Langar Baba : 'लंगर बाबा' के नाम से मशहूर पद्मश्री जगदीश आहूजा नहीं रहे, 40 साल तक लोगों को खिलाया नि:शुल्क खाना
Langar Baba : चालीस वर्षों तक जरूरतमंद गरीबों का पेट भरने वाले लंगर बाबा का 85 की उम्र में निधन हो गया।
Langar Baba : पीजीआई चंडीगढ़ के बाहर लंगर बाबा से मशहूर पद्मश्री जगदीश आहूजा (Jagdish Ahuja) का सोमवार को निधन हो गया। मंगलवार की दोपहर 3 बजे चंडीगढ़ (Chandigarh) के सेक्टर 25 श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार किया गया। लंगर बाबा ने पीजीआई के साथ ही जीएमएसएच 16 और जीएमएसएच -32 के सामने भी लंगर लगाकर लोगों का पेट भरा। पीजीआई चंडीगढ़ में इलाज के लिए जितने भी गरीब मरीज और उनके साथ तामीरदार आते थे उन सबके लिए बाबा का लंगर ही सहारा था। हालांकि बाबा अमीर और गरीब में कोई फर्क नहीं करते थे, सबको पेटभर का खाना खिलाते थे।
लंगर बाबा तकरीबन 40 सालों से लंगर सेवा कर रहे थे। इसलिए उन्हें पिछले वर्ष भारत सरकार ने पद्मश्री पुरुस्कार से सम्मानित किया था। वह इन सभी वर्षों के दौरान एक दिन का भी ब्रेक लिए बिना रोजाना लगभग 2,500 लोगों को खाना खिला रहे थे। पीजीआईएमईआर के एक प्रवक्ता कहा कि आहूजा को पीजीआईएमईआर परिसर के बाहर लाखों लोगों को भोजन कराने के उनके असाधारण उदार भाव तथा उनके प्यारे और मानवीय व्यक्तित्व के लिए याद किया जाएगा। प्रवक्ता ने एक बयान में कहा, 'पीजीआईएमईआर लंगर बाबा की उदारता और 'सेवा करने की भावना ' को सलाम करता है।'
लोगों का पेट भरने के लिए करोड़ो रूपये की संपत्ति दान करने वाले लंगर बाबा सेक्टर-23 में रहते थे। उम्र के 85 बसंत पार कर गये जगदीश आहुजा को लोग प्यार से 'लंगर बाबा' के नाम से पुकारते थे। पटियाला में उन्होंने गुड़ और फल बेचकर अपने जीवनयापन की शुरुआत की थी। 1956 में लगभग 21 साल की उम्र में चंडीगढ़ आ गए। ठीक उसी वक्त चंडीगढ़ को देश का पहला योजनाबद्ध शहर बनाया जा रहा था। बाबा का शहर से काफी पुराना रिश्ता था।
जब चंडीगढ़ में मात्र 15 पैसे लेकर आए थे जगदीश आहुजा
जगदीश आहूजा जब चंडीगढ़ आए थे तो उनके हाथ में मात्र 4 रुपये 15 पैसे थे। फिर वह रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे। फिर उन्हें पता लगा कि चंडीगढ़ के मंडी में किसी ठेले वाले को केला पकाना नहीं आता। पहले ही पटियाला में फल बेचने के कारण वह इस काम में माहिर हो चुके थे। बस फिर उन्होंने केले का काम शुरू किया और अच्छे पैसे कमाने लगे।
भूख की अहमियत पता थी, इसलिए शुरू की लंगर सेवा
विभाजन के दौरान लंगर बाबा को कई बार भूखा सोना पड़ा था। लंगर बाबा 1947 में अपनी मातृभूमि पेशावर से बचपन में विस्थापित होकर पंजाब के मानसा शहर आ गए थे। उस समय उनकी उम्र करीब 12 वर्ष थी। बाबा इसी उम्र से जीवन का संघर्ष शुरू कर दिया था उनका पूरा परिवार विस्थापन के दौरान खत्म हो गया था। इतनी बड़ी त्रासदी से उनका पूरा बचपन गुज़रा था। ऐसे में जिंदा रहने के लिए रेलव स्टेशन पर उन्हें नमकीन दाल बेचनी पड़ी ताकि उन पैसों से खाना खाया जा सके और गुजारा हो सके। कई बार तो अगर बिक्री न हो तो उन्हें भूखे पेट सोना पड़ता था।
दादी से मिली लंगर लगाने की प्रेरणा
चंडीगढ़ में बाबा के आर्थिक हालात सुधरे तो वर्ष 1981 में चंडीगढ़ और आसपास के क्षेत्रों में उन्होंने लंगर लगाना शुरू किया। बाबा आहूजा को लोगों को खाना खिलाने की प्रेरणा उनकी दादी माई गुलाबी से मिली, जो गरीबों के लिए अपने शहर पेशावर में लंगर लगाया करती थीं। बाबा के साथ इस काम में उनकी पत्नी निर्मल भी पूरा सहयोग करती थी। सबसे खास बात बाबा लोगों को सात्विक भोजन देते थे। हलवा और फल के अलावा दाल, चावल, सब्जी व रोटी भी लंगर में वितरित करते थे।
सीएम चन्नी ने जताया शोक
पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने भी उनके निधन पर शोक जताते हुए कहा, 'महान सामाजिक कार्यकर्ता एव प्रसिद्धि परोपकारी पद्मश्री जगदीश लाल आहूजा , जिन्हे 'लंगर बाबा ' के नाम से जाना जाता है , के निधन पर मेरी गहरी संवेदना है। पीजीआईएमईआर में गरीबों और जरुरतमंदो को मुफ़्त भोजन और दवाए उपलब्ध कराने का उनका निस्वार्थ भाव दूसरों को इस तरह की महान सेवा के लिए हमेशा प्रेरित करेगा।'