृश्य जुलूस में शामिल

निर्वस्त्र और राष्ट्रविहीन।

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