तालाबंदी के दौरान सामुदायिक रसोई संचालन में देखने को मिलीं हिंदू मुस्लिम एकता की मिसालें
भले ही साम्प्रदायिक राजनीति ने इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब को काफी क्षति पहुंचाई है और अफवाहें व भ्रांतियां फैला कर मात्र राजनीतिक धुवीकरण के उद्देश्य से हिंदू-मुस्लिम समुदायों में दूरियां बढ़ाई गई हैं लेकिन संकट के समय लोग एक दूसरे के काम आए.....
संदीप पाण्डेय व रूबीना अयाज की रिपोर्ट
कोरोना काल में तालाबंदी के दौरान जब पूरी अर्थव्यवस्था, शायद कृषि को छोड़कर, ठप्प पड़ी हुई थी तो लखनऊ में सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) द्वारा एक पहल की गई जिसके तहत समुदायों में रसोई शुरू की गईं जिनके संचालन की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों ने ली। हलांकि पहले राशन भी बांटा गया लेकिन उसमें ऐसा महसूस किया गया कि सबसे जरूरतमंद छूट जा रहे थे। रसोई की कल्पना में कोई भी आकर भोजन ले सकता था और यदि किसी दिन कम पड़ लाए तो दूसरे दिन अधिक बनाया जा सकता था। इस तरह जरूरतमंद के छूटने की गंजाइश कम रहती है। गुरूद्वारों की लंगर की परम्परा हमारे लिए आदर्श थी जिसमें बिना किसी की जाति या धर्म पूछे सम्मान के साथ भोजन परोसने की व्यवस्था रहती है।
लखनऊ शहर से कोई बीस किलोमीटर दूर गोसाईगंज के करीब एक गांव है हरदोइया। वहां पत्थर के सिल-बट्टे बनाने वाला अनुसूचित जाति का एक समुदाय रहता है जो पत्थरकट, गिहार, कंजड़ या शिल्पकार के नाम से भी जाना जाता हैं। वहां समुदाय की नेत्री गुड्डी के माध्यम से करीब ढाई सौ से तीन सौ लोगों के खाने की व्यवस्था की गई। गांव के कोने पर कुछ मुस्लिम परिवार भी रहते थे। हलांकि ऐलान यही किया गया था कि गुरूद्वारे के लंगर की तरह कोई भी आकर इस लंगर में खा सकता है। किंतु मुस्लिम परिवार को वहां आने में संकोच लग रहा था क्योंकि वे पत्थरकट से सम्पन्न थे। गुड्डी ने उनकी दुविधा समझ उनके लिए कुछ कच्चे राशन की व्यवस्था करा दी। गुड्डी का सबसे अनोखा प्रबंधन का तरीका यह देखने को मिला कि पांच-छह चूल्हे थोड़ी थोड़ी दूरी पर बना कर दो-तीन महिलाओं के समूह को एक चूल्हे पर लगा कर रोटियां बनाने की व्यवस्था की।
शहर के अंदर मड़ियांव क्षेत्र में मुस्लिम महिला गुड़िया ने खाना अपने यहां बनाने की जिम्मेदारी ली। किंतु उसका घर कच्चा था। इसलिए उसने कच्चा समान रखने की व्यवस्था अपने घर के सामने रहने वाले हिंदू परिवार के यहां की। जब हिंदू परिवार ने यह देखा कि गुड़िया के यहां सामूहिक भोजन बन रहा है तो उस परिवार की एक महिला रामजानकी अपने नवजवान पुत्रों को ले आई और खाना बनाने में जुट गई। चूंकि तालाबंदी में सभी लोग घरों में खाली बैठे थे अतः लोगों ने खुशी खुशी श्रमदान किया। हलांकि गुड़िया के यहां बना भोजन, जो वह खुद ही बना रही थी, रामजानकी ने ग्रहण करने से मना कर दिया। उसका कहना था कि वह यात्रा में भी अपने यहां का बना छोड़कर बाहर का कहीं खाती ही नहीं है।
दुबग्गा स्थित आश्रयहीन योजना बस्ती में उजमा के यहां भोजन बन रहा था। लेकिन जब रोटी बनाने की बात आई तो उजमा के परिवार का कोई सदस्य तैयार नहीं हुआ। तब उसके घर के सामने रहने वाले बैटरी रिक्शा चालक संदीप ने खुद को प्रस्तुत किया व रोटियां बनाने के काम में जुट गए। रसोई के लिए जरूरी कच्चा सामान लाने के लिए भी उसके रिक्शे का इस्तेमाल होने लगा हलांकि वह रिक्शे का किराया जरूर ले लेता था। चूंकि तालाबंदी में कमाई एकदम बंद थी तो यह बात समझी भी जा सकती है।
दुबग्गा में ही वसंत कुंज स्थित शहरी गरीब के लिए बनी आवासीय कालोनी में जीनत के यहां खाना बनना तय हुआ तो पत्थरकट समुदाय ने वहां आकर खाने से मना कर दिया गया। सबको बैठा कर बातचीत हुई तो लोग मान गए। जीनत की इस शर्त पर कि वह अपने खाना पकाने वालों बर्तनों को किसी को हाथ नहीं लगाने देगी, अनुसूचित जाति के लोग अपने बच्चों को खाना के लिए उसके यहां भेजने लगे। रोजाना कोई सौ से डेढ़ सौ लोग खाने लगे जिसमें बच्चें का संख्या ही अधिक थी। रमजान के दौरा जीनत ने पहले ही कह दिया था कि खाना नहीं बना पाएगी। रमजान शुरू होते ही आशा नामक महिला ने जीनत के यहां से कच्चा सामान लेकर अपने घर में खाना बनाना शुरू कर दिया। इस तरह लंगर की व्यवस्था बाधित नहीं हुई।
हैदर कैनाल में जनक दुलारी मौर्य के यहां खाना बनता था। कुछ दिन बाद पता चला कि पास में एक मदरसा है जिसमें बीस बच्चे रहते हैं जो तालाबंदी के कारण अपने घर नहीं जा पा रहे। जनक दुलारी के यहां से मस्जिद के बच्चों का खाना जाने लगा। मौलाना रोज साइकिल पर दो बच्चों को लेकर आते थे और बर्तनों में बीस बच्चों का खाना ले जाते। फिर जब यह रसोई पास की ही ग्राम पंचायत पतौरा में स्थानांतरित हो गई और संचालन की जिम्मेदारी ब्लाॅक पंचायत सदस्य रमेश कुमार, जिनकी मां विष्णु देवी वहां की ग्राम प्रधान हैं, को मिल गई तो भी रसोई से मदरसे को खाना जाता रहा। इस रसोई से आगरा-लखनऊ यमुना एक्सपे्रस वे पर भी प्रवासी मजदूरों के लिए खाना जाता था। रोजाना करीब चार सौ से पांच सौ लोगों का खाना बनता था।
ठाकुरगंज में संतोष ठाकुर व शानू अब्दुल जब्बार, जो दोनों ही कपड़े के व्यापारी हैं, ने मिलकर लंगर शुरू किया। शानू, जो अपने कपड़े सिलने के कारखाने में कपड़ा काटने का काम करते हैं, खुद ही खाना बनाने में लग गए। रोजाना वहां इलाके के लोग आते थे और अपने बर्तनों में खाना घर ले जाते थे।
उजरियांव, गोमती नगर में मुस्लिम महिलाओं ने, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ आंदोलन में अग्रणी भूमिका में थीं, अपने मोहल्ले के एक छोर पर रह रहे नेपाल से आए प्रवासी मजदूरों, जो सभी हिंदू हैं, के लिए एक रसोई शुरू करवाई। इसी तरह गोमती नगर में सहारा अस्पताल के सामने एक छत्तीसगढ़ से आए प्रवासी मजदूरों की बस्ती में एक रसोई शुरू की गई जो तब तक चली जब तक सरकार ने उनके वापस जाने की व्यवस्था नहीं की। गोमती नगर की दोनों रसोइयों के लिए कच्चे सामान की व्यवस्था लखनऊ की जानी मानी चिकित्सक डाॅ. नुजहत हुसैन की मदद से हुई।
लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में असेनी नामक गांव में अमित मौर्य नामक युवक ने गांव में खाना बनवा कर गोरखपुर व बिहार जा रहे प्रवासी मजदूरों को भोजन अपलब्ध करवाया। इस गांव की लंगर समिति जो भविष्य में गांव के एक मंदिर, जिसका जीर्णोद्धार अमित ने पांच लाख रूपए का चंदा एकत्र कर करवाया है, पर सतत लंगर संचालन करेगी के अध्यक्ष फकीरे अली को बनाया गया है। इसी तरह अयोध्या के दोराही कुआं स्थित एक रामजानकी मंदिर में लंगर शुरू किया गया है। इस मंदिर के महंत जुगल किशोर शास्त्री हैं। मंदिर के लंगर की संचालन समिति के अध्यक्ष अयोध्या से सटे फैजाबाद के दानिश अहमद हैं।
इस तरह हमने देखा कि भले ही साम्प्रदायिक राजनीति ने इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब को काफी क्षति पहुंचाई है और अफवाहें व भ्रांतियां फैला कर मात्र राजनीतिक धुवीकरण के उद्देश्य से हिंदू-मुस्लिम समुदायों में दूरियां बढ़ाई गई हैं लेकिन संकट के समय लोग एक दूसरे के काम आए और इन रसोइयों को चलाने में हमने साम्प्रदायित सद्भावना की गजब की मिसालें देखीं। इससे उम्मीद बनती है कि भले ही राजनीति देश के सामाजिक ताने बाने को तार तार भी कर दे फिर भी लोग जमीनी स्तर पर एक हैं और एक रहेंगे।
भारतीय समाज में हिंदू मुस्लिम एकता की परम्परा या यूं कहें कि विभिन्न जाति, धर्म व विचारों को मानने वाले लोगों की तमाम भिन्नताओं के साथ भी मिलकर रहने की परम्परा काफी मजबूत है। लोगों का या विश्वास दृढ़ है कि मानवीय स्तर पर एक दूसरे की मदद करना ही हमारा धर्म है और इसमें हम किसी राजनीति को बाधा नहीं बनने देंगे।
(लेखक एवं लेखिका सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से सम्बद्ध हैं।)